संदीप कुमार मिश्र: 2014 के आम लोकसभा
चुनाव के बाद जिस प्रकार देश की सत्ता पर एक पार्टी को जनता ने पूर्ण प्रचंड बहुमत
देकर सत्ता के शिखर पर बैठाया तो एक बार के लिए ऐसा लगा कि देस की आवाम अब गठबंधन
की राजनीति से उब चुकी है,शायद यही मुख्य वजह है कि सत्ता में बीजेपी की
वापसी।दरअसल विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रीक देश में कुछ भी हलचल अन्तर्राष्ट्रीय
जगत में सुर्खियां बनती है,और मोदी सरकार भी सत्ता पर काबिज होने के बाद खुब
सुर्खीयों में रही और है भी...। ऐसा मानने के पिछे कारण भी थे क्योंकि लोकसभा
चुनाव के बाद कई राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए जहां बीजेपी की ही सरकार बनी।ऐसा
लगा कि सियासत करवट ले रही है और केंद्र के साथ सामंजस्य बना कर ही किसी राज्य का
विकास हो सकता है।तभी देश की सम्मानित जनता ने परिणाम स्वरुप हरियाणा,
महाराष्ट्र,राजस्थान,झारखंड जम्मू-कश्मीर जैसे महत्वपूर्ण राज्यों में बीजेपी की
सरकार बनवायी। लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में जहां बीजेपी लोकसभा चुनाव में लोकसभा
की सातों सीटों पर कब्जा करके बैठी थी उसी दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी
पार्टी ने दो दिग्गज और बड़ी पार्टियों(बीजेपी,कांग्रेस) को ऐसी पटखनी दी की एक
इतिहास रच दिया।हां दिल्ली में किसी भी प्रकार का गठबंधन नहीं था ये जानना भी
दिलचस्प है।
लेकिन जिस प्रकार से सियासी नजरीये से
अपनी बड़ी पहचान रखने वाले प्रदेश बिहार में विधानसभा के चुनावी नतीजे आए,वो कहीं ना कहीं
देश की राजनीति में एक बड़े क्रांतिकारी परिवर्तन का संकेत देते हैं।राजनीति
पंडितों के साथ साथ हर किसी को ये मानने के लिए मजबूर करते हैं कि राजनीति में ना
तो कोई स्थायी दोस्त होता है और ना ही दुश्मन।तभी तो एक दुसरे के कभी धूर विरोधी
रहे नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और कांग्रेस ने एक मंच पर महागठबंधन लाकर सबको चौंका दिया।
किसी ने सोचा भी नहीं था कि मात्र 18
महीने पूर्व जिस बिहार ने भाजपा व उसके एनडीए गठबंधन को लोकसभा की 40 में से 31 सीटों पर शानदार जीत दिलाई थी। उसी बिहार की जनता ने ऐसे करवट
बदली की एनडीए को कहीं का नही छोड़ा। नीतीश कुमार की अगुवाई में महागठबंधन ने
ऐतिहासिक जीत दर्ज की। ये अलग बात है कि इस भारी-भरकम जीत के पीछे ऐसे तो तमाम
कारण-बेकारण रहे हैं, लेकिन बीजेपी विरोधी मतों के बिखराव का रुकना खास कारण माना
जा सकता है।वहीं कहना गलत नहीं होगा कि बिहार के नतीजों से ये साबित होता है कि देश
के समझदार मतदाता हर चुनाव को अलग-अलग नजरिए से देखते हैं,और उसी लिहाज से वोट की
चोट करते हैं।
अब एनडीए के नेता माने या ना माने लेकिन
सच तो यही है कि बिहार की आवाम ने बीजेपी के उस अहंकार को भी चूर किया,जिसमें
बिहार में दो-दो दिवाली मनाने के दावे बढ़-चढ़कर किए जा रहे थे।बिहार दो-दो दिवाली
तो मनाई गई जरुर लेकिन बीजेपी के लिए सियासी दिवाली तो अंधेरे में बीती।खैर चुनाव
में हार जीत लगी रहती है,लेकिन अब आगे क्या होगा।सवाल यही है..।
