Wednesday, 4 November 2015

सहिष्णुता का राग दरबारी...!


संदीप कुमार मिश्र: भारत में चल रहा सहिष्णुता का राग देखना हो तो चुनाव दर चुनाव राग दरबारी देख लिजिए।लेकिन साब सहिष्णुता का वास्तविक अर्थ तो है कि वह अधिकार जिसे आप अपने लिए पाना चाहते हैं वह दूसरों को भी मिले।आप अर्थ जो लगाएं,स्वतंत्र हैं,लेकिन मेरी नजर में यही है।हमारे देश का हर नागरिक जानता है कि सहिष्णुता का विकास और विस्तार हो,क्योंकि इसकी नितांत आवश्यकता है। हमारी सोच और बल देने की जरुरत इस बात पर है कि सहिष्णुता का विस्तार हो,क्योंकि वो हमारी भावनात्मक शक्ति को बढ़ाती है।जब-जब चुनाव की बारी आती है,तब-तब सहिष्णुता की बात होने लगती है,खासकर अब।सवाल उठता है कि संसद से लेकर राष्ट्रपति भवन तक मार्च करने वाले राजनेता,सम्मान लौटाने वाले साहित्यकार,साम्प्रदायिकता का माहौल बनाने वाले नेता,लेखक और अन्य जो भी इस श्रेणी में शामिल हैं।उन सभी महापुरुषों से एक ही सवाल करबद्ध हाथ जोड़कर है कि क्या इससे पहले पहले भी कभी देश में सहिष्णुता खतरे में थी क्या...?और थी तो आपका प्रयास किस रुप में और कितना था।

बात को आगे बढ़ाएं उससे पहले गुगल देव की कृपा से कुछ आंकड़े सामने आए हैं जरा उसे भी देख लें-
तकरीबन 130 लोग 2005 से 2009 के बीच हर साल सांप्रदायिक दंगों में मारे गए थे। सन 2005 से 2009 के बीच देश के 35 में से 24 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश सांप्रदायिक दंगों की आग से प्रभावित रहे।साब इसी दरमयान देश भर के 64 प्रतिशत दंगे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओडिशा में हुए थे। 2012 में सांप्रदायिक दंगों में 93 लोगों की मौतें हुई जिसमें तकरीबन 48 मुस्लिम,और 44 हिंदू भाई के साथ ही एक पुलिसकर्मी भी शहीद हुए। 2013 में 107 लोग सांप्रदायिक दंगों में मारे गए(66 मुस्लिम, 41 हिंदू)। 2014 में 90 लोगों की मौत सांप्रदायिक दंगों के कारण हुई। मई 2015 तक सांप्रदायिक दंगों के कारण 43 लोगों की मौत हुई है।(आंकड़े कुछ ऐसे ही कहते हैं कम या ज्यादा संभव है)

साब विरोध करना बड़ी अच्छी बात है,विरोध होना भी चाहिए,सरकार होती किस लिए है,मनमानी के लिए छोड़े ही,हमारे प्रतिनिधि हैं तो हमारी भावनाओं की इज्जत करना भी आपका ही फर्ज है।लेकिन जिस प्रकार से सम्मान दर सम्मान लौटाया जा रहा है,विरोध किया जा रहा है।उसमें इमानदारी से बताईएगा क्या सियासत की बू नहीं आ रही है आपको।हमारे देश में अभिव्यक्ति की पूरी आजादी है,आप बोलकर,लिखकर,दबाव बनाईए,अपनी नाराजगी जाहिए करिए।और आप तो साब कलम के सिपाही हैं।कहते हैं कि जहां ना पहुंचे रवी,वहां पहुंचे कवी।सवाल उठता है कि क्या सम्मान लौटाने वालों के कलम क स्याही खत्म हो गई है,या फिर कलबर्गी की हत्या से कलम के सिपाही डर गए हैं।अगर ऐसा है तो आप बेशक इस तरह के सस्ते और आसान तरीके अपनाईए।लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो उठो जागो कलम के सिपाहियों,सरकार की नीव हिला दो।सरकार गलत है तो सबके लिए गलत है,आप अपनी कलम से जन जन तक पहुंचाओं ना अपनी बात।माफ किजिएगा लेकिन अगर आप ऐसा नहीं कर पाते हैं तो सर्व धर्म से भरा पूरा ये समाज यही कहेगा कि आप साहित्य और सम्मान का भरपूर राजनीतिकरण कर रहे हैं। क्योंकि लोग तो यही कहेंगे कि सरकार के खिलाफ आपके पास मजबूत तर्क के आभाव में आप सम्मान का अपमान कर रहे हैं।यकिन मानिए हर आमो-खास अब यही चर्चा करने लगा है कि सम्मान वापसी के नाम पर जो नाटक चल रहा है उससे आप सिर्फ मिडिया में सुर्खियां बटोरने का काम कर रहे हो,और हमारी मिडिया भी इतनी महान की टीआरपी के खेल में होड़ लगी पड़ी है कि सबसे पहले कौन खबर दिखाता है कि फलां ने सम्मान लौटाया,सबसे पहले हमारे चैनल पर।।।खैर आपकी पब्लिसिटी तो हो ही रही है ना।।
अफसोस होता है कि किस उम्मीद और आशा से आपको ये सम्मान दिया गया,समाज की कितनी बड़ी जिम्मेदारी आपके कंधे पर है,लेकिन आप हैं कि उस जिम्मेदारी से भागते हुए नजर आ रहे हैं।

