संदीप कुमार मिश्र: 2014 के आम चुनाव में
प्रचंड बहुमत मिलने के बाद सवाल तो उठेंगे ही,कि आखिर क्यों बीजेपी चुनाव दर चुनाव
हार का सामना कर रही है।सबसे ज्याद जो बात सोचने पर मजबूर करती है वो ये कि पहले
दिल्ली फिर बिहार,और दोनो जगह पर ऐतिहासिक हार।सवाल उठता है कि इस हार के मायने
क्या है,चिंतन और मंथन तो जरुरी है ही।आखिर कैसे बीजेपी को इतनी बड़ी हार का सामना
करना पड़ा।तीन मुख्य कारण जो सामने निकल कर आ रहे हैं वो इस प्रकार हो सकते हैं-
1-संवाद 2-संगठन 3-संघ
सवाल उठता है कि-
क्या बीजेपी संगठन में बदलाव की नितांत
आवश्यकता है...?
क्या सरकार में संघ का हस्तक्षेप और संघ
प्रमुख का आरक्षण पर बयान भारी पड़ गया...?
क्या बीजेपी नेताओं के संवाद में सिर्फ आक्रोश
और अभिमान भरा था...?
या कुछ और...?
दरअसल बड़ी हार की पुनरावृती हुई है तो
मंथन भी बड़ा ही होना चाहिए,अपने भी आवाज उठाएंगे,और उठाना भी चाहिए,बेहतर करने के
लिए सोच भी बेहतर बननी चाहिए। बिहार की 243 सदस्यों वाली विधानसभा के लिए रविवार
को हुई मतगणना के बाद महागठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला तो बीजेपी को इस करारा
झटका।बेहद हाईप्रोफाइल प्रचार, लाखों कार्यकर्ताओं की
जी-तोड़ मेहनत, भारी भरकम नेताओं का बिहार में जमावड़ा,साथ
ही बूथ मैनेजमेंट बीजेपी किंग अमित शाह का सारा गणित औंधे मुंह गिर गया।एक तरफ
जहां मोदी के विकास का नारा नहीं चला।तो दुसरी तरफ सुशासन बाबु यानि नीतीस कुमार
का जादू चल गया। चुनावी पंडितों, विश्लेषकों का भी कहना है कि ऐसे कई मुद्दे थे जो
बीजेपी पर भारी पड़ गए।
बीजेपी संगठन में काफी समय से फैल रहे
असंतोष के चलते बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी को जबर्दस्त हार का सामना करना
पड़ा जिसके लिए बिहार स्थानीय नेताओं की अनदेखी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अतिआक्रामकता और उनकी जीत की रणनीति
पर सवाल उठना लाजमी है।क्योंकि पूरे बिहार चुनाव में महागठबंधन का नरमी से प्रचार करना और नीतीश कुमार को अपना मुख्यमंत्री पद का
उम्मीदवार घोषित करने की रणनीति काम कर गयी। वहीं बिहार के मतदाताओं ने बीजेपी के पार्टी
अध्यक्ष अमित शाह की ओर से बनाये गए आक्रामक प्रचार को सिरे से नकार दिया। अब ऐसा लगता है कि बिहार में एक मजबूत पार्टी नेतृत्व तैयार करने की आवश्यकता है।
बिहार के चुनाव में एक मुख्य मुद्दा बिहारी
बनाम बाहरी भी रहा,जिसपर संगठन ने ठीक से काम नहीं शायद ठीक से काम नहीं किया। जिसपर
बेहतर तरीके से विचार और मंथन करने की जरुरत थी।इस बात पर भी विचार करने की जरुरत
है कि टिकट के बंटवारे में कहां कमी रही,क्योंकि आरा से सांसद आर.के.सिंह पहले ही
टिकट बंटवारे पर आपत्ती जता चुके थे।आर.के.सिंह का कहना था कि जिन लोगों के खिलाफ
डकैती जैसे अपराधों के लिए आरोपपत्र दाखिल किये गए थे।उन्हें पार्टी ने टिकट दे
दिये। यह कुछ ऐसे मुद्दे थे,जिन्हें नजरअंदाज करना पार्टी को भारी पड़ गया।
वहीं संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण
को लेकर दिया गया बयान बीजेपी पर निश्चित रुप से भारी पड़ गया।संघ प्रमुख ने
चुनावों के दौरान कहा था कि आरक्षण की पुर्नसमीक्षा होनी चाहिए। हालांकि पीएम मोदी
ने अपनी चुनावी रैली में आरक्षण के बचाव में जमकर आश्वासन दिया। फिर भी बीजेपी का
यह दांव उलटा पड़ गया। इसके चलते महादलितों, पिछड़े और अन्य पिछड़ा वर्ग ने भाजपा के खिलाफ वोटिंग की।
संवाद की बात करें तो नीतीश कुमार पर नरेंद्र
मोदी जी का डीएनए वाला बयान भी बीजेपी को भारी पड़ गया। क्योंकी पीएम के इस बयान
को नीतीश कुमार ने बिहार और बिहार के लोगों की अस्मिता से जोड़ दिया।वहीं नीतीश
कुमार की साफ और स्वच्छ छवि भी बीजेपी की हार का मुख्य कारण रही।हालांकि लालू यादव
की छवि नीतीश के ठीक विपरीत है, फिर भी जनता ने नीतीश
पर भरोसा रखते हुए उनकी पार्टी के लिए वोटिंग की।
साथ ही कुछ और भी मुख्य मुद्दे रहे जो
बीजेपी को बिहार में हराने में कोई कोर कसर नहीं छोड़े।जिसमें दादरी में गौमांस को
लेकर हुए अकलाक की हत्या ने बिहार चुनावों पर भी अपना असर डाला।इस मुद्दे ने बीजेपी
के विकास के नारे सच में हवा निकाल में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
दिल्ली में करारी शिकस्त खाने के बाद बीजेपी
ने बिहार में भी अपने मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं करने की
रणनीति को अपनाया जो कहीं ना कही भारी पड़ गयी क्योंकि बीजेपी के इसी रणनीति को
नीतीश ने चुनावी मुद्दा बनाकर बिहारी बनाम बाहरी के नारे पर चुनाव लड़ा।
जिस विकास की बात और महंगाई से निजात
दिलाने की बात बीजेपी लोकसभा चुनाव में करती थी वो मुद्दे कहीं ना कहीं जनता को लुभा
नहीं पाए और दाल की बढ़ती कीमतों ने मतदाताओं में एक तरह से आक्रोश भर दिया।महंगी
दाल ने बीजेपी के समर्थन में खड़े वोटरों को सोचने पर मजबूर कर दिया।कहीं ना कहीं
बीजेपी की ये सबसे बड़ी भुल थी की वो समझ ही नही पायी कि बिहार जैसे राज्य में आधी
से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करती है।जिसका हित और ख्याल किसी भी
पार्टी के सर्वोपरि होना चाहिए।
मतलब साफ था कि मोदी जी के विकास का
नारा नहीं चला,बिहार बनाम बाहरी का मुद्दा लोगों के दिमाग के घर कर गया वहीं
ध्रुवीकरण की राजनीति उलटी पड़ गयी और संघ प्रमुख का आरक्षण पर दिया बयान बिहार की
जनता की समझ से परे निकलना साथ ही गठबंधन के साथियों का निराशाजनक प्रदर्शन। अब
विचार,मंथन,चिंतन करना तो बनता ही है,कि आखिर चूक कहां हुई,कैसे हुई।।
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