Saturday 19 March 2016

श्री श्री को बधाई व निंदकों के प्रति सहानुभूति:विश्‍व सांस्‍कृतिक महोत्‍सव ने रचा सफल इतिहास

संदीप कुमार मिश्र: वसुधैव कुटुंबकम का संदेश संपूर्ण संसार में फैलाने के साथ ही तमाम विवादों के बीच आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रवि शंकर की संस्था 'आर्ट ऑफ लिविंग' ने 35 साल पूरे होने के शुअवसर पर दिल्ली में विश्व सांस्कृतिक महोत्सव का बेहद भव्य,सफल और ऐतिहासिक आयोजन किया।और विश्वभर में श्री श्री ने शांति का और सद्भाव का संदेश दिया।
दिल्ली में यमुना के तट पर सैकड़ों एकड़ में 155 देशों से जुटे लोगों ने भाषा, धर्म, नस्ल, राष्ट्रीयता की सरहदों से परे हटकर लाखों लोगों ने 1200 फीट लंबे, 200 फीट चौड़े और 40 फीट ऊंचे मंच पर अकल्पनिय कार्यक्रम प्रस्तुत किया।।
श्री श्री के मार्गदर्शन में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अलावा योग और ध्यान भी हुआ तो देश और दुनिया के तमाम कोनों से पहुंचे संगीतकारों, गायकों, नर्तकों ने आंखों को सुकुन पहुंचाने वाली छटा भी बिखेरी जो वास्तव में दर्शनीय थी।कला, संस्कृति और भव्यता से दिल्ली जगमगा रही थी,हर जुबान पर इस महोत्सव की ही चर्चा हो रही थी।इन सब ने यमुना तट पर बने दुनिया के संभवतः सबसे बड़े मंच पर जो छटा बिखेरी उसने न सिर्फ तमाम वैश्विक नेताओं के सामने भारत का परचम लहराया।
वैदिक मंत्र से लेकर बॉलीवुड की पेशकश और हिंदुस्तान की पारंपरिक नृत्यों से लेकर आध्यात्म तक,आर्ट ऑफ लिविंग की ग्रांड सिंफनी के तहत साढ़े आठ हजार कलाकारों ने 50 तरह के वाद्य यंत्रों पर नौ संगीत रचनाओं को पेश किया तो वहीं संस्कृत के एक हजार से ज्यादा पंडितों ने एक स्वर में वैदिक मंत्रों का जाप किया तो महोत्सव में उपस्थित लोग से साथ ही विश्वभर के श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया और भक्ति रस के संगम में हर किसी को सराबोर कर दिया।
एक तरफ जहां श्री श्री ने भारत को आध्यात्मिक विश्वगुरु होने का अहसास कराया तो वहीं हमारी प्राचीन भारत जो न सिर्फ ऋषि मुनियों और गुरुकुल का देश रहा है बल्कि जो आध्यात्मिक पुनर्जागरण के स्वर्णिम काल में भी सोने की चिड़िया के रूप में प्रसिद्ध रहा है,इसका भी एहसास कराया।
दूर-दूर से आए लोगों ने जहां इस बारिश को शुभ कहा तो युवा ब्रिगेड ने रेन डांस समझकर लुत्फ उठाया। न सिर्फ देश की जनता इस आयोजन के लिए उमड़ पड़ी बल्कि यूरोप और अमेरिका तक के लोग भी महोत्सव के गवाह बने। जब 1700 कलाकारों ने एक साथ कत्थक और भरतनाट्यम तथा 1500 कलाकारों ने एक साथ मोहिनीअट्टम और कथकली नृत्य पेश किया, तो ऐसा लगा जैसे एक पल के लिए पूरा वातावरण ठहर सा गया हो। देशी तो देशी विदेशी कलाकारों में बुल्गारिया के 500 कलाकारों ने होरो नृत्य, 650 अफ्रीकी ढोलवादकों ने अफ्रीकी धुन और 300 थाई नर्तकों ने अपने स्थानीय पारंपरिक नृत्य के जरिए पूरे माहौल को जीवंत बना डाला। रूस और जापान के कलाकारों ने भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं।जो मनमोहक थी।
इस कार्यक्रम के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप में कई और फायदे भी हुए हैं, जो आर्थिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। जी हां सुस्त कारोबार से परेशान दिल्ली के होटल उद्यमियों को विश्व सांस्कृतिक महोत्सव से बड़ी राहत मिली,और होटलों के कमरे खचाखच भरे रहे।
धर्म और अध्यात्म से जुड़े लोगों का कहना है कि प्राचीन काल की भांति एक बार फिर संस्कृति का जुड़ाव नदी के किनारे हुआ। यमुना नदी के किनारे इस भव्य विश्व सांस्कृतिक महोत्सव में श्री श्री रविशंकर ने कहा कि इससे दुनिया में भारत की सांस्कृतिक छवि का नवनिर्माण होगा और दुनिया को भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा।जो निश्चित तौर पर हुआ।
