संदीप कुमार मिश्र: 2014 का आम चुनाव देश
में कई बदलाव लेकर आया...जिस प्रकार से कांग्रेस का सफाया हुआ...क्षेत्रिय दलों को
अपने वजूद को बचाने का सामना करना पड़ रहा है...और कई दशकों के बाद देश में पूर्ण
बहुमत की सरकार बनी वो निश्चित रुप से किसी करिश्में से कम नहीं थी।शायद यही वजह
है कि पिछड़े डेढ़-दो सालों मे हमारे देश में कुछ अघोषित एजेंडे के तहत अजीबोगरीब माहौल
दिखाने की कोशिश की जा रही है। मुद्दा बनाने से लेकर उसे क्रियान्वित करने तक सब
कुछ तय एजेंडे से हो रहा है।
दरअसल ये कहने में मुझे कोई शक-सुबहा
नहीं कि ये सब कुछ वही लोग कह और कर रहे हैं जो कभी नरेंद्र मोदी पर फब्तियां कसते
थे, और देश की अस्मिता की परवाह किये बगैर उनके खिलाफ अमेरिका में वीजा रुकवाने का
पत्र लिखते थे।आपको याद होगा कि किस प्रकार से सेक्युलर ताकतें मोदी का नाम लेकर आमजन में भय
पैदा करते थे। लेकिन जनता जनार्दन ने सभी बातों को नकारते हुए मोदी जी को प्रचंड
बहुमत से संसद में भेजा।वहीं अमेरिका ने भी रेड कारपेट बिछाया।चंद सेक्युलर ताकतें
जिनको डराया करती थी वो अब पहले से ज्यादा खुद को सुरक्षित महसूस कर रही हैं।
खैर सरकार बदली तो कार्यशैली में भी
बदलाव हुआ।और आपको बता दें कि यही बदलाव विपक्ष के लिए बर्दास्त करना नागवांर गुजर
रहा है।अब केंद्र की मोदी सरकार बोलती सरकार है ना कि वो 'मौन' सरकार है। मोदी सरकार के सत्ता पर काबिज होते ही सबसे बड़ा जो काम हुआ वो ये
कि तथाकथित गणमान्य जो बिना हिसाब दिए विदेशी चंदे पर पल रहे थे,उनका बेड़ा गर्क
कर दिया गया।क्योंकि चंदा आ तो बेहिसाब रहा था लेकिन जा कहां रहा था इसका कोई
लेखा-जोखा नहीं था।यही वो दुखती रग थी जिसको मोदी सरकार ने दबा दिया।
जैसा कि खबर आई थी कि पिछले साल ही मोदी
सरकार ने विदेशी चंदे पर पल रहे उन तकरिबन 9000 से ज्यादा गैर-सरकारी संगठनों का पंजीकरण लाइसेंस निरस्त कर दिया है, जिन्होंने विदेशी चंदा अधिनियम कानून अर्थात एफसीआरए का उलंघन किया है। 16 अक्तूबर 2014 को गृहमंत्रालय द्वारा कुल 10343 गैर-सरकारी संगठनों को वर्ष 2009
से लेकर 2012 तक मिले विदेशी चंदे का ब्यौरा मांगा गया था।जबकि जवाब के लिए दिए गए
1 महीने का समय बीत जाने के बाद भी मात्र 229 गैर-सरकारी संगठनों ने इसका जवाब
दिया।
ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि अन्य
संस्थाओं ने हिसाब क्यों नहीं दिया? क्या दाल में कुछ काला था या पूरी
दाल ही काली थी? चंदे के धंधे से फल-फूल रहे इस कारोबार पर लगाम लगाने की कवायदों में ही
केंद्र सरकार ने अमेरिका के बहु-चर्चित फोर्ड फाउंडेशन द्वारा भारत में दिए चंदे
को निगरानी में रखने का आदेश जारी किया था।गौर करने बात ये है कि जिस फोर्ड
फाउन्डेशन पर सरकार की सख्त निगरानी बहुत पहले रखी जानी चाहिए थी,वो ना जाने किस स्वार्थ को को साधने के लिए यूपीए सरकार ने फोर्ड फाउन्डेशन को भारत में
बिना किसी निगरानी के काम करने और पैसा देने की खुली छूट दे रखी थी।
फोर्ड फाउंडेशन पर गुजरात सरकार की
