Tuesday, 8 March 2016

जेएनयू पर सवाल ना उठते तो कितना अच्छा था...लेकिन कैसे?

संदीप कुमार मिश्र: जहां देश का संवरता है भविष्य...जहां से पढ़ लिखकर देश को उन्नती की राह पर ले जाते हैं छात्र...जहां से सियासत का रास्ता भी उतनी ही आसानी से तय किया जाता है जितना देश की सरहद पर खड़े जवान देश की रक्षा करते हैं और देश की एकता अखंडता को बनाए रखने के लिए विधि निर्माण में अपनी भुमिका अदा करते हैं...काश ऐसा होता कि देश के सबसे बड़े प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थान यानि जेएनयू में उठा विवाद वहीं खत्म हो जाता,और संसद से लेकर सड़क तक हंगामा ना होता...ना ही देश की आवाम दो धड़ों में बंटती...ना ही शिक्षा के इस मंदिर को सियासत का मुद्दा बनाया जाता...काश...! लेकिन ये कैसे होता...?
दरअसल ये संभव था....इसके लिए करना सिर्फ इतना था कि जब जेएनयू में देश विरोधी नारे लगे तब ऐसे चंद देशद्रोहियों के खिलाफ पूरा जेएनयू एकजुटता दिखाता।उनके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करते हुए FIRकरता, ना कि सिर्फ निंदा भर।संभव था कि छात्र से लेकर जेएनयू प्रशासन और लेफ्ट, राईट सभी मिलकर इस समस्या का हल करते और पुलिसिया पुछताछ में भरपूर सहयोग करते। तलाश करते मिलकर उन देशद्रोहियों की,जिसने जेएनयू के साथ ही देश का माहौल खराब करने की कोशिश की थी।क्योंकि आजादी के नारे तभी संभव हो पाते,और कहा जाता कि देशद्रोहीयों से आजादी,भारत की एकता अखंडता पर नजर लगाने वालों से आजादी।काश ऐसे नारे लगाते जेएनयू के छात्र
गौर करने वाली बात है कि कुछ ऐसी सोच रही होती तो शायद जेएनयू पर सवाल ना उठते,और  न ही कोई छात्र राइट और ना ही लेफ्ट।क्योंकि जब तक नाम के आगे छात्र जुड़ा होता है तब तक तो विद्यार्थी बने रहना ही उचित होता है। संभव था कि जेल की हवा खाने वाला होनहार छात्र कन्हैया जेल की सलाखों के पीछे ना होता, और न ही सियासत का नया मोहरा बनता। लेकिन अफसोस ऐसा नही हुआ। लेकिन बड़ा सवाल उठता है कि ऐसा नहीं होता तो क्या देश में असहिष्णुता का मुद्दा पैदा होता...? सियासत की मंड़ी में मुद्दे कहां से आते...? राजनीति की दुकानदारी कैसे चलती...
कई दशकों के बाद केंद्र में पुर्ण बहुमत की बीजेपी सरकार के खिलाफ मुद्दे कहां से मिलते...? खासकर तब जब देश विदेश में मोदी सरकार देश की सानदार छवी गढ़ रही है।लेकिन देश का अंतरकलह अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियां बने,और सियासत चमकती रहे...इसके लिए जरुरी था कि ऐसे मुद्दे को तुल दिया जाए...क्योंकि सत्ता का सुख ही ऐसा होता है कि छुट जाने के बाद छटपटाहट तो होती ही है।
 भाव,राग और ताल का देश है भारत।हमारे देश की ताकत ही है कि लोकतंत्र और बोलने की आजादी के नाम पर हर कोई देशभक्ति की परिभाषा अपने लिहाज से गढ़ता है।जो कहीं ना कही मेरे देश की सबसे बढ़ी दुर्बलता भी है जहां देशभक्ति के नाम पर भी आवाम भी दो-धड़ों में बंट जाती है।जरा सोचिए कि 'गो इंडिया गो बैक' और 'भारत तेरे टुकड़े होंगे'’अफजल हम शर्मिंदा हैं,तेरे कातिल जिंदा है जैसे नारों के बावजूद जेएनयू लेफ्ट-राइट में बंट गया।और लड़खड़ाया हुआ देश का चौथा स्तंभ भी दो धड़ों में बंट गया।एक लेफ्ट तो दूजा राइट।
कहना गलत नहीं होगा कि देश की सरकार किसी भी रुप में जब असफलता की ओर बढ़ती है तो विकास की गती मंद पड़ जाती है और देश प्रगति के पथ पर पांच साल पीछे चला जाता है। विकास की बातें तो होती हैं लेकिन काम नहीं करने दिया जाता।जिसके लिए आपसी सामंजस्य बेहद जरुरी होता है।किन्तु...परन्तु में वक्त जाया किया जाता है।लेकिन काम नहीं करने दिया जाता।
अंतत: ये भी मानना जरुरी है कि देश में जेएनयू है....जेएनयू में देश नहीं।शिक्षा के इस मंदिर के लिए जरुरी है कि शांति और सद्भाव से शिक्षा ग्रहण की जाए।और देश की एकता अखंडता को बरकार रखा जाए।खैर,जेएनयू में  जो हुआ वो सही है या गलत, इस पर सबकी अपनी राय हो सकती है।लेकिन देशविरोधी नारे ये देश कतई...किसी भी सुरतेहाल बर्दास्त नहीं करेगा...ये बात देश के सभी अतिबुद्धिजिवियों को भी समझ लेना चाहिए....और उन्हें भी जो लेफ्ट और राइट के फेर में पड़कर अपना भविष्य दांव पर लगा रहे हैं। 

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