 लेकिन एक सवाल अक्सर मन में उठता है कि आखिर क्यों पर्यावरण के कुछ तथाकथित रक्षक और कुछ खास वर्ग के लोग या फिर कुछ सियासतदां, श्री श्री रविशंकर जी को खलनायक बनाने पर तूले रहे ?  
हमें सोचना होगा कि जिस इंसान ने जीवनभर पर्यावरण की रक्षा के क्षेत्र में जुझारू प्रतिबद्धता के साथ काम किया, उनका नाम है श्री श्री रविशंकर। अफसोस तब होता है कि यमुना के रिवरबेड पर हुए असंख्य अनाधिकृत निर्माणों पर इतना हो हंगामा क्यों नही हुआ ? पूरा कॉमनवेल्थ विलेज यमुना के रिवरबेड पर ही बना।तब तो हंगामा नहीं हुआ। सवाल उठता है कि क्या श्री श्री रविशंकर पर निशाना साधा जा रहा है?
हमें ये भी सोचना होगा कि श्रीश्री के उत्सव में कमी निकालने वाले क्या भूल गए कि पिछले साल केरल में पम्पा नदी के तट पर एशिया का सबसे बड़ा ईसाई सम्मेलन हुआ था, जो एक सप्ताह तक चला।जिसमें कई सौ एकड़ फसलों को राज्य सरकार ने नष्ट करवा दिया था। तब तो सभी सेकुलर नेता खामोश थे।भ्रस्ट हो चुकी मीडिया भी इस मुद्दे पर एकदम खामोश रही।आपको ता दें कि यह पवित्र नदी केरल की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में से एक है। तब किसी ने नदी के रिवरबेड में आयोजन और उसके नुकसान की आंशका के मद्देनजर कोई सवाल नहीं खड़ा किया।
हम सब जानते हैं कि दिल्ली में वर्तमान में यमुना की स्थिति क्या है शहर भर के कचरे और उद्योगों के रसायनिक अवशिष्ट ने उसे गंदे नाले में तब्दील कर दिया है।उसमें बीओडी यानी बायोलॉजिकल ऑक्सीजन डिमांड जीरो पर पहुंच गया है। इसका अर्थ यह है कि यमुना में कोई जीव जिंदा रह ही नहीं सकता।न तो इसका पानी पीने लायक है और न ही फसलों की सिंचाई के लिए उपयुक्त है।साब सवाल तो इसपर होना चाहिए था ना कि महोत्सव पर।
दरअसल 'आर्ट आॉफ लिविंग फाउंडेशन' की निंदा तथाकथित लोग महज अल्प जानकारी के आधार पर करते हैं।लेकिन निंदा करने वाले माननियों को तो श्रीश्री रविशंकर और 'आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन' को उनके द्वारा दशकों से किए गए पर्यावरण संरक्षण के महत्वपूर्ण कार्यों को ध्यान में रख कर करना चाहिए था। क्योंकि श्रीश्री रविशंकर को करीब से जानने वाले जानते हैं कि उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में वास्तव में बहुत ही ठोस और जमीनी कार्य किए हैं।पर्यावरण के प्रति उनकी अथक प्रतिबद्धता को असंख्य लोगों ने प्रत्यक्ष रूप से देखा है।
श्री श्री के मार्गदर्शन में 'आर्ट आॉफ लिविंग फाउंडेशन' ने कर्नाटक में कई नदियों जैसे कुमुदवती, अर्कावती, वेदवती और पलार नदी तथा तमिलनाडु में नगानदी तथा महाराष्ट्र में घरनी, तेरना, बेनीतुरा व जवारजा नदी को नया जीवन प्रदान किया है।पको बता दें कि इनमें से कई नदियां या तो सूख चुकी थीं या शहरी विकास की वजह से बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी थीं। श्री श्री रविशंकर स्वयं कहते हैं- 'नदियों¨का पुनरुद्धार करना जीवन का पुनरुद्धार करने जैसा है।'
ऐसे में महज अपनी सियासी गोटियां सेकने के लिए श्रीश्री रविशंकर की भूमिका को नकार दिया गया। दरअसल नदियों के पुनरुत्थान और जल संरक्षण के कार्यक्रम चलाने के अलावा श्रीश्री ने सस्टेनेबल फार्मिंग के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण काम किया है। वे पूरी दुनिया में करीब एक करोड़ वृक्ष लगाने के बड़े काम को भी कर रहे हैं अपने साथियों के साथ। ये कार्य वे संयुक्त राष्ट्र मिलेनियम डवलपमेंट प्रोग्राम के साथ मिल कर रहे हैं।जाहिर है, विश्व संस्कृति उत्सव पर विवाद खड़ा करने वालों को श्रीश्री को लेकर ये सारी जानकारी नहीं है या वे ढोंग रचने को ही अपना 'धर्म' मानते हैंI