रिपोर्ट में यह कहा गया है कि, सबरंग ट्रस्ट और सबरंग कम्युनिकेशंस ऐंड
पब्लिशिंग प्राइवेट लिमिटेड (एससीपीपीएल) फोर्ड फाउंडेशन के प्रतिनिधि कार्यालय
हैं और फोर्ड फाउंडेशन लंबी अवधि की अपनी किसी योजना की वजह से इन्हें स्थापित
करने के साथ ही इसका इस्तेमाल कर रहा है।फाउंडेशन ने सबरंग ट्रस्ट को 2,50,000 डॉलर और एससीपीपीएल को 2,90,000 डॉलर चंदे के तौर पर दिए हैं। बड़ा सवाल
ये है कि गैर-सरकारी संगठनों का ताना-बाना बुनकर देश के समाजिक और राजनीतिक मामलों
में हस्तक्षेप करने वाले किसी भी किस्म के विदेशी पैसों को निगरानी से बाहर क्यों
रखा जाय? जिस सबरंग ट्रस्ट की बात यहां की जा रही है, उसका प्रत्यक्ष जुड़ाव
तीस्ता सीतलवाड से है। लिहाजा फोर्ड और तीस्ता सीतलवाड़ के ट्रस्ट के बीच का यह
चंदा कनेक्शन साफ समझा जा सकता है।अब चू्ंकि फोर्ड पर लगाम लगाई जा चुकी है तो
इनसे सहानुभूति रखने वाले गिरोह की परेशानी भी स्वाभाविक है।
यूपीए के समय में फारवर्ड प्रेस नाम की
एक हिंदी-अंग्रेजी पत्रिका भी बेहद संदिग्ध ढंग से उलूल-जुलूल विमर्शों को समय-समय
पर हवा देती रही है।चाहे महिषासुर को मनगढ़ंत ढंग से स्थापित करने की असफल कोशिश का
मामला हो अथवा विलियम कैरी को अगस्त-2011 के अंक में आधुनिक भारत का पिता
बताने की कोशिश हो, ये पत्रिका लगातार ऐसे एजेंडे पर काम करती रही। जिस विलियम कैरी को 'आधुनिक भारत का पिता'
लिखा गया है, उसका योगदान भारत में महज बाइबिल
का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने से ज्यादा कुछ भी नहीं है। विलियम कैरी एक चर्च
के पादरी भी रहे हैं। फारवर्ड प्रेस पत्रिका कांग्रेस-नीत सरकार के दौरान 2009 में शुरू होती है और दिल्ली के एक महंगे इलाके में सहजता से दफ्तर भी मिल
जाता है।2009 से अब तक इस पत्रिका की छपाई एवं कागज आदि की गुणवत्ता में कोई कमी
नहीं आई थी, जबकि सही मायनों में इस पत्रिका के पास विज्ञापन न के बराबर थे। नाममात्र के
विज्ञापनों को छोड़ दें तो यह पूरी पत्रिका बिना विज्ञापन के चल रही थी। इस
पत्रिका से जुड़े ज्यादातर शीर्ष लोग क्रिश्चियन मिशनरीज से जुड़े हैं। लेकिन अब खबर
है कि यह पत्रिका बंद हो रही है। जो पत्रिका संप्रग काल में बेबाक चल रही थी वो
अचानक बंद क्यों हो गयी? आप ही बताईए कि इसे क्या कहा जाए...?
अब समझना आपको आसान होगा कि आखिर क्यों मोदी सरकार बनने के
बाद कुछ सेक्युलरों की छटपटाहट बढ़ गयी है, देश असहिष्णु हो गया।यानि हर तरफ नाटकीयता का ढोंग रचा जा रहा है। सीधी सी बात है कि जो लोग बेरोक-टोक के
विदेशी पैसों पर पल रहे थे अब उन्हें हिसाब देने के लिए कह दिया गया है। चूंकि
हिसाब देने की आदत रही नहीं सो उनसे हिसाब मांगना 'असहिष्णुता' नजर आने लगा।साब
निष्पक्ष जांच तो हो फिर देखिएगा कि कैसे खुद को देश की इकलौती इमानदारी पार्टी से
लेकर आजादी से अब तक देश पर शासन करने वाले लोगों के साथ ही तमाम सरकारी गैर
सरकारी संगठनों का पर्दाफाश होता है....।
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