संदीप कुमार मिश्र: कोई लौटा दे मेरा बचपन,मेरी जवानी,मेरी वो गलियां जहां की
पगड़ंडीयो पर चलकर जवानी की दहलिज पर रखा मैने कदम।काश..हमें भी एक बार नसीब हो
जाता मेरा गांव,मेरा घर।काश..वो दर्द की विरासत चैन से सोने देती,वो मासूमो का
कत्लेआम,वो दर दर की ठोकरें,खाने के लाले,जान के लाले।काश मिल जाता उन डरावनी
यादों से छुटकार और लौट जाते हम भी अपने घर को। कोई सुनेगा हमारी भी!या यूं ही हुक्मरान बदलते
रहेंगे,हर पांच साल बाद वादे और इरादों की बातें होती रहेंगी,हम हमारे अपने यूं
ही,अपने ही देश में मुफलिसी के शिकार होते रहेंगे।काश भाव,राग और ताल के इस देश
भारत में हमारी भी पहचान कोई कर सकता,हमारे भी दर्द को कोई अपना समझता,हमारे अरमान
और ख्वाबों को भी कोई पंख लगाता...काश! काश!काश!
दरअसल दोस्तों ये दर्द है उन विस्थापित कश्मीरी पंडितों का जिन्हे 25 साल पहले
घर से बेघर होना पड़ा था।तमाम सरकारी योजनाएं भी 25 सालों के लंबे अंतराल के बाद भी आजाद भारत के माथे पर से
विस्थापन का दाग नहीं मिटा सके।सवाल उठता है कि आखिर कौन सी वो मजबूरी थी,कहां
गलती हो गई की सरकारें बदलती रही,एक के बाद एक नए चेहरे उम्मीद जगाते रहे।सब कुछ
होने के वाद भी आंखों में उम्मीद के सपने लिए उन कश्मीरी पंडितों की घर वापसी
नहीं हो सकी ? आखिर क्यूं ?
मित्रों विस्थापन कोई बड़ी बात नहीं है,हम अपनी जरुरतों के लिहाज से,एक बेहतर
भविष्य के लिए एक जगह से हुसरे जगह आते जाते हैं।पहले गांव,फिर शहर,महानगर और फिर
राजधानी होते जहां हमें आर्थिक उन्नती का रास्ता नजर आता है।लेकिन देश की राजधानी दिल्ली
और देश के अन्य हिस्सों में फैले कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को आप क्या कहेंगे
जो अपने ही मुल्क में प्रवासी या शरणार्थी बन कर जी रहे हैं।हम उन्हें क्या पहचान
दे रहे हैं।घाटी पिछले 68 सालों से आम चुनाव का मुख्य मुद्दा रही है,बहस ङी होती
है,आरोप-प्रत्यारोप भी खुब लगाए जाते रहे हैं,विकास के बड़े बड़े बादे भी किए जाते
रहे हैं लेकिन बेहद अफसोस और शर्मनाक की कश्मीरी पंडितों सुध लेने वाला कोई
नहीं,वो जैसे तब थे आज भी वैसे ही दर-दर भटकने को मजबूर हैं।
आपको जानकर बड़ी
हैरानी होगी कि नब्बे के दशक में जब कश्मीर आतंकवाद की दंश झेल रहा था,तब सबसे
बड़ी कुर्बानी कश्मीरी पंडितों को देनी पड़ी थी।तकरीबन 4 लाख लोग अपने कलेजे पर
पत्थर रखकर घरबार छोड़कर भाग गए।जिसके बाद चुनाव दर चुनाव घोषणाएं,वादे,योजनाएं
बनती गई,राहत पैकेज भी दिए गए बावजूद इसके कोई छोस परिणाम सामने नहीं आए और 25
सालों का लगा काला दाग सरकार के माथे पर से नहीं मिट पाया।2014 के आम चुनाव में
बीजेपी ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की।नरेंद्र मोदी के हाथ में सत्ता आयी,जिनके मन में
कहीं ना कहीं कश्मीरी पंडितों को लेकर दर्द भी झलका,लेकिन हालात जस के तस हैं।अब
तक एक ही परिवार अपने घर वापस लौटा।आज भी उनके मन में वही डर और खौफ भरा हुआ है।
आंकड़ों की बात करें तो सुप्रीम कोर्ट को खुद जम्मू-कश्मीर की सरकान ने कहा है
कि यूपीए के शासन काल में 1600 करोड़ का पैकेज कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए
मंजूर किया गया था,सरकारी महकमों में 3000 पद भी दिए गए थे।इसके लिए तकरीबन 6000