कहना गलत नहीं होगा कि श्रीश्री एक राष्ट्रीय धरोहर हैं।वह एक ऐसे मनुष्य हैं, जिन्होंने बार-बार और हर बार मानवीय भावनाओं के उत्थान के लिए बिना थके,बिना रुके काम किया है,और कर रहे हैं।भारत में उनके द्वारा किए गए प्रयास वंदनिय हैं,जिसे यूवा पीढ़ी सदैव याद रखेगी।लेकिन बेहद अफसोस और शर्मनाक है कि हमारे समाज का एक वर्ग पर्यावरण के प्रति श्री श्री की प्रतिबद्धता पर सवाल उठा रहा है।
अंतत: मैं उन सभी सवाल उठाने वाले तथाकथित माननियों से सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि श्री श्री रविशंकर जी का उद्धेश्य सिर्फ इतना है कि ध्यान और वैदिक परम्परा में निहित प्राचीन ज्ञान के माध्यम से मानवीय मूल्यों का उत्थान हो और भारत की संस्कृति और भी संबृद्ध और विशाल हो।

Friday 18 March 2016

होलाष्टक में शुभकार्य क्यों हैं वर्जित ?

संदीप कुमार मिश्र: सनातन संस्कृति...हिन्दू मान्यता और पौराणिक कथाओं में फाल्गुन शुक्लपक्ष अष्टमी से होलाष्टक तिथि की शुरुआत मानी जाती है।और इस तिथि से पूर्णिमा तक के आठों दिनों को हमारे हिन्दू धर्मानुसार होलाष्टक कहा जाता है।जैसा कि इस वर्ष(2016)में होली से 8 दिन पहले होलाष्टक यानि 16 मार्च से आरंभ हों चुका है। होलाष्टकावधि भक्ति की शक्ति का दिव्य प्रभाव दिखाने की है।
पंडित कपुर चन्द शास्त्री जी कहते हैं कि जब सत्ययुग में हिरण्यकश्यपु ने घोर तपस्या करके भगवान विष्णु से अनेकानेक वरदान प्राप्त किया उसके बाद उसे अहंकार हो गया।और अहंकार के मद में चूर हिरण्यकश्यपु द्वारा चहुंओर अनाचार-दुराचार बढ़ने लगा।ईश्वर की भक्ति करने वालों को सजा दी जाने लगी...ईश्वर भक्तों को यातनाएं दी जाने लगी।जिसे देखकर भगवान् विष्णु से रहा नहीं गया और अपने भक्त हिरण्यकश्यपु के उद्धार के लिए प्रभु ने अपना ही अंश हिरण्यकश्यपु की पत्नी कयाधू के गर्भ में स्थापित कर दिया।जिससे एक दिव्य बालक का अवतार इस धराधाम पर हुआ...जिसका नाम प्रह्लाद था।भक्त प्रह्लाद जन्म से ही ब्रह्मज्ञानी थे।प्रहलाद का हर पल,हर क्षण ईश्वर भक्ति में व्यतीत होने लगा।भक्त प्रहलाद को सभी नौ प्रकार की भक्ति प्राप्त थीं।जो इस प्रकार हैं-
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्यंसख्यमात्म निवेदनम।
कहने का भाव है कि - श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, व आत्मनिवेदनम।

हरि भक्त प्रह्लाद की भक्ति का उनके पिता हिरण्यकश्यपु सदैव विरोध करते थे।और खुद की भक्ति करने को कहते थे।जिसके लिए भक्त प्रहलाद को ईश्वर की भक्ति से विमुख करने के अनोको उपाय हिरण्यकश्यपु ने किए,लेकिन उनके सभी उपाय निष्फल हो जाते।अंतत: अभिमानवश क्रोधित होकर हिरण्यकश्यपु ने भक्त प्रह्लाद को फाल्गुन शुक्ल पक्ष की अष्टमी को ही बंदी बना लिया और मृत्यु हेतु अनेकानेक यातनाएं देने लगे।कहते हैं जिसपर प्रभु की कृपा होती होती है उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता,और वैसा ही हुआ...भक्त प्रह्लाद अपने पिता की घोर यातनाओं से भी तनिक विचलित नहीं हुए।जिसके बाद निरंतर प्रह्लाद को मृत्यु देने के अनेकों उपाय किए जाने लगे,और भाव वत्सल भगवान की कृपा वश बालक प्रहलाद हमेशा बचते रहे। इसी प्रकार सात दिन का समय बीत गए और आठवें दिन जब होलिका को अपने भाई हिरण्यकश्यपु की परेशानी नहीं देखी गई तो उसने अपने भाई को एक उपाय सुझाया।