आपको शायद इस बात का भान नहीं होगा की आपको कुछ अन्य साहित्यकार दरबारी होने का आरो भी लगा रहे हैं।मेरा नहीं ये उन सम्मानित साहित्यकारों का तर्क है कि इससे पहले भी अनगिनत साम्प्रदायिक दंगे कांग्रेस के शासनकाल में हुए तब आपने सम्मान नहीं लौटाया।अब आपको लगता है कि अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा जा रहा है।साब इस देश में आजादी से लेकर अब तक ना जाने कितने दंगे हुए।दरभंगा,मुजफ्फरपुर,कश्मीरी पंडित,सिख दंगा हम क्यों भूल जाते हैं।और साब जहां वामपंथियों की सरकारें रही हैं वहां पर।जी हां वहां पर भी विरोधी विचारधारा के लोगों की लगातार हत्याएं होती रही हैं चाहे कार्यकर्ताओं की बात हो, लेखकों की हो या फिर पत्रकारों और साहित्यकारों की,सबको प्राण गंवाने पड़े हैं।इसका मतलब ये नहीं है कि आप विरोध ना करें।प्रबल विरोध करें,जमकर विरोध करें।विरोध होना भी चाहिए।अच्छे और नेक कार्य की पुनरावृति समाज में शांति और सदभाव की भावना पैदा करती है लेकिन शांति भंग करने का और समाज को तोड़ने वाली शक्तियों का विरोध होना चाहिए,लेकिन तरीके से।।

अब आप ही सोचिए ना आपने तब तो सम्मान नहीं लौटाया जब इसी साल अगस्त में मेरठ के कुछ गुंडो ने लड़की से छेड़छाड़ करने पर विरोध करने वाले सेना के जवान वेदमित्र चौधरी की हत्या कर दी,आपने जब भी विरोध नहीं किया जब हाजीपुर में मुस्लिम लड़की के विवाद पर हिन्दू युवक की हत्या कर दी गई।कितनी घटनाओं का जिक्र करें साब,शर्मसार तो मानवता होती है ना,खुन किसी का भी बहे,रक्त तो सबका लाला ही होता है,बस सोच ही सियासी होती है। अफसोस तो होता है कि 'साहित्यकारों' ने सम्मान तब क्यों नहीं लौटाया ? आज ही इन महान विभूतियों को इतना आडम्बर करने की कौन सी जरुरत आन पड़ी ?जनता भी बड़े मजे में सम्मान का राजनीतिकरण देख रही है।

