संदीप कुमार मिश्र: बिहार में चुनाव की तूफानी रैली और रेला खत्म करने करने के बाद पीएम नरेंद्र
मोदी जी की सात नवंबर को होने वाली जम्मू-कश्मीर यात्रा प्रारंभ होने से पहले
जम्मू में सुरक्षा व्यवस्था कड़ी कर दी गई।साथ ही पडोसी पाक से सटी अंतरराष्ट्रीय
सीमा पर भी चौकसी बढ़ा दी गई है।इसके अलावा हुर्रियत कांफ्रेंस के अलगाववादी धड़े
के नेता मीरवाइज उमर फारूक को भी घर में नजरबंद कर दिया गया और कई अन्य लोगों को
एहतियातन हिरासत में लिया गया, ताकि शनिवार को होने वाली प्रधानमंत्री
की यात्रा के दौरान समानांतर रैली निकालने की इनकी योजना विफल की जा सके।मतलब
सुरक्षा की चाकचौबंद व्यवस्था।दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कई कार्यक्रम
जम्मू कश्मीर में होने हैं,और कई योजनाओं का उद्घाटन कार्यक्रम भी है।
ऐसे में कश्मीरी पंडितों की उम्मीदें भी
अपने पीएम से बढ़ गयी हैं।दरअसल 2014 के आम चुनाव के बाद जब बीजेपी ने ऐतिहासिक
जीत दर्ज की तो कश्मीरी पंडितो की आस बढ़ गयी थी कि उन्हें मुख्य धारा में लाने के
लिए हर संभव पहल की जाएगी,उन्हें उनका आशियाना फिर मिल पाएगा,और वो अपनी ही
जन्मभूमि में अल्पसंख्यक नहीं कहलाएंगे।दरअसल ये आस इसलिए बढ़ गई कि नरेंद्र मोदी
जी ने लोकसभा चुनाव के पहले कश्मीरी पंडितों को न्याय दिलाने का हर संभव आश्वासन
दिया था।ऐसा इसलिए भी कि उम्मीद और आस उसी से होती है,जिन्हें दर्द का एहसास हो।
जिस जमीन से आत्मा जुड़ी हो,जिस जगह से
पूर्वजों की यादें जुड़ी हों जहां बीता हो बचपन,उस आंगन को छोड़ना आसान होता है
क्या..? दरअसल ये बाते इसलिए
कहनी पड़ रही है क्योंकि 1990 से लेकर आज तक,ढ़ाई दशक गुजर गए,लेकिन न्याय के नाम
पर मिला तो सिर्फ आश्वासन,सिर्फ आश्वासन...।इस आश्वासन को अमली जामा ना तो अबतक की
केंद्र सरकारों ने पहनाया और ना ही राज्य सरकारों ने। साहब तकलीफ तो होती है ना
जिन परिवारों को उन्हीं के घर से बेदखल कर दिया जाए,तकरीबन सात सौ से ज्यादा
पंडितों की हत्या कर दी जाए।वो भी तो किसी के लाल ही रहे होंगे,इस त्याग और बलिदान
के बाद भी उन्हें उनकी जमीन नही मिली,उनका आशियाना उजाड़ दिया गया,वो अपने ही देश
में अपने ही राज्य में शरणार्थी की तरह रह रहे हैं।बहुत तकलीफ होती है साब।जरा
कल्पना कर के उस दर्द को महसूस करीए ना।
मोदी साब के कोट की पिछले दिनो विपक्ष
बड़ी चर्चा करता है(जिसपर उनका नाम लिखा था)लेकिन 1990 के कश्मीर दंगे में मारे गए
उस युवक का जिक्र कोई क्यों नही करता जिसका कोट दर्जी की दुकान पर ही रह गया,उस
कोट को पहनने से पहले ही उस युवक को कट्टरवादियों ने खुदा के दर पर ही गोलियों से
छलनी कर दिया।
(नवीन सप्रू जो 1990 में 37 साल के थे। वो एक कश्मीरी पंडित थे।फरवरी 1990 में वो श्रीनगर में
एक दर्जी की दुकान से अपना कोट लेने जा रहे थे, जब एक मस्जिद के बाहर इस्लामिक कट्टरवादियों
की भीड़ ने उन्हें घेर लिया। उन्हें बुरी तरह से पीटा गया और एक कट्टरवादी ने आगे