मित्रों आपको बता दें कि हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका को सृष्टी के रचयिता भगवान ब्रह्मा जी द्वारा अग्नि से न जलने का वरदान था।इसी वरदान की वजह से होलिका ने भक्त प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में भस्म करने का प्रस्ताव हिरण्यकश्यपु के सामने रखा।जिसके बाद जब होलिका धधकती अग्नि में जैसे ही अपने भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर बैठी,वह स्वयं ही धू-धू कर जलने लगी और भगवतकृपा से भक्त प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।वो मुस्कुराते हुए अग्नि से बाहर निकल आए।।

कहते हैं कि तभी से भक्ति पर आघात हो रहे इन आठ दिनों को जत में होलाष्टक के रूप में मनाये जाने की शुरुआत हुई। मित्रों भक्ति का प्रभाव देखिए...कि जिस-जिस तिथि, वार को भक्ति पर अत्याचार होता था, उन तिथियों और दिन के स्वामी भी हिरण्यकश्यपु से क्रोधित हो जाते थे। इसीलिए इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं।तभी से इन आठ दिनों तक किसी भी प्रकार के शुभकार्य हिन्दू धर्म में नही किए जाते हैं।

होलाष्ट में मुख्य रुप से हमें कुछ मुख्य और शुभकार्यों को करने से बचना चाहिए,जैसे- गर्भाधान, विवाह, नामकरण, विद्यारम्भ, गृह प्रवेश और हर प्रकार के निर्माण कार्य जैसे अनुष्ठान इन दिनों सनातन धर्म में अशुभ माने गए हैं। फाल्गुन शुक्ल अष्टमी के दिन से ही होलिकादहन स्थान का चयन किया जाता है। और आठवें दिन यानि पूर्णिमा के दिन सायंकाल शुभ मुहूर्त में अग्निदेव की शीतलता एवं स्वयं की रक्षा के लिए उनकी पूजा करके होलिका दहन किया जाता है।सा ही विधान हमारे धर्म शास्त्रों में बताए गए हैं।जिनका निरंतर सृष्टी पर रहे रहे हिन्दू धर्मानुयायी मानते और पालन करते आ रहे हैं।


होली पर करें खास उपाय धन-धान्य से भरा रहेगा घर


संदीप कुमार मिश्र : रंग और गुलाल का त्योहार है होली...भाईचारे और सद्भावना का त्योहार है होली।कहते हैं होली पर दुश्मन भी दोस्त बन जाते हैं।तभी तो इस कास अवसर पर देशवासी अपने-अपने तरीके से होली के रंग में रंग जाता है।लेकिन आप कुछ और भी ऐसा उपाय कर सकते हैं जिससे आप की होली का उत्साह आपके परिवार में धन,धान्य,सुख समृद्धी लेकर आएगी।ज्योतिषविद् पंडित शिव कुमार शुक्ल बताएंगे कुछ ऐसे उपाय, कुछ ऐसी मान्यताएं जिन्हें हम होली में अपनाएं और खुशिया का स्वागत करें।

ग्रह शांति उपाय
मंत्र- ब्रह्मा मुरारी स्त्रीपुरान्तकारी भानु शशि भूमि-सुतो बुधश्च।
गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव: सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु।
ग्रहों की सर्व शांति के लिए हमें होली की रात उत्तर दिशा में बाजोट (पटिए) पर साफ और स्वच्छ सफेद कपड़े को बिछाकर उस पर मूंग, चने की दाल, चावल, गेहूं, मसूर, काले उड़द एवं तिल की अलग-अलग ढेरी बनानी चाहिए।ततपश्चात उस पर नवग्रह यंत्र स्थापित करना चाहिए और फिर उस पर केसर का तिलक करें, गाय के घी का दीपक लगाएं और उपरोक्त मंत्र का जाप स्फटिक की माला से करें।जब जाप पूरा हो जाए तब यंत्र को घर के पूजा स्थान पर स्थापित करें।इस प्रकार से  ग्रह आपके अनुकूल होने लगेंगे।

व्यापार में सफलता के उपाय
मंत्र- ऊं श्रीं श्रीं श्रीं परम सिद्धि व्यापार वृद्धि नम:।
व्यापार में उन्नती और तरक्की पाने के लिए एकाक्षी नारियल को हमें लाल कपड़े में गेहूं के आसन पर स्थापित करना चाहिए और उसपर सिंदूर का तिलक करना चाहिए।ऐसा करने के बाद मूंगे की माला उपरोक्त मंत्र का जाप करना चाहिए।इस मंत्र का 21 माला जाप पूर्ण करने के बाद पोटली को अपने व्सवसायीक स्थल पर ऐसे स्थान पर टांग देना चाहिए, जहां से ग्राहकों की नजर इस पर निरंतर पड़ती रहे।इस प्रकार काम धंधे में सफलया के बेहतर योग बनने लगते हैं।

