Sunday 1 November 2015

कुलधरा:कहां गए 84 गांव के लोग...?




संदीप कुमार मिश्र: दोस्तों ये कहानी सुनने में आपको फिल्मी जरुर लगेगी लेकिन सौ फीसदी सच है। जरा गौर करेंगे-ये दास्तां है उस चमन की,जहां की बस्तियां कभी गुलजार हुआ करती थीं।जहां की उन्नती,तरक्की और खुशहाली औरों को मुंह चिढ़ाती थी।लेकिन ना जाने वो कौन सी मनहुस घड़ी थी,जब इस गुलजार चमन में एक क्रुर माली की नज़र पड़ी और ये बाग अपने ही बागवान की गंदी नज़र से बेजार हो गया।कहते हैं खूबसूरती ईश्वर का दिया हुआ एक वरदान है,लेकिन कभी-कभी यह शाप भी बन जाती है। दरअसल जैसलमेर से लगभग 20 किलोमीटर दूर एक गांव जो इस बात की गवाही देता है जो अब वीरान हो चुका है।अब इस गांव की हर शामे-ए-सुबह उदास है। दोस्तों पत्थरों की इस सुनसान बस्ती में फैला ये सन्नाटा जुर्म का है। कहते हैं वर्षों पहले यहां जिंदगी क्या उजड़ी  परिंदों की परवाज भी थम कर रह गई।बस्ती पर हावी ये खामोशी है जो घुलने के बाद भी आवाज पुर्जा-पुर्जा हो जाती है।ये ना तो श्मशान है,और ना ही कब्रिस्तान।दरअसल जैसलमेर से करीब 20 किलोमीटर की दूरी पर पत्थरों से बनी ये वो 84 बस्तियां हैं या यूं कहें कि 84 गांव हैं जो कभी पालिवाल ब्राह्मणों के गांव  थे।इन पत्थरों में दफन 84 गांवों की वो खौफनाक दास्तां है जो एक रात में ही बस्ती से पत्थर बन गयी।

वर्षों पहले यहां भी कभी जिंदगी बसा करती थी।करीब 150 साल तक पूरी तरह आबाद और गुलजार रहे इस गांव को जैसलमेर के दीवान सालम सिंह की नज़र लग गई।ये वो सालिम सिंह था जो एक दिवान होते हुए भी पूरे गांव का बेताज बाहशाह बन बैठा था।जहां से भी वो निकलता वहां के लोग अपने आप को महफूज समझने के लिए दरवाजों को अंदर से  बंद कर लिया करते थे।सालम सिंह की अय्याशियों से यहां का ज़र्रा जर्रा वाकीफ था।कहते हैं जिस पर भी उसकी नजर पड़ जाती,उसे वो किसी भी हालत में अपने हरम में ले ही लेता था।सालिम सिंह के आतंक से हर कोई हैरान परेशान था।तभी दिवान सालिम सिंह की वहशी नजर अचानक गांव की एक सुंदर लड़की पर पड़ गई।जिसे देखकर वो सब कुछ भूल गया और इतना उतावला हो गया कि 50 साल का सालिम उस लड़की को किसी भी हालत में हासिल करना चाहता था।लेकिन कहते है कि लड़की की इज्जत वो चीज है,जो ना तो खरीदी जाती है और ना ही तय की जाती है।उसके लिए तो उसका इमान धर्म सब कुछ उसकी इज्जत ही है,उसकी अस्मत ही है।

