संदीप कुमार मिश्र: बिहार चुनाव संपन्न
हो गया...महागठबंधन की सरकार बन गयी।माहौल शांत हुआ।शोरशराबा थम गया। केंद्रीय टीम
भी वापस दिल्ली आ गयी। अब आगामी अन्य राज्यों के होने वाले चुनाव में थोड़ा वक्त
है।आप उम्मीद कर सकते हैं कि कुछ दिन बयानो का दौर शायद थमा रहेगा।लेकिन 26 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हो गया ।सन 1949 में 26 नवम्बर के दिन ही हमारे देश में संविधान को क्रियान्वित किया गया था।18
महिने पहले मई 2014 में लोकसभा में शानदार बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार द्वारा
जमीनी तौर पर ऐसा कोई भी कार्य देखने को नही मिला जिसे अच्छे दिन का संकेत माना
जाए।जनहीत के तमाम महत्वपूर्ण बिल जैसे जीएसटी, भूमि बिल को अब भी संसद से हरी
झंडी का इंतजार हैं।
दरअसल जिस प्रकार से संसद में हो हंगाम
होता आ रहा है और नेताओं की जिसप्रकार से प्रतिक्रियाएं देकने को मिल रही है,उसे
देखकर तो यही लगता है कि जैसे तमाम महत्वपुर्ण विधेयकों को शीत सत्र में भी पास
कराने में भी सरकार को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। दरअसल मोदी सरकार के लिए एक बड़ी
अड़चन राज्यसभा में बहुमत ना होना भी है।जिसकी वजह से निकट भविष्य में मुश्किलें
खड़ी होती नजर आ रही है।
सत्र के शुरुआती दो दिन तो संविधान रचयिता
बाबा साहेब अंबेडकर के सम्मान में निकल गया,संसद में प्रधानमंत्री ने आइडिया आफ
इंडिया पर जोरदार और शानदार भाषण दिया। जिसपर विपक्ष ने भी शांति का सहयोग दिया।जिसे
देखकर उम्मीद लगाया जा सकता है कि संसद चल सकती है।क्योंकि प्रधानमंत्री ने चाय पर
पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांदी से मुलाकात की।ऐसे में एक
बार लगा कि संसद चल सकती है,लेकिन मोटे तौर पर देखा जाए तो इस वक्त लोकसभा में
करीब आठ और राज्यसभा 11 विधेयक लंबित पड़े हैं। पिछले मॉनसून सत्र में तमाम नियम-कायदों को माखौल
उड़ते हम संसद में देख चुके हैं।अब आप जरा गौर करें तो पिछला सत्र तो ललित मोदी
प्रकरण, व्यापम घोटाला और विवादित बयानों पर तकरार के चलते जनता के 250 करोड़ रुपये की बली चढ़ गया।जिसके बाद अब शीतकालीन सत्र में कामकाज ठीक ढ़ंग
से चल पाएगा उम्मीद कम ही नजर आ रही है।
दरअसल शीत सत्र में भी 'असहिष्णुता' को लेकर विपक्ष संसद में हंगामा कर सकता है। कहना गलत नहीं होगा कि संसद के शीत
सत्र में भी गरमी का एहसास देखने को मिले।एक बार फिर वही शोर मचाते नेता जी, कागज फाड़ते और तख्तियां लहराते सांसदगण, बात-बात पर इस्तीफे की मांग करती दूर्भाग्यपूर्ण
आवाजें।माना कि इस्तीफे की मांग करने में कोई बुराई नहीं।क्योंकि हमारे भारतीय लोकतंत्र की
यही खूबसूरती है कि विपक्ष अपनी आवाज मजबूती से उठा सकता है।लेकिन क्या कभी
नैतिकता के आधार पर इस्तीफा हुआ है इस देश में।शायद ऐसे उदाहरण कम ही आपको देखने
को मिलेंगे।
अब जिस तरह से बिहार में चुनाव हुए और
महागठबंधन की ऐतिहासिक जीत हुई और बीजेपी को मिली करारी हार। उससे कहीं ना कहीं विपक्ष
के हौंसले बुलंद हैं।ऐसे में जिस प्रकार से राहुल गांधी लगातार एक के बाद एक हमले सरकार पर
कर रहे हैं,उससे संसद में गरमी बढ़ने के आसार ज्यादा ही लगते हैं। सवाल उठता है कि
क्या विपक्ष की ही जिम्मेदारी है कि सदन की गरिमा भंग ना हो,क्या जरुरू नहीं कि
सत्ता पक्ष भी मनसा वाचा कर्मणा विपक्ष की भावनाओं को नजरअंदाज ना करते हुए जनहित
का ख्याल करे।क्योंकि संसद लोकतंत्र का मंदिर है और मंदिर में किसी भी अपद्रव्य को
आने की जरुरत नहीं है लेकिन अफसोस कि हमाओं के झोंके किसी एक के लिए नहीं होते और
उस लहर में हर कोई पार उतर जाता है,शायद कुछ ऐसा ही हुआ 2014 लोकसभा चुनाव में
भी।और ऐसी नापाक जुबान के धनी पक्ष और विपक्ष दोनो दलों में है जो कहते तो खुद को
जनप्रतिनिधि हैं लेकिन लगता है कि मानवता के सबसे बड़े शत्रु वही हैं।
अंतत: देश की जनता को उम्मीद और इंतजार है विकास का,वहीं किसानों को इंतजार
है कृषि संबंधी मसलों के समाधान का,साथ ही जिस युवा शक्ति के
नाम पर मोदी जी देश को महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर लगातार बताते रहते हैं उसे
इंतजार है ऐसी सम्मानजनक नौकरी का; जिसका वेतन किसी को बताते समय यूवाओं
को शर्म महसूस ना हो।उम्मीद ही नहीं आशा और विश्वास भी है कि माननीय प्रधानमंत्री
श्री नरेंद्र मोदी जी स्वच्छ भारत अभियान की नई शुरुआत खुद की पार्टी से ही
करेंगे,साथ ही विपक्षी दिग्गज भी अपने बुरे दिनो को ध्