संदीप कुमार मिश्र: कहते हैं हमारे जीवन
की सभी कलाएं उस कला के लिए है, जिसे हम जीने की कला कहते हैं।और हमारा असल
इम्तहान या यूं कहें कि हमारी असल परीक्षा उस वक्त होती है जब हम अभावों के दौर से
गुजरते हैं।यही वो वक्त होता है जब हमारे स्वभाव में सकारात्मक और नकारात्मक दोनो
तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं।और समाज हमारा मुल्यांकन करता है,कि हमारे भीतर
धैर्य कितना है,सहनशक्ति कितनी है...और क्या हम अभाव में स्वभाव बदल देते हैं।
दरअसल हमारी जिंदगी अधूरी ना हो,पूरी हो,हम सब यही चाहते हैं।स्वाभाविक तौर पर हमें सोचना भी यही चाहिए,और चाहत भी यही होती
है।लेकिन सत्य ये भी है कि ‘हर किसी को मुकम्मल जहां नही मिलता,किसी को जमी तो किसी को आसमा नहीं मिलता’।ऐसे में अभाव इन सभी में हमें शाश्वत
तौर पर मौजूद मिलेगा। अपने अभावों के प्रति हमारा नजरिया और उसके साथ हमारी
तारतम्यता ही तय करती है कि हम जिंदगी को किस तरह से लेते हैं और हमारा जीने का
नजरीया क्या है।
दोस्तों अभाव में कुछ भी बुरा तब तक
नहीं होता जब तक हम अभावों के आगे नतमस्तक होकर नहीं बैठते या फिर आत्मसमर्पण नहीं
करते। दरअसल, अभावों को दूर करने की हमारी कोशिश दूसरे के अभावों को भी समझना है।यकिन मानिए
अभाव हमारे व्यक्तित्व को मांज कर हमें एक परिपूर्ण व्यक्ति बनने में मददगार होता
है। इस बात को हमें कभी नही भूलना चाहिए कि जब हमारे एक अभाव की पूर्ति होती है तो
दूसरे अभाव का जन्म भी हो जाता है। ये सच है कि अभाव हमें मांजता है, निखारता है, जीवन का मर्म और उसका सौंदर्य समझाता है।संघर्ष और हमारे बचपन के दिनों में
मिले अभाव और समस्याएं हमें जिंदगी की जंग जीतने का हौसला देती है।
संसार की सभी सभ्यताओं का विकास भी
अभावों में ही हुआ और हमारे दार्शनिक चिंतक विचारक भी कहते हैं कि अभाव में मिले
अनुभव ही हमें संवेदनशील बनाते हैं और हमें चीजों के प्रति समभाव रखने का नजरिया प्रदान
करते हैं।यकीनन जब हम अभावों में जीना सीख जाते हैं तो हमारे सपनों को पंख लगते र
नहीं लगती। अभावों से उबरना उतना ही जरूरी है, जितना दूसरों के अभावों को दूर
करने की कोशिश करना।और ये तभी संभव है जब अभाव में स्वभाव को बिगड़ने ना दिया जाए।
No comments:
Post a Comment