कहते है कि मिसालें तो  बहुत मिलती है,पर कुछ मिसालें याद की जाती है। ये मिसाल भी सिर्फ एक शख्स की नहीं,एक घर की नहीं,और एक गांव की भी नही,बल्की पूरे 84 गावों के हजारों लोगों की मिसाल है।सालिम सिंह ने उस ब्राह्मणो के गांव पर अपना दबाव बनाना शुरू कर दिया और लड़की के घर संदेशा भिजवा दिया की अगली पूर्णमासी तक या तो लड़की  को उसके हवाले कर दें नही तो वो सुबह होते ही गांव पर धावा बोल कर लड़की को जबरन उठा ले जाएगा। गांव वालों ने दिये गए समय पर कम और धमकी पर ज्यादा ध्यान दिया।84 गांवों के ब्राह्मणो ने मिलकर गांव में ही मंदिर के पास एक बैठक की क्योंकि एक जवान बेटी को एक अधेड़ उम्र के दिवान को सौपना गांव वालों की गैरत के खिलाफ था। इसलिए गांव वालों ने पंचायत में फैसला किया कि वो अपनी जवान बेटी को एक दिवान को नही देगें।उसके बदले वो पूरे गांव राजस्थान की विरासत से कहीं दूर चले जायेंगे।वो काली रात धिरे-धिरे और गहरी होती गई,और सुरज की किरणें जिस गांव को कभी रौशन किया करती थी,वो सुबह तो हुई लेकिन 84 गांवों ने जो फैसला किया, वो हमेशा के लिए एक मिसाल बन गई।एक ही रात में पूरा गांव खाली हो गया।जुल्मों सितम के खिलाफ ना झुकने की जिद के साथ ही ये एक ऐसी दास्तां थी। जिसमें एक संतान ही नही बल्की एक गांव की इज्जत भी कलंकित होती।इससे पहले कि उनकी इज्जत कंलकित होती।

गांव वालों ने रातों-रात 84 गांव खाली कर दिये और जाते-जाते गांववालो ने एक एसा श्राप  भी दिया कि दोबारा इस गांव में कोई नही बस पायेगा।गांव वाले तो लौटकर कभी नही आये। कई लोगों ने इस गांव को बसाने की कोशिश भी की। लेकिन वो कोशिश नाकाम रही।जो भी उन घरो मे रहने की कोशिश करता या तो वो बर्बाद हो जाता। या तो ऐसी मुसीबत आती कि उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ता।बसा बसाया ये गांव उजड़ने के बाद आबाद तो नही हुआ,पर सरकार की एक कोशिश जरूर पूरी हो गई।सरकार ने तमाम गांवों की घेराबंदी कर  मुख्य दरवाजे पर एक चौकीदार को बैठा दिया। उजड़ने के बाद भी यह गांव पर्यटकों की जेब से पैसे निकालकर सरकार की झोली जरूर भर रहा है।उजड़ने के बाद भी यह पत्थर बिखरा तो है लेकिन टूटा अब भी नही है।घर की बहू बेटी की इज्ज़त की खातिर इन पत्थर के घरो मे रहने वालों ने जो बलिदान दिया वो कोई दूसरा नही दे सकता।

 दोस्तों कहते हैं कि सूरज की तपिश कम होते ही शाम अपना आंचल फैलाकर जैसे ही इस हवेली को अपने आगोश में लेती थी तो सारा गांव दहशत में डूब जाता था।हर कोई अपने आप को किसी तरह इस हवेली से कहीं दूर,बहुत दूर ले जाना चाहता था।ताकि कलेजा चीर देने वाली चीखें उसके कानों में न टकराये। बस यूं समझ लिजिए की, अंधेरा होते ही ये हवेली बाकी दुनिया से कट सी जाती थी।क्योंकि ऐसी शायद ही कोई शाम रही होगी,जब जबरन कोई डोली इस हवेली के दरवाजे पर न रूकी हो।कहते हैं शाम को एक डोली इस हवेली के दरवाजे पर जरूर-जरूर रूकती थी।जिसमें सवार होती थी एक मासूम दुल्हन जो रोजाना सालिम सिंह की ऐशगाह में पेश की जाती थी।उसके बाद बाहार की दुनिया क्या होती है।वो लड़की ये जान ही नही पाती थी।जी हां बाहर की दुनिया में दर्द की सिद्दत में डूबी मौत की एक चीख इस हवेली से जरूर उठती थी। 