बनेंगे विवाह के योग
हमारे धर्म शास्त्रों में मंत्रों की शक्ति का बृहद वर्णन किया गया है।कहा जाता है कि विवाह में हो रही रुकावट,बाधा और परेशानी के लिए होली के दिन सुबह एक साबूत पान पर एक पूरी सोपारी एवं हल्दी की एक गांठ को किसी भी शिवालय में जाकर शिवलिंग पर चढ़ाना चाहिए।और बगैर पिछे मुड़कर देखे घर की तरफ प्रस्थान करना चाहिए।इस प्रकार इस उपाय को नित्य करें।आप देखेंगे कि विवाह का सुंदर योग जल्द ही बन जाएगा।

रोगनाशक मंत्र
मंत्र- ऊं नमो भगवते रुद्राय मृतार्क मध्ये संस्थिताय मम शरीरं अमृतं कुरु कुरु स्वाहा
घर में बीमारी का हो बसेरा तो निश्चित रुप से सुख और शांती नहीं आ सकती।लेकिन होली की रात को उपर लिखे मंत्र का जाप तुलसी की माला से करने रोग का नास होता है,स्वास्थ्य और सुख शांती संग धन धान्य का वास घर में होता है।

चंद्रमा का करें स्मरण और ध्यान
मित्रों कहते हैं कि होली की रात में चंद्रमा के उदय होने के बाद आप अपने घर की छत पर जहां से चांद नजर आए, वहां खड़े होकर चंद्रमा का ध्यान करते हुए चांदी की प्लेट में सूखे छुहारे व कुछ मखाने रखकर शुद्ध घी के दीपक के साथ धूप एवं अगरबत्ती अर्पित करें।पश्चात दूध से चंद्रमा को अर्घ्य दें और अर्घ्य के बाद सफेद मिठाई, केसर मिश्रित साबूदाने की खीर अर्पित करें। तथा चंद्रमा से सुख समृद्धि प्रदान करने के लिए प्रार्थना करें।ऐसा करने के बाद प्रसाद और मखाने को बच्चों में बांट देना चाहिए।इस प्रकार निरंतर आने वाली प्रत्येक पूर्णिमा की रात चंद्रमा को दूध का अर्घ्य देना चाहिए।ऐसा करने से आप महसूस करेंगे कि आपका आर्थिक संकट निरंतर दूर होता जाएगा।


अंतत: हमारा देश भारत...आस्थाओं और मान्यताओं का देश है।हमारी सभ्यता और संस्कृति विश्व की सबसे प्राचीन है।अनेकता में एकता का संदेश देती हैं हमारी हिन्दू मान्यताएं और विश्वास।जहां तक प्रश्न है मंत्रों की शक्ति का तो सदियों से अटूट आस्था और विश्वास रहा है हमारा इन पर।इसी आधार पर सदियों से ऐसे उपाय किए जाते रहे हैं...।लेकिन एक बात हम सभी भलीभांति जानते हैं कि कर्म के बिना भाग्य अधूरा है।

अभाव में ही स्वभाव की असल परीक्षा

संदीप कुमार मिश्र: कहते हैं हमारे जीवन की सभी कलाएं उस कला के लिए है, जिसे हम जीने की कला कहते हैं।और हमारा असल इम्तहान या यूं कहें कि हमारी असल परीक्षा उस वक्त होती है जब हम अभावों के दौर से गुजरते हैं।यही वो वक्त होता है जब हमारे स्वभाव में सकारात्मक और नकारात्मक दोनो तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं।और समाज हमारा मुल्यांकन करता है,कि हमारे भीतर धैर्य कितना है,सहनशक्ति कितनी है...और क्या हम अभाव में स्वभाव बदल देते हैं।

दरअसल हमारी जिंदगी अधूरी ना हो,पूरी हो,हम सब यही चाहते हैं।स्वाभाविक तौर पर हमें सोचना भी यही चाहिए,और चाहत भी यही होती है।लेकिन सत्य ये भी है कि हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता,किसी को जमी तो किसी को आसमा नहीं मिलता।ऐसे में अभाव इन सभी में हमें शाश्वत तौर पर मौजूद मिलेगा। अपने अभावों के प्रति हमारा नजरिया और उसके साथ हमारी तारतम्यता ही तय करती है कि हम जिंदगी को किस तरह से लेते हैं और हमारा जीने का नजरीया क्या है।
दोस्तों अभाव में कुछ भी बुरा तब तक नहीं होता जब तक हम अभावों के आगे नतमस्तक होकर नहीं बैठते या फिर आत्मसमर्पण नहीं करते। दरअसल, अभावों को दूर करने की हमारी कोशिश दूसरे के अभावों को भी समझना है।यकिन मानिए अभाव हमारे व्यक्तित्व को मांज कर हमें एक परिपूर्ण व्यक्ति बनने में मददगार होता है। इस बात को हमें कभी नही भूलना चाहिए कि जब हमारे एक अभाव की पूर्ति होती है तो दूसरे अभाव का जन्म भी हो जाता है। ये सच है कि अभाव हमें मांजता है, निखारता है, जीवन का मर्म और उसका सौंदर्य समझाता है।संघर्ष और हमारे बचपन के दिनों में मिले अभाव और समस्याएं हमें जिंदगी की जंग जीतने का हौसला देती है।