से ज्यादा आवेदन भी प्राप्त हुए।एक अलग नई सोसाईटी बनाने की भी बात हुई।लेकिन हुआ
वही ढाक के तीन पात।निष्कर्ष के नाम पर मात्र एक परिवार ही घाटी लौटा। कश्मीरी
पंडितों ने अपने हक के लिए एक संघर्ष समिति भी बनाई।जिसके अनुसार सन 1989 में
कश्मीरी पंडितों की संख्या घाटी में लगभग तीन लाख पचहत्तर हज़ार थी।लेकिन अलगाववादी
हमलों के चलते 1992 में यह संख्या घटकर मात्र बत्तीस हज़ार ही रह गई।2008-09 में
हुए सर्वे के अनुसार 2764 पंडित ही घाटी में फिलहाल रह गए थे। कश्मीरी पंडितों का कहना है कि आम चुनाव में हमारे शामिल होने
से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है।ख़ासकर संसदीय चुनावों में।इससे ऐसा भी नहीं होगा कि
लोकसभा में कश्मीरी पंडितों की कोई आवाज़ आएगी। बड़ा अफसोस होता है साब कि कश्मीरी
पंडितों को उनकी ही ज़मीन, उनके ही घर से डरा-धमका
कर भगा दिया जाता है, उन्हें एक लोकतांत्रिक
देश में धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया जाता है, उनकी संपत्ति को हड़प ली जाती है, हत्याएं कर दी जाती है ,और
उन्हें घर छोड़ने को मजबूर कर दिया जाता है।
एक नजर इन आंकड़ों पर भी गौर कर ले-
1-कश्मीरी पंडित कश्मीर के इलाके के एकमात्र मूल हिंदू निवासी हैं। 2-वर्ष
1947 तक कश्मीर के अंदर कश्मीरी पंडितों की आबादी करीब 15% थी।3-ये आबादी
दंगों और अत्याचार की वजह से वर्ष 1981 तक घटकर 5% रह गई।4-वर्ष 1985 के
बाद से कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म और अत्याचार बड़े पैमाने पर हुआ।5-कश्मीर
पंडितों को कट्टरपंथियों और आतंकवादियों से।6-19 जनवरी 1990 को
कट्टरपंथियों ने ऐलान कर दिया कि कश्मीरी पंडित काफिर हैं।7-कहा गया कि वे
कश्मीर छोड़ दें या फिर इस्लाम कबूलें, वरना जान से मार देंगे।8-फरवरी और मार्च 1990 के दो
महीने में करीब 1.60 लाख कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ना पड़ा।9-करीब 4
लाख कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से भागने के लिए मजबूर किया गया।10-कश्मीरी
पंडितों की 95 फीसदी आबादी को अत्याचारों के ज़रिए उस कश्मीर से भगा दिया गया, जहां के वो मूल निवासी
हैं।11-1947 में देश के बंटवारे के बाद हुआ सबसे बड़ा पलायन था जिस पर किसी
बुद्धिजीवी ने एक आंसू नहीं बहाया।12-कश्मीर में 808 परिवारों के सिर्फ़ 3
हज़ार 445 कश्मीरी पंडित ही बचे हैं।
काश हम सोच पाते,महसुस कर पाते,दर्द की उस काली मनहुस रात को जब अपना घर,मोहल्ला,खेत-
खलिहान,पुरखों की यादें सबकुछ छोड़कर भागना पड़ा कश्मीरी पंडितों को।सन 1990 से
लेकर 2015 तक,देश के ना जाने किसना सवेरा देखा,विस्थापितों की एक पूरी पीढ़ी भी
अपने जीवन के 25 बसंत देख चुकी है,बावजूद इसके घर वापसी की हिम्मत नही जूटा पा रहे
हैं लोग। सरकारें कोशिश कर रही हैं लेकिन क्या योजनाएं भर बना देने से ये संभव हो
पाएगा।जरुरत है दो समाजों में फैली उस नफरत की आग को बुझाने की,प्रेम और शांती के
संदेश को जन जन तक पहुंचाने की।और उन लोगों पर निर्ममता से कार्यवाही करने की जो
कश्मीरी पंडितों के गुनहगार है,साथ ही सुरक्षा की भरपूर जिम्मेदारी लेने की।जिससे
कश्मीरी पंडित एक बार फिर अपने घर लौट सकें,जिससे की देश की एकता और अखंडता बरकरार
रह सके।
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