क्योंकि तकरिबन डेढ़ साल बाद देश के
सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में महासंग्राम होने वाला है।आपको याद होगा कि यूपी
वही प्रदेश हैं जहां पिछले लोकसभा चुनाव में 42 फीसदी वोट लेकर भाजपा गठबंधन ने 80 में से 73 सीटें हासील की थीं।जबकि सपा, बसपा और कांग्रेस 49 फीसदी मत हासिल करने के बावजूद सात सीटें ही जीत सके थे।विपक्ष की इस परकार
की पराजय की उम्मीद किसी भी सियासी पंडित ने नहीं की थी और ना ही किसी महान
विश्लेशक ने।विपक्ष के अलग-अलग चुनाव
लड़ने का फायदा बीजेपी को सानदार रुप या यूं कहें कि 73 सीटों के रुप में मिला।
महागठबंधन का पार्मूला जिस प्रकार से बिहार
में हिट हुआ,उसके बाद से ही कयासों का बाजार गर्म है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा
चुनाव में भी बीजेपी को शिकस्त देने के लिए विरोधी दल यूपी में भी महागठबंधन बनाने
के प्रयास में हैं। उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती का गठजोड़ नदी के दो
किनारों को जोड़ने के समान है, लेकिन जैसा कि मैने पहले भी कहा कि राजनीति में कुछ
भी असंभव नहीं है।कहना गलत नहीं होगा कि विश्व के अन्य देशों की तरह हमारे देश में
दो दलीय राजनीतिक व्यवस्था भले ही पूर्णत: कारगर साबित न होने पाए लेकिन दो मोर्चों के महागठबंधन की राजनीति भी जड़ें अगर
ठीक से जम जाए,और सही तालमेल से सरकार चले तो इसे जनता के लिए एक अच्छी शुरुआत तो
कही ही जा सकती है।
प. बंगाल में ममता दीदी की तृणमूल
कांग्रेस और वामपंथी दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के गलबहींया करने
की संभावना बेशक ना के बराबर हो, लेकिन असंभव कुछ भी नहीं।देश की अवाम ने गैर
कांग्रेसवाद का वो दौर भी देखा है तो अब ताज्जुब नहीं होगा कि गैर भाजपावाद के नाम
पर विरोधी दल एक हो जाएं ।
बहरहाल समय के साथ देश की जरूरतें भी
बदलती जा रही हैं,और जरूरत के साथ राजनीति भी। कभी एक दल की पार्टी की सरकार का
रंग देख चुकी इस देश की आवाम ने गठबंधन की सरकार भी देखी और दशकों बाद बीजेपी के
रुप में एक दल की सरकार भी। आज हमारे सामने ये बड़ा सवाल है,कि देश में या फिर
राज्यों में क्या कोई सर्वमान्य नेता नहीं है।या कोई और कारण है, जिसकी वजह से देश में मिलीजुली सरकार ही चल सकती है।सवाल ये भी है कि कहीं
जातीवाद की जड़ें खत्म होने की बजाय हमारे
समाज में और फैलती तो नहीं जा रही है,कि राष्ट्रीय मुद्धे गौंड़ होते जा
रहे है,और व्यक्तिगत मुद्धे हावी होते जा रहे है या फिर हम सियासी जातिगत मुद्दों
को ज्यादा प्रमुखता देने में सत्ता पर बने रहने का सटीक माध्यम मानते है।
अंतत: आने वाले समय में देखना दिलचस्प होगा कि बिहार के बाद अगर देश के अन्य
राज्यों के चुनाव में और गठबंधन,महागठबंधन बनते हैं, तो देश की सम्मानित जनता उसे
किस रुप में लेती है, और ये सिलसिला कब तक चलता है। क्या हमारे सियासी सूरमा क्षेत्रवाद, जातिवाद, व्यक्तिवाद की राजनीति से उपर उठकर राष्ट्रवाद और मानवता के प्रति सचेत हो गए
हैं...?
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