संसार की सभी सभ्यताओं का विकास भी अभावों में ही हुआ और हमारे दार्शनिक चिंतक विचारक भी कहते हैं कि अभाव में मिले अनुभव ही हमें संवेदनशील बनाते हैं और हमें चीजों के प्रति समभाव रखने का नजरिया प्रदान करते हैं।यकीनन जब हम अभावों में जीना सीख जाते हैं तो हमारे सपनों को पंख लगते र नहीं लगती। अभावों से उबरना उतना ही जरूरी है, जितना दूसरों के अभावों को दूर करने की कोशिश करना।और ये तभी संभव है जब अभाव में स्वभाव को बिगड़ने ना दिया जाए। 

Wednesday 16 March 2016

उनाकोटी : जहां है भगवान शिव का दूसरा घर

संदीप कुमार मिश्र:  प्रकृति के कण-कण में ईश्वर का वास कहा जाता है...और आदि देव महादेव भगवान आशुतोष,भोलेभंडारी घट-घट में विद्यमान है। कहते हैं जप,तप,ध्यान,ज्ञान,योग और साधना के लिए प्राचिन समय से ही हमारे ऋषीमुनी...जंगलों,पहाड़ों कंदराओं में रहकर तपस्या किया करते थे।चलिए आपको ऐसे ही एक जगह पर लेकर चलते हैं,जहां होगा आपका ईश्वर से साक्षात्कार और जिस जगह को कहते हैं भगवान शिव का दूसरा घर..।

दोस्तों टेड़ीमेड़ी खूबसूरत पगडंडियां...सुंदर और घने जंगल...घाटियां और संकरी कल-कल बहती नदियां...मनोरम..मनमोहक दृश्य...अनोखी वनस्पतियां और वन्य जीवों का एहसास किसे नहीं रोमांचित कर देगा..कौन नहीं चाहेगा कि शहरों की भागमभाग जिंदगी से बाहर निकलकर प्रकृति के समीप रहने और आत्मचिंतन और उत्साह का संग्रह किया जाए।दोस्तों ये सभी खुबियां हैं त्रिपुरा के उनाकोटी में,जो प्राकृतिक भंडार से भरा पड़ा है,जिसका ऐतिहासिक, पुरातत्विक और धार्मिक महत्व बरबस ही श्रद्धालूओं और पर्यटकों को अपनी आकर्षीत करता है।