जैसलमेर से करीब 15 किमी रेत के इस संमुदर के बीच सर उठाए खड़ी इस हवेली के बाहर आने वाली खौफ़नाक चीख तो खत्म नही हुई पर आईये आपको उस शख्स के बारे में बता ही देते है,जिसके नाम से ही वहां के लोगों की आज भी चीख निकल जाती है।वो है वही दिवान सालम सिंह जिसके बारे में हम आपको पहले से ही रूबरू कराते आ रहे है।इस हवेली का मालिक।जिसे लोग नाम से सालिम नही जालिम कहते थे।दिवान सालिम सिंह की इस हवेली में कितनी जवान लड़कियों की चीख दफ़न है।कहना नामुमकिन है।गिनती लगाने वाले गिन-गिन कर थक गए,लेकिन फिर भी ये पता ना लगा पाये।बस यूं समझ लिजिए कि ये हवेली उन हजारों लड़कियों की कब्रगाह है। जिन्हे डोली में बैठाकर यहां लाया जाता था।उन लड़कियों को यहां दिल बहला देने वाले खिलौने की तरह से इस्तेमाल किया जाता था, और जब दिल भर जाता था,तब उनकी चीख एक आखिरी चीख में तब्दील हो जाती थी।कहते है इस विरान हवेली में वो दर्द भरी चीख आखिरी आवाज होती थी।जैसलमेर के नजदीक ये खूबसूरत बेजान हवेली नफरत है ऐसी दिल दहला देने वाली उस आखिरी चीख  की जो हर रोज इस हवेली में खामोश बनकर दफ़न है।

जैसलमेर से करीब अठारह किलोमीटर की दूरी पर बसा ये है कुलधरा गांव।जो कभी पालीवाल ब्रहमणों का गांव हुआ करता था।मेहनती और रईस पालीवाल ब्राम्हणों के कुलधरा गांव को कहते हैं सन 1291 में बसाया गया था।तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव का नाम पालीवाल का नाम इसलिए पड़ा कि इस गांव में रहने वाले ब्राम्हण राजस्थान के पाली इलाक़े के रहने वाले थे।इन ब्राह्मणों ने पालीवाल ब्राम्हण होते हुए भी अपनी बुद्धि, कौशल और अटूट परिश्रम के रहते धरती पर सोना उगाया था।हैरत की बात ये है कि पाली से कुलधरा आने के बाद पालीवालों ने रेगिस्तानी सरज़मीं के बीचोंबीच इस गांव को बसाते हुए खेती पर केंद्रित समाज की कल्पना की थी। रेगिस्तान में खेती पालीवालों के समृद्धि का रहस्य थी।परत वाली ज़मीन को पहचानना और वहां पर बस जाना।पालीवाल अपनी वैज्ञानिक सोच, प्रयोगों और आधुनिकता की वजह से उस समय में भी इतनी तरक्की कर पाए थे।

पालीवाल समुदाय हमेशा खेती और मवेशी पालने पर निर्भर रहता था और बड़ी शान से जीता था। और इनकी सबसे दिलचस्प बात ये होती थी कि रेगिस्तान में पालीवालों ने इस सतह पर बहने वाली नदी या ज़मीन पर मौजूद पानी का सहारा नहीं लिया बल्कि रेत में मौजूद पानी का इस्तेमाल किया।कहते हैं पालीवाल अपने गांव ऐसी जगह पर बसाते थे,जहां धरती के भीतर जिप्सम की परत हो।इसी से पालीवाल खेती करते,और उससे जबर्दस्त फसल पैदा करते।पालीवालों ने ऐसी तकनीक विकसित की थी कि बारिश का पानी रेत में गुम नहीं होता था,बल्कि एक खास गहराई पर जमा हो जाता था।कहते हैं कि जैसलमेर के दिवान सालिम सिंह को कुलधरा की ये खासियत बर्दाश्त नहीं हुई और उसने कुलधरा के बाशिंदों पर भारी टैक्स लगा दिये और उन पर रोजाना इतने अत्याचार करने शुरू कर दिए कि वो एक दिन राजस्थान की सरज़मीं को छोड़कर अपनी विरासत से इतनी दूर चले गये कि वो फिर कभी लौटकर नही आये।और एक आबाद गांव बर्बादी के काल के गाल में समां गया....।।।


मित्रों ये थी कुलधरा की दास्तां,जहां एक मनहूस नज़र ने हंसते खेलते चमन को बिरान कर दिया।ये कहानी उतनी ही सच है जितनी मैने कुलधरा जाकर इकट्ठी की है,आपको यकिन ना आए तो कुलधरा जरुर जाएं,आपका एक टूर भी हो जाएगा और ज्ञानवर्धन भी। 

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