बढ़कर उनके हाथ में गोली मारी। "बस, मैं मर गया', नवीन ने उससे कहा। उसके बाद उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया। नवीन का कोट
दर्जी के पास ही पड़ा रह गया।)
उम्मीद की आस इसलिए है कि मेरे एक
कश्मीरी मित्र विनोद पंडित (उपर) का कहना है कि हमारे पीएम नरेन्द्र मोदी की नई
नवेली सरकार ने कश्मीरी पंडितों को पूरी निष्ठा और गरिमा से, सुरक्षा के साथ सुनिश्चित रुप से जीविका’ के साथ घाटी में वापस भेजने का मजबूत
इरादा दिखाया है।और अपने बेहतरीन कार्यकाल के दौरान मोदी सरकार इस मुद्दे पर विशेष
रूप से ध्यान देगी।दरअसल मित्रों आपको थोड़ा अतीत में ले जाना चाहुंगा (मई 2014,नई
सरकार)।जब राष्ट्रपति प्रणब दा ने संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक को संबोधित
किया,और इस संबोधन में शायद पहली बार कश्मीरी पंडितों के मुद्दे का जिक्र आया ।जिसका
समस्त कश्मीरी पंडितो के संगठन ने स्वागत किया। विनोद पंडित के द्वारा कई वर्षों
से(apmcc)लाखों कश्मीरी
पंडितों के हितों के लिए संघर्ष किया जा रहा है। राष्ट्रपति प्रणव दा ने मोदी
सरकार के अगले पांच साल का एजेंडा पेश करते हुए कहा,कि ‘‘यह सुनिश्चित करने के लिए विशेष
प्रयास किये जाएंगे कि कश्मीरी पंडित अपने पूर्वजों की भूमि पर पूर्ण गरिमा, सुरक्षा और सुनिश्चित जीविका के साथ लौटें।’’इतना ही नहीं भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कश्मीरी विस्थापितों की
वापसी और पुनर्वास का बाकायदा जिक्र किया था।
मित्रों अफसोस इसलिए होता है कि हम
अलगाववादियों को मुख्य धारा में लाने की बात तो करते हैं उन्हें जोड़ने की बात भी
करते हैं,लेकिन जो हमारे अपने हैं जिन्होने मात्र इसलिए दर्द सहा क्योंकि वो
हिन्दू हैं और कश्मीर में रहते है। अलगाववादी खाते हमारी और गाते पाकिस्तान की है
तो उन्हें मुख्यधारा मे लाने की बात कही जाती है,लेकिन जो मुख्यधारा में है,हमारे
अपने हैं,वो मुफलिसी का शिकार हैं,शरणार्थी शिविरों में रहते हैं। ये कैसा न्याय
है और कहां तक उचित है।मैं कब कहता हुं कि
अलगाववादियों को मुख्य धारा में मत लाईए लेकिन जो अपने हैं उनके अरमानो और
उम्मीदों पर तो पानी मत फेरीए,जो अब तक होता आया है।
बड़ी अजीब बात है जी, की कश्मीरी
पंडितों से उत्पीड़न की भावना से उपर उठकर सोचने की बात कही जाती है,लेकिन उन्हें
उनका हक नहीं दिया जाता,वापस कश्मीर लौटने की बात तो की जाती है,लेकिन सुरक्षा की
गारंटी नहीं दी जाती, उनके घर,जमीन नहीं दिये जाते।ऐसे में हम चाहते हैं कि सब ठीक हो जाए,कोई बता
दे कैसे होगा साब,कश्मीर के बड़े-बड़े कांग्रेसी नेता केंद्र की सरकार में
भागीदारी कर चुके हैं,लेकिन तब कश्मीरी पंडितों को लेकर उनकी आवाज बुलंद नही हुई
लेकिन आज वो सभी शरीफ और इमानदार सहिष्णुता की बात करते हैं। वाह, साहब! 1990 में तकरीबन चार लाख कश्मीरी पंडितों को जब अपना प्यारा वतन छोड़ना पड़ा,तब आपकी सत्ता,आपका
