Tuesday, 3 November 2015

बिहार चुनाव अंतिम पड़ाव की ओर


संदीप कुमार मिश्र: अपनी-अपनी जीत के दावे,और अपना-अपना राग।बिहार चुनाव अपने अंतिम दौर की ओर बढ़ चला है।चार चरणों के मतदान हो चुके हैं,अंतिम और पांचवां दौर बाकी है।नरपिशाच,नरभक्षी,बीफ,तांत्रिकों और भी ना जाने क्या-क्या का दौर खत्म हो चुका है।5 नबम्बर को पांचवां दौर और 8 नवम्बर को गिनती।यानि धनतेरस पर सत्ता का ऐलान और दीवाली पर शपथ ग्रहण...कुछ कुछ ऐसा ही।साब पाकिस्तान का तो पता नहीं लेकिन बिहार दो दीवाली जरुर मनाएगा।अरे भाईयों महागठबंधन ने तो सपथ ग्रहण की तैयारीयां भी पहले ,दुसरे चरण के बाद ही शुरु कर दी थी।अतिउत्साह से लवरेज महागठबंधन के सभी नायक, महानायक नया नया कुर्ता पाजामा भी कसाने के लिए आर्डर दे दिये हैं।क्योंकि राजनीतिक पंडित भी वोटरों का क्रियाबांट नहीं होने की बात कह रहे है,अब ये राजनीतिक पंडित कौन हैं,ये जानने के लिए गुगलिया लिजिएगा,हम तो आगे बढ़ते हैं.।क्या सच में बिहार में बीजेपी का विकास रथ रुक रहा है...?बड़ा सवाल तो है ही...क्यों ?

दरअसल मित्रों सियासत में जाति फैक्टर सबसे बड़ा मायने रखता है,खासकर यूपी,बिहार में।मतलब इससे नहीं है कि सही कौन है,गलत कौन है...मतलब तो सिर्फ इससे है कि मेरी जाती का कौन है...अब जहां ये परम्परा चलेगी वहां सत्ता पर कैसे लोग काबीज होंगे इसकी कल्पना आप कर सकते हैं.।लेकिन एक बड़ा बदलाव जो देखने में आ रहा है वो ये कि यूवा मतदाताओं की ना ही कोई जाती है ना ही कोई धर्म।उसका तो इमान और धर्म सब कुछ विकास ही है,उन्नती है,खुशहाल विकास का सपना ही है।और इसके लिए अगर हम कहें कि ये अलख 2014 के आम चुनाव के बाद आयी है तो गलत नहीं होगा।साथ ही इसका श्रेय देश के प्रधानमंत्री को दिया जाए तो गलत नहीं होगा।क्योंकि विकास का एक रोल माडल जो उन्होने जनता को दिखाया उससे कहीं ना कहीं यूवा भारत खुब प्रभावित हुआ।खैर अभी ये भविष्य की बात है कि अच्छे दिन कब आएंगे और कैसे आएंगे या आएंगे भी या नहीं...लेकिन 60 साल बनाम 60 महिने की तुलना तो फिलहाल सरासर गलत है ना...और वो भी तब जब केंद्र की सरकार बने अभी दो साल भी नहीं हुए...।

खैर बात हो रही थी बिहार की...तो दोस्तों मेरे एक मित्र है विनीत कुमार जो बिहार से हैं..और गलती से पत्रकार रहे हैं...अब पत्रकार नही है,अपना ही काम करते है,लेकिन सियासी समीकरण और विश्लेषण में पूरी दिलचस्पी है।उनका स्पस्ट कहना है कि हिन्दू,मुस्लिम,कुशवाहा,कुर्मी,भूमिहार,यादव,दलित,पिछड़े अगड़े।इनका समीकरण सभी पार्टीयां बनाकर ही टिकट दी हैं।सभी पार्टीयों की धुरी हैं जातियां।यानि की दोस्तों साफ है कि सुशासन और विकास की बात बेमानी है,सिर्फ इसका ढ़ोल पिटा जा रहा है बिहार चुनाव में,असली उठापटक तो जातियों के गुणा भाग में ही निकल रहा है।

लेकिन एक बात है वोटरों का मिजाज ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार भगवान की कृपा को समझना।बिहार का वोटरों का झुकाव किस ओर है,ये कह पाना किसी के लिए भी बड़ा ही मुश्किल भरा काम है।वोटर इतना समझदार चुके हैं कि खा किसी की रहे हैं और गा किसी की रहे हैं,भई ऐसा करें भी क्यों ना,क्योंकि फिर तो पांच साल बाद ही ये अवसर जो मिलेगा।जो हाथ लग जाए वही तो साथ है।वादों की पोटली का क्या...?वो तो हर पांच साल बाद ही खुलेगी ना।

एक तरफ एनडीए गठबंधन तो दुसरी तरफ महागठबंधन।दोनो के पास अपने अपने सुपर हीरो।एक तरफ लालू तो दूसरी तरफ नमो राग और उनकी आक्रामक चुनावी शैली,जिनकी जुबान का कायल क्या आम जनता जनार्दन,विपक्षी भी हैं,या यूं कहें कि महागठबंधन भी।क्योंकि महागठबंधन को तो इंतजार रहता है कि नमो राग सुनने को मिले फिर कुछ टीका टिप्पड़ी करने को मिले।और नमो हैं कि बोलने का कोई मौका ही नहीं छोड़ते।महागठबंधन के पास सीएम है तो एनडीए के पास पीएम है।एक तरफ सुशासन बाबू हैं तो दूसरी तरफ विकास है।यकिन मानिए भाईयों बड़ा ही दिलचस्प चुनाव है बिहार का।जनता जागरुक भी है तो कुछ विचलित भी।पता नहीं कि क्या होगा।