दरअसल उनाकोटी एक औसत ऊंचाई वाली पहाड़ी श्रृंखला है, जो हरे-भरे शांत और शीतल वातावरण में स्थित है। राज्य की राजधानी से तकरीबन 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनाकोटि की पहाड़ियो पर हिन्दू देवी-देवताओं की चट्टानों पर अनगिनत मूर्तियां उकेरी गई हैं,जो अब भी मौजूद हैं।प्राचीन और पौराणिक कथाओं में इस स्थान के बारे में अनेकों दिलचस्प प्रमाण मिलते हैं। जिसके अनुसार, इस स्थान पर देवी-देवताओं की एक सभा हुई थी और भगवान शिव, बनारस जाते समय यहां रुके थे,और तभी से इस स्थान का नाम उनाकोटि पड़ गया।
उनाकोटि में पहाड़ों की चट्टानों पर बनाए गए नक्काशी के शिल्प और पत्थर की मूर्तियां हैं।जिसका आधार भगवान शिव और गणेश जी हैं। 30 फुट ऊंचे शिव की विशालतम छवि खड़ी चट्टान पर उकेरी गई है, जिसे उनाकोटिस्वर काल भैरवकहा जाता है। इसके सिर को 10 फीट तक के लंबे बालों के रूप में उकेरा गया है। इसी के पास शेर पर सवार माता देवी दुर्गा का शिल्प चट्टान पर उकेरी हुई है, वहां दूसरी तरफ मकर पर सवार देवी गंगा का शिल्प भी है। यहां नंदी बैल की जमीन पर आधी उकेरे हुए शिल्प भी हैं।जो शिल्पकला के लिहाज से अद्भुत है।
 भगवान भोलेनाथ के शिल्पों से कुछ ही दूरी पर भगवान गणेश की तीन बेहद शानदार मूर्तियां हैं। चार-भुजाओं वाले गणेशजी की दुर्लभ नक्काशी के एक तरफ तीन दांत वाले साराभुजा गणेश और चार दांत वाले अष्टभुजा गणेशजी की दो मूर्तियां बनी हुई हैं।साथ ही तीन आंखों वाला एक शिल्प भी है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह भगवान सूर्य या विष्णु भगवान के हैं।
इतना ही नहीं चतुर्मुख शिवलिंग, नांदी, नरसिम्हा, श्रीराम, रावण, हनुमान, और अन्य अनेक देवी-देवताओं के शिल्प और मूर्तियां भी यहां बनी हुई है।जो यहां की पौराणीकता को सिद्ध करती है। एक किंवदंती है कि अभी भी उनाकोटी में कोई चट्टानों को उकेर रहा है, इसीलिए इस उनाकोटि-बेल्कुम पहाड़ी को देवस्थल के रूप में जाना जाता है,कहते हैं  आप किसी भी दिशा से आईए,कहीं भी जाईए, आपको भगवान शिव या अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां आपको मिल ही जाएंगी।जो किसी रोमांच और रहस्य से कम नहीं है।
साथियों जब आप यहां जाएंगे तो आप देखेंगे कि पहाड़ों से गिरते हुए सुंदर सोते उनाकोटि के तल में एक कुंड को भरते हैं, जिसे सीता कुंडकहा जाता हैं।जिसमें स्नान करना बेहद पवित्र माना जाता है। हर साल उनाकोटी में अप्रैल के महीने में अशोकाष्टमी मेलालगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु आते हैं और सीता कुंडमें स्नान कर खुद को धन्य मानते हैं।
आपको बता दें कि उनाकोटी को एक आदर्श पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा साल 2009-10 में उनाकोटि डेस्टिनेशन डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट के तहत यहां 5 किलोमीटर के दायरे में पर्यटक सूचना केंद्र, कैफेटेरिया, सार्वजनिक सुविधाएं, प्राकृतिक दृश्यों के लिए व्यूप्वाइंट आदि के निर्माण की मंजूरी दी गई है।
ऐसा माना जाता है कि उनाकोटि पर भारतीय इतिहास के मध्यकाल के पाला-युग के शिव पंथ का प्रभाव है। इस पुरातात्विक महत्व के स्थल के आसपास तांत्रिक, शक्ति, और हठ योगी जैसे कई अन्य संप्रदायों का प्रभाव भी देखने को मिलता है।
भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार, उनाकोटि का काल 8वीं या 9वीं शताब्दी का माना जाता है। आप कह सकते हैं कि ऐतिहासिक रूप से और उनकोटि की कथाएं अभी भी एएसआई और ऐसी ही अन्य संस्थाओं से इस पर समन्वित अनुसंधान की मांग कर रही हैं, ताकि भारतीय सभ्यता के लुप्त अध्याय के रहस्य को उजागर किया जा सके।
अंतत: यकीनन उनाकोटी दर्शन और पर्यटन के लिहाज से बेहद खास और ज्ञानवर्धक भी है।तो जब भी अवसर मिले तो हो आईए उनाकोटी।
 