साम्राज्य था।आपने क्यों नहीं सोचा..? सात सौ से
ज्यादा पंडितों की हत्या कर दी गई।और उन खून से सने हाथों के खिलाफ किसी भी प्रकार
की कार्यवाही नही की गई।एक रपट तक नहीं लिखा गया।तक आपका शांति मार्च और सहिष्णुता
का राग कहां था।
हम कैसे सोच सकते हैं कि जिन्होने अपनो
को खोया,जिनकी जमीन छीन गई हो,जिनके घरों पर कब्जा कर लिया गया हो,जिनके पूजा-स्थल
नष्ट कर दिए गए हों,जिनकी आंखों ने दरिंदगी का वो मंजर,बरबादी की वो मनहुस काली
रात अपनी आंखों से देखी हो.उनसे क्या ये उम्मीद करना ठीक होगा की वो शांति से काम
लें।नहीं साब भूख और दर्द क्या होता है इसका तकाजा वो कतई नहीं लगा सकते जिनका
अपना सब कुछ हो,ये तो बही बखूबी जान पाएगा जो उन कंटीलों भरे रास्ते पर चला हो।और
शायद यही वजह है कि नमो से कश्मीरी पंडितों की उम्मीदें ज्यादा हैं।
कश्मीरी पण्डितों के दर्द को व्यक्त करती एक कविता…
मेरी बेटी की ओढ़नी
तार-तार की गई-
सब खामोश रहे।
मुझे विवश किया गया
अपना घर-द्वार छोड़कर
संस्थापित से विस्थापित बनने के लिये
कोई कुछ नहीं बोला।
मैं अपने परिवार के साथ
न्याय की गुहार लगाते हुए
वर्षों से दिल्ली के फुटपाथ पर हूँ
किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।
कोई भी मानवाधिकारवादी
कोई भी टीवी चैनल
कोई भी राजनीतिक ध्वजाधारी
मेरे विषय में चर्चा नहीं करता,
मेरा आर्त्तनाद नहीं बनता
किसी भी प्रगतिवादी
साहित्यकार की
कथा का विषय।
मेरी त्रासभरी आँखें नहीं बनतीं
किसी भी जनवादी पत्रिका का मुख-पृष्ठ
मैं अपने प्रान्त से बहिष्कृत
अपने परिवेश से तिरस्कृत
अपने अवांछित अस्तित्व के लिये
हर कदम पे दण्डित हूँ
क्योंकि मैं
एक कश्मीरी पण्डित हूँ।
शायद यह मेरे पूर्व जन्म के पापों का
फलस्वरूप परिताप है
क्योंकि कश्मीर में हिन्दू होना
आज एक विडम्बना है, अभिशाप है!
(पाञ्चजन्य, नई दिल्ली 4 जुलाई 2009 अंक में प्रकाशित श्री शिव ओम अम्बर की कविता)
काश इस कविता को सियासतें झुठला
देतीं...और कश्मीर में हिन्दू होना अभिशाप ना हो.....काश
खैर आशा और उम्मीद से लवरेज विनोद पंडित
कहते हैं कि वो अपने हक की लड़ाई जारी रखेंगे और ये संघर्ष वो आज से नहीं कर रहे
हैं,जब नरेंद्र मोदी जी गुजरात के सीएम थे,तब भी वो गुजरात जाकर मोदी जी से मुलाकात
कियो थे और उन्होने आश्वासन दिया था।विनोद जी का मानना है कि मोदी विकास पुरुष
है,उनके शासन में न्याय जरुर मिलेगा,एक बार फिर वो अपने वतन में अपनो के साथ चैन
और शुकून से रह सकेंगे।
बहरहाल अब देखने वाली बात होगी कि जो
विश्वास प्रधानमंत्री जी ने कश्मीरी पंडितो के मन में जगाई है उसे हकिकत का अमली
जामा कब तक पहनाया जाता है,यकिन मानिए अगर ऐसा होता है कश्मीरी पंड़ित मुख्यधारा
में आते हैं तो ये मोदी सरकार की एक महान उपलब्धी होगी।।देखते हैं 7 तारीख को होने
वाले इस दौरे से कश्मीरी पंडितों को क्या मिलता है....।
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