एक न्यूज चैनल पर एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो स्पस्ट रुप से नयनतारा सहगल की इमानदारी और नैतिकता पर सवाल खड़े किए।वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी लेखनी से ऐसे तथ्यों को उजागर किया, जिनसे नयनतारा की नैतिकता और राजनीति बेपर्दा हो जाती है।जी हां सवाल तो उठेंगे ही की नयनतारा जी की अंतरआत्मा तब कहां सोयी रही, जब उनके ही नेहरू-गांधी रिश्तेदारों ने प्रधानमंत्री रहते हुए सांप्रदायिक दंगों का समर्थन ही नहीं किया,बल्कि दंगइयों को संरक्षण भी दिया। आपातकाल लागू करके अभिव्यक्ति की आजादी ही नहीं बल्कि मौलिक अधिकार भी छीन लिए गए। सम्मान लौटानेवाले सम्माननियों में अशोक वाजपेयी साब भी है।अब उनके बारे में भी जान लिजिए।जब भोपाल गैस की भीषण त्रासदी हुई तब हजारों लोगों की मौत हुई,उस समय कविवर विश्व कवि सम्मेलन के आयोजन में व्यस्त थे।और लाख विरोध के बाद भी वाजपेयी साब ने ना तो सम्मेलन को रद्द किया और न ही स्थगित।वरन ह्रदय विदारक मौत का उपहास उड़ाते हुए बेहद असंवेदनशील और शर्मनाक बयान दे दिया,उन्होने कहा कि- 'मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता।'
बहरहाल खून किसी का भी बहे, किसी की भी हत्या बर्दाश्त नहीं है। ऐसी घटनाएं शर्मिंदा करती हैं। उससे भी अधिक शर्मिंदगी तब होती है जब इन घटनाओं पर ओछी सियासत हो रही हो।सम्मान लौटाने की हो रही सियासत पर महान प्रगतिशील आलोचक नाववर सिंह जी भी गलत कहते है,फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने तो यहां तक कह दिया कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता हजम नहीं कर पा रहे हैं कुछ लोग।वरिष्ठ पत्रकार और कवि विष्णु खरे ने भी साहित्यकारों को खरी कोटी सुनाई।
गुगल देव से एक और जानकारी जो निकलकर सामने आई वो ये कि सम्मान लौटाने वाले तमाम साहित्यकारों में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जिन्होने 2014 के आम चुनाव से पहले एकमत होकर नरेंद्र मोदी और बीजेपी को हराने के लिए दिनरात एक कर दिया था।अब साब कहां सत्ताधारी विरोध करते,साहित्यकार ही पक्ष और विपक्ष में खड़े हो गए हैं।साहेबान देश आपको पढ़ना और सुनना चाहता है,आपकी लेखनी पर हमें गर्व होता है,पूरे विश्व में आपकी लेखनी का कोई सानी नही हैं,भारत को संसार अब महाशक्ति के रुप में देख रहा है,सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता पर हमारी दावेदारी मजबूत हो रही है।विश्व का सबसे यूवा देश भारत आगे बढ़ रहा है,इसे इतनी आसानी से जाने मत दें,बड़ी तकलीफ होती है।साहेब ये तो गांधी का देश है,अहिंसा के रास्ते पर चलकर वो सब कुछ हासिल किया जा सकता है जो हिंसा से कभी नहीं मिल सकता।और आप तो महान कलम के सिपाही हैं,अपनी लेखनी से उखाड़ फेंकिये उन सांप्रदायिक ताकतों को जो देश को विभाजित करने का ख्वाब देखती हैं।

इस देश की सहिष्णुता तभी कायम होगी जब पक्ष और विपक्ष किसी भी समस्या के समाधान के लिए सार्थक पहल और बहस करेंगे। कम से कम आप जैसे महान बुद्धिजीवि और प्रकांड पंडित सियासत के इस खेल से दूर रहें।क्योंकि सियासत की इस जमात को जनता हर पांच साल में करारा जवाब देती है और देती रहेगी,लेकिन आप सर्वोपरि हैं,श्रेष्ठ हैं,मार्गदर्शक है।ऐसे भी सम्मान का सरोकार सरकार से नहीं होता है।खामखां आप सहिष्णुता का राग दरबारी क्यों बन रहे हैं।




खैर,साथियो मेरे लिखने की शुरुआत है खामियां हो सकती हैं,लेकिन नियत साफ है,सर्व धर्म समभाव और सहिष्णुता की जननी भारत में एकता और शांति बरकरार रहे,यही कामना करता हूं।।।

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