Wednesday 17 April 2019

सियासत, समीकरण और सम्मान



संदीप कुमार मिश्र- लोकतंत्र में चुनाव किसी उत्सव से कम नहीं होता है। सम्मानित जनतंत्र अपना प्रधान सेवक अपने मत के द्वारा चुनती है जिससे कि लोकतंत्र मजबूत हो,उसका और देश का सम्मान बना रहे। 
लेकिन सियासत में पार्टीयां समीकरण के आधार पर चुनाव लड़ती हैं मसलन किस लोकसभा / विधान सभा में किस बिरादरी का कितना प्रतिशत प्रभाव है,किसे प्रत्याशी बनाने से फलां वर्ग का वोट मिलेगा,किसका कितना रसूख है. .जैसे तमाम बातों पर गौर करके... !
सियासत का ये समीकरण जीत के लिहाज से ठीक भी है क्योंकि हारने के लिए कोई लड़ता तो है नहीं..जनता जनार्दन भी अपने हिसाब से बढ़चढ़ कर वोट की चोट करती है।खासकर जातीय बाहुल्यता के आधार पर(आज के राजनीति के हिसाब से तो 100% कह ही सकते हैं) हिन्दीभाषी राज्यों में विशेषकर...
मुद्दे चाहे कैसे भी हों मसलन, -रोज़गार,शिक्षा,स्वास्थ्य, सड़क,बिजली,पानी,राष्ट्र,सुरक्षा...कुछ भी हो, ये सब कुछ उस वक्त लुप्तप्राय हो जाते हैं जब बात जातिवाद और समीकरण की हो जाती है। 
ऐसे में आंकड़ों के इस गणित में मानवीयता, सम्मान, भावनाओं की अहमियत खत्म सी प्रतीत होने लगती है...शायद यही वजह है कि स्थानीय के स्थान पर बाहरी प्रत्याशी का चलन अब ज्यादा बढ़ चला है। खासकर प्रत्याशी में थोड़ी चमक दमक हो तो और भी। 
समीकरण बैठाते-बैठाते पार्टियों के मुखिया ये भूल कर बैठते हैं कि जो कार्यकर्ता अपना जीवन सेवा और समर्पित कार्यकर्ता के रुप में बिता चुका है उसके सम्मान को कितनी ठेस पहुंचती होगी..यही भावना जब प्रबल हो जाती है तो हार होते देर नहीं लगती...क्योंकि बात जब सम्मान की हो तो समझौता कम ही हो पाता है...। 
फूट डालकर राज करने की परंपरा आज भी जारी है थोड़ा कम या ज़्यादा हो सकता है लेकिन सियासत में इस परंपरा के पुरोधा आज भी विद्यमान हैं। किसी दल का नाम लेना ठीक नहीं है लेकिन इस देश की सम्मानित जनता सब जानती है कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है.. ! 
21वीं सदी का भारत विश्व में अपनी सशक्त पहचान बनाये, अपना सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन करे इसके लिए  जरुरी है कि बुनियाद मजबूत हो, और वो बुनियाद है सवा सौ करोड़ भारतीयों का सशक्त होना। ये तभी संभव हो पाएगा जब समीकरण से उपर उठाकर हमारे राजनेता विचार करना प्रारंभ करेंगे। 
यकीनन ऐसा संभव है लेकिन तब, जब नेता का सरोकार जनहित से,जनहित के लिए हो...नेता पांच साल में एक बार अपने लोकसभा/ विधानसभा क्षेत्र में सिर्फ वोट मांगने ना जाकर बार-बार जाएं,हर बार जाए..क्योंकि लोकतंत्र तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक उसका जनतंत्र मजबूत ना हो और जनतंत्र तभी मजबूत होगा जब लोकतंत्र के रक्षक(नेता)जन के मध्य रहेंगे,उनकी समस्याओं के समाधान के लिए कार्य करेंगे।ना कि अपने फार्म हाउस बनाने,स्विस बैंक में धन जमा करने,कोठी अटारी और बैंक बैलेंस के लिए काम करें,....
अंतत: लोकतंत्र के इस महाउत्सव में आप सभी भागीदार बने,बढ़ चढ़ कर हिस्सा लें,अपने लिए मजबूत सरकार का चयन करें,ना कि मजबूर सरकार का....एक संविधान,एक प्रधान,एक विधान का चयन करें और हम सब भारतीय हैं.... कह कर स्वयं पर गर्व करें...।
!!भारत माता की जय!!
!!प्रणाम!!
संदीप कुमार मिश्र-

Wednesday 10 April 2019

ये लोकतंत्र किसका है...?चलो वोट करें...!


संदीप कुमार मिश्र- जिस लोकतंत्र में हम जी रहे हैं...उस पर विचार करें तो ये सोचना स्वाभाविक सा है कि हमारा लोकतंत्र लोक-सुख का लोकतंत्र है...या लोक-दुख का...।हम जो स्वतंत्रता भोग रहे हैं...वह नैतिक स्वतंत्रता है...या अराजक...!
लोकतंत्र में कहते हैं कि बैलेट, बुलेट से ज्यादा ताकतवर होता है...लेकिन कई लोकतांत्रिक देशों में बुलेट ही ज्यादा ताकतवर रहा है जैसे हमारे पड़ोसी मुल्क में...
खैर भारत भी उसका अपवाद नहीं रहा है...ये सच है कि लोकतंत्र में मत या मतदाता नहीं...संख्या जीतती है...ये सही है कि लोकतंत्र अपने आदर्श रूप में जनता...और सत्ता के बीच संवाद की स्थापना करता है...लेकिन सही मायने में ये तभी संभव है जब सत्ता में बैठे लोग... लोकतांत्रिक मर्यादा में रहते हुए जनता जनार्दन से बेहतर संवाद स्थापित करें...
अब सवाल ये उठता है कि ...क्या लोकतंत्र जन और सत्ता के बीच संवाद है...स्वभाविक उत्तर होगा हां...क्योंकि संसद और विधानसभाओं में यह संवाद जनता की तरफ से जन-प्रतिनिधि करते हैं...अब प्रश्न है कि...यह संवाद जनता के हित...लाभ या सुख से जुड़ा है...या जनता के कष्ट और दुख से...?
तंत्र कोई भी हो...विडंबना ये है कि सत्ता सर्वप्रथम अपना ही सुख सुरक्षित रखती है...। सत्तासीन लोगों को न गैस का संकट...न उसकी कीमत बढ़ने-घटने का डर...उनके लिए न आधार कार्ड के लिए कतार में खड़े होकर कार्ड बनवाने का संकट...न राशन कार्ड...मतदाता पहचान पत्र, पैन कार्ड, आईडी कार्ड, पासपोर्ट बनवाने  का संकट...लोकतंत्र का लोक...चाहे युवा हो या वरिष्ठ नागरिक...उस पर व्यवस्था की कोई दया नहीं...संवेदना नहीं...बदलाव के इस दौर में आज भी एक वृद्ध स्त्री या पुरुष अपनी वरिष्ठता का झुर्रीदार चेहरा लिए याचक की तरह खड़े नजर आ जाएंगे...रेलवे की टिकट खिड़कियों पर...आधार कार्ड की लाइन में...बैंक में पेंशन काउंटर पर या आयकर के दफ्तरों के सामने...जिन लोगों के साथ रात-दिन काम करके एक सामान्य लोकसेवक रिटायर होता है...उसके साथी उसकी पेंशन और भविष्यनिधि से हिस्सा मांगते हैं...इन भ्रष्टाचार की ही देन है पूर्व में हुए अनेकानेक घोटाले...कहना गलत नहीं होगा कि आम नागरिक छोटे-छोटे भ्रष्टाचारों से त्रस्त है...तो खास आदमी बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों से भी मुक्त हैं...।
दरअसल हमने शायद आचरण की पवित्रता के बजाय कदाचरण की कालिमा का लोकतंत्र बना रखा है...हमने अपने धनतंत्र से जनतंत्र को बंदी बना रखा है...कानून तो गरीबों के दलन या दमन के लिए है...अमीर तो कानून पर भी राज करते हैं...और सात समंदर पार जाकर मौज करते हैं...
आज़ादी के सात दशक बाद भी भारत जैसे विशाल देश में मकड़ी के जाले की तरह तने कानूनों में उलझता कौन आ रहा है...? केवल गरीब...समाज का दबा कुचला शोषित वंचित जन सामान्य...!