चलो घूम आएं दुधवा नेशनल पार्क

संदीप कुमार मिश्र: शहरों की थकान और भागदौड़ भरी जिंदगी...जरुरतो और आवश्यकताओं को पूरा करने की जद्दोजहद में किसे चैन और सुकुन की चाह नहीं होगी।ऐसे में पर्यटन के लिए कहीं हो आना चाहिए...जिससे मन को शांति और सुकुन तो मिले ही..साथ ही उत्साह और रोमांच का अनुभव भी हो तो कितना बेहतर हो...तो चलिए आपको ऐसे ही बेहद खास जगह के बारे में बताते हैं जहां जाकर आप रोमांच से भर उठेंगे...।
जी हां दोस्तों हम बात कर रहे हैं..दुधवा नेशनल पार्क की...जो पर्यटकों के लिहाज से बेहद कास है।जहां पर्यटकों के लिए इस पार्क में बहुत सारी नई सुविधाएं शुरू की गई हैं।जहां सैलानियों खुब आना जाना लगा रहता है...जानते हैं कि क्या खास है दुधवा नेशनल पार्क में।
दरअसल दुधवा हमारे देश में तराई वन्य क्षेत्रों में शामिल है, जहां अनेकों प्रकार के वनस्पति और वन्य जीवों की प्रजातियां प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं। एक तरफ जहां इस घने जंगल का उत्तरी किनारा नेपाल की अंतरराष्ट्रीय सीमा से लगा हुआ है तो वहीं इसके दक्षिण में सुहेली नदी बहती है। दुधवा के वन्य क्षेत्र में हरेभरे जंगल, लम्बी घास और अन्य सभी प्रकार के पेड़ पाए जाते हैं,साथ ही हिरनों की विभिन्न प्रजातियों के अलावा बाघ, तेंदुआ, बारहसिंघा, हाथी, सियार, लकडबग्घा और एक सींग वाले गेंडे स्वच्छंद विचरण करते नजर आते हैं।
दुधवा नेशनल पार्क में हिरण, हाथी और पंछियों समेत बाघ, तेंदुएं और हर प्रकार के पक्षियों का बसेरा है। गहरे हरे जंगलों के बीच बहने वाली नदियां यकिनन आपको रोमांच से भर देंगी।दोस्तों दुधवा नेशनल पार्क हमारे देश के सबसे उम्दा इको-सिस्टम वाले तराई क्षेत्रों में से एक माना जाता है। यही कारण है कि ‌यहां वन्य जीवन बेहद विशाल और खूबसूरत है।जिसे पर्यटक अपनी यादों में कैद करना चाहते हैं।
मित्रों ये पार्क सिर्फ घूमने के लिहाज से ही नहीं हमारा बेहतरिन ज्ञानवर्धन भी करता है।आपको बता दें कि दुधवा टाइगर रिजर्व की नींव 1958 में पड़ी थी, लेकिन उस समय इसका उद्धेश्य था लुप्त होते बारासिंघा को बचाना। तब इस जगह का नाम भी सोनारीपुर अभ्यारण्य था।समय के साथ ही इस पार्क का दायरा बढ़ाकर इसका क्षेत्रफल 212 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया और नाम पड़ गया दुधवा अभ्यारण्य। 1977 में क्षेत्रफल बढ़ाकर 614 वर्ग किलोमीटर किया गया और इसे राष्ट्रीय पार्क का दर्जा दिया गया। फिर,1988 में लखीमपुर से 30 किलोमीटर दूर स्थित किशनपुर अभ्यारण्य को भी इसमें शामिल करते हुए इसे दुधवा टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया गया। उत्तर प्रदेश पर्यटन विभाग का कहना है कि, यहां के सथानिया और ककरहा इलाकों में करीब 1800 बारासिंघा मौजूद हैं।
ऐसे तो दुधवा पार्क में बाघ की भी तमाम प्रजातियों के साथ तीथल, हॉग डीयर और बार्किंग डीयर की भी खासी तादाद हैं।इस पार्क में कई ऐसे जानवर भी देखे गए हैं, जिनके बारे में विलुप्त होने का अक्सर शक जताया जाता रहा है। ऐसा ही एक प्राणी है हिस्‍पिड हेयर। गाढ़े भूरे रंग का यह जानवर अपने शानदार फर के लिए बेहद पसंद किया जाता है। इतना ही नहीं, पंछियों के लिए भी यह स्वर्ग जैसा है।तकरिबन इस पार्क में पंछियों की 400 प्रजातिया मौजूद हैं।जिन्हें देखना वास्तव में अद्भुत है।
कब जाएं और कहां रुकें
साथियों दुधवा नेशनल पार्क में जाने का सबसे उपयुक्त और बेहतर समय 16 नवंबर से 14 जून तक है। दुधवा में आधुनिक शैली में थारू हट उपलब्ध हैं। रेस्ट हाउस-प्राचीन इण्डों-ब्रिटिश शैली की इमारतें पर्यटकों को इस घने जंगल में आवास प्रदान करती है, जहां प्राकृतिक सौंदर्य दोगुना हो जाता हैं। यहां जंगलों के बीच करीब 50 फीट ऊंचाई पर ट्री हाउस बनाए गए हैं, जहां आप असली रोमांच का अहसास कर सकते हैं। इसके अलावा, यहां सरकारी और निजी कई गेस्ट हाउस मौजूद हैं।
क्या है खास और कैसे पहुंचें
दुधवा के जंगलों में ब्रिटिश राज से लेकर भारत में बनवाए गए लकड़ी के मचान रोमांच को बढ़ा देते हैं। साथ ही, यहां राजस्‍थान की थारू सभ्यता का भी दिदार होता है। इस जाति के लोगों के आभूषण, नृत्य, त्योहार व पारंपरिक ज्ञान बेमिसाल हैं। खुद को राणा प्रताप का वंशज बताने वाले इस समुदाय के लोग नेपाल बॉर्डर पर रहते हैं।लखनऊ सिधौली, सीतापुर, हरगांव, लखीमपुर और भीरा से पलिया होते हुए आप दुधवा नेशनल पार्क पहुंच सकते हैं। दुधवा नेशनल पार्क के सबसे पास रेलवे स्टेशन दुधवा, पलिया और मैलानी हैं।
अंतत: जब इतनी सारी खुबियां दुधवा नेशनल पार्क में मौजुद हैं तो जब भी समय मिले तो हो आईए रोमांच के इस महापार्क में जहां होगा प्रकृति से साक्षात्कार...।