एक बात जो एनडीए का मूड बिगाड़ सकती है वो ये कि यादव वोटों में टूट कम ही नजर आई। सुशासन बाबू और और लालू के वोट एनडीए मे जाने की बजाए एक-दूसरे को ही ट्रांसफ़र हुए।वहीं कुशवाहा वोट एकमुश्त एनडीए को नहीं मिल रहा है।गाहे बगाहे चुनावी समर में आरक्षण की बात पर आरएसएस प्रमुख के बयान से दलित वोटों और ईबीसी को बुरी तरह से बांट दिया लगता है।साथ ही बिहार भाजपा का अंदरूनी असंतोष और कलह भी बढ़ा है,बिहारी बाबू यानि शत्रु दादा के बोल भी भाजपा के लिए आग में धी का काम कर रहे है।इतना ही नही, बिहारी बनाम बाहरी के मुद्दे ने बीजेपी को अपने होर्डिंग बदलने पर मजबूर किया और उसे स्थानीय नेताओं के फोटो लगाने पड़े।

क्या बीजेपी के प्रबंधन कौशल को महागठबंधन मात दे रहा है..? ये तो आने वाला समय बताएगा,लेकिन एक बात तो तय है कि बिहार में राजनीतिक दीवाली अगर एनडीए मनाता है तो जीत के हीरो सिर्फ और सिर्फ मोदी होंगे...और उनका विकास का पहिया होगा,और अगर दीवाली महागठबंधन खेमें में मनती है तो हार का ठीकरा............।आप खुद ही समझदार हैं।मित्रों तकरिबन ढाई करोड़ युवा मतदाता बिहार चुनाव में अपना ख़ासा उत्साह दिखा रहे हैं। और कहीं ना कहीं ये जाति की दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर चुनाव की हवा को मोड़ने में सक्षम है।

अंतत: भाईयों कहना गलत नही होगा कि जातिवाद हमारे देश के रग-रग में भरा पड़ा है।देश तो आजाद हुआ लेकिन आजादी से लेकर आज तक राजनीति के केंद्र बिन्दु में जातिया ही रही हैं।जिनका उपयोग और दुरुपयोग अपने मतलब के लिए सियासदान करते रहे हैं। हमारे देश में आरक्षण का मतलब था कि समाज के निम्न वर्ग को मुख्य धारा से जोड़ा जाए और विकास की बात की जाए।लेकिन अब हालात क्या है आरक्षण का आप जानते है।जातियां आरक्षण के नाम पर वोट बैंक बन गई हैं।किसी को आरक्षण का झुनझुना थमाया गया तो कहीं भय दिखाकर उसे वोट में तब्दील किया गया।इतना ही नहीं कहीं कहीं तो सुरक्षित रहने की भावना के डर से लोग एक हो गए।जातिगत राजनीति और आरक्षण की बानगी आप खाप पंचायतों में भी देख सकते हैं,वहां तो वर्चस्व की लड़ाई के रुप में जातिवाद उभरकर सामने आया।जातिगत राजनीति को तब और बल मिला जब मंडल कमीशन लागू हुआ,उसके बाद तो यूपी,बिहार में नेता पार्टीयां योग्यता के आधार पर नही,जातीगत आधार पर चुनने लगी।एक सिंबल के रुप में दलितों के नेता के तौर पर काशींराम को जाना जाने लगा तो यादवों के नेता मुलायम सिंह यादव हो गए।आप देखेंगे तो देशभर में तमाम ऐसे बड़े सियासी चेहरे आपको नजर आ जाएगे जो अगड़ी,पिछड़ी,दलित और भी ना जाने किस किस जाति का प्रतिनिधित्व करते हैं और आरक्षण की मांग करते हैं।मतलब साफ है कि कहीं ना कही पूरा देश जातिगत राजनीति के दलदल में धंसता जा रहा है।ऐसे में मंडल,कमंडल की धरती पर जातिगत राजनीति ना हो ऐसा कैसे संभव हो सकता है।

बड़ा सवाल उठता है कि क्या बदलाव की ओर बढ़ रहा है बिहार ? क्योंकि पिछले चार चरणों में क्रमश: मतदाताओं का रुझान भी बैलेट की तरफ बढ़ा है,लोग घरों से बाहर निकलकर बूथ तक अपने मताधिकार का प्रयोग करने पहुंच रहे हैं।और अगर मैं ठीक हुं तो शायद ये पहली बार होगा कि बिहार में चुनाव शांतिपूर्ण संपन्न होगा,खैर अभी पांचवां दौर बाकी है,कहना जल्दबाजी होगी,लेकिन फिर भी अब जो नजर आया उसके आधार पर कहा जा सकता है।खैर अब भारत डिजिटल हो रहा है,दुनिया की बड़ी नजरे हमारें देश के यूवाओं की ओर उत्सुकता से देख रही हैं,शायद इस बदलते परिवेश में जाति,धर्म के भंवरजाल से हम आगे निकलें या यूं कहें कि निकलना ही होगा।तभी अच्छे दिन का भारत हम देख पाएंगे और तभी एक भारत,श्रेष्ठ भारत का सपना पूरा हो पाएगा।अब इस दिशा में हम कितना आगे बढ़ पाए हैं ?..................आप सोचिए,हम भी सोचते हैं।।।


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