क्योंकि सवाल ये है कि ...जिस लोकतंत्र में हम जी रहे हैं...उसकी संसद यानी व्यवस्थापिका-विधायिका क्या हमारे सुख की रचना की व्यवस्था या विधान बनाती है...? कहा तो जाता है कि...कानून सत्ता और जनता के बीच एक प्रकार का अनुबंध है...लेकिन क्या सत्ता इस अनुबंध का पालन करती है...सत्ता में बैठने वाले चाहे बैलेट से जाएं या बुलेट से...वे तो अपने को जन...जनतंत्र और विधान- संविधान सबसे ऊपर ही मानते रहे हैं...
पुलिस का एक सिपाही या पटवारी रिश्वत लेते जिस तत्परता से पकड़ा जाता है...वैसी तत्परता से क्या कोई नेता...नौकरशाह या सत्ताधारी कभी पकड़ा गया...
यही वजह है कि हाल के वर्षों में लोकतंत्र के इस दुखद पहलू को युवाशक्ति ने समझा है...युवा जब सड़क से संसद तक और जनपथ से राजपथ तक पहुंचा तो...सरकारों को लगने लगा कि...एक ऐसी जनशक्ति का उदय होने लगा है...जो बूढ़े गिद्धों,वंशवादीयों को लोकतंत्र का मांस नोंचने नहीं देगी...
लोकतंत्र में विवाद...संवाद जैसे शब्द कुछ पढ़े-लिखे शब्दखोरों के लिए हैं...क्योंकि किसान बहस नहीं करता...सिर्फ काम करता है...मजदूर बहस करता भी है तो...काम के पैसों की...मगर काम पैसों से ज्यादा करता है...सांसद, विधायक, दफ्तरों में बैठे नौकरशाह बहस ही करते हैं...मीटिंग, सेमिनार, इन सबसे फुर्सत ही नहीं... इसलिए वे सिर्फ बहस करते हैं...काम नहीं...बहस उनका सुख है...जनता का दुख...नियम-कानून बनाना उनका सुख है...जनता का दुख...यह कैसा लोक- कल्याणकारी गणतंत्र है...जहां सत्ता के गणपति तो लंबोदर हो रहे हैं...और जनता चूहों की तरह अनाज के सड़े दानों के लिए भी मोहताज है...?
*अगर हमारे सात दशक से अधिक बड़े गणतंत्र में आज भी आम आदमी मजबूर है तो...यह मजबूरी किसने पैदा की...
*हमने देखा है अमीरों के लिए तो विश्व बैंक के कर्ज-कपाट खुले हैं...लेकिन कर्ज का धन जन के फर्ज पर कितना लगाया जा रहा है...
आज सत्ता के सिंहासन पर बैठना चुनौती भरा अवश्य है....विकास का मंत्र भी आकर्षक है...लेकिन सबसे बड़ा विकास तभी संभव है...जब जनता खुश रहे...सुखी रहे और लगे कि यह जनता के सुख का लोकतंत्र है...।
बहरहाल आज़ादी के सात दशक से अधिक बड़े गणतंत्र में *आज भी देश का आम आदमी मजबूर है तो सवाल ये है कि...यह मजबूरी किसने पैदा की...?
*अमीरों के लिए बैंक के दरवाजे खोल कर रखे गए जिससे वो आम आदमी की गाढ़ी कमाई लेकर भाग सके तो ये हालात किसने पैदा किए...?
*21वीं सदी के भारत में आज भी घोषणा पत्र में गरीबी दूर करने की बात हो रही है तो कमी कहां रह गयी. .? *बेरोजगारी सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी है तो जिम्मेदार कौन है. .?
*आज भी भ्रष्टाचार पर लगाम क्यों नहीं लग पा रहा है,जिम्मेदारी किसकी है. ..?
*देश के अन्नदाता की हालत जस की तस बनी हुई है. कैसे सुधरेंगे उनके हालात. .?
*विश्वबैंक या फिर टैक्स के धन का जन के फर्ज पर कितना लगाया जा रहा है...?
आईए लोकतंत्र को शक्ति प्रदान करने के लिए सही नेतृत्व का चुनाव करें, और एक मजबूत सरकार के लिए वोट करें ना कि मजबूर सरकार के लिए..।क्योंकि भारत सशक्त होगा तो हम भी समृद्ध होंगे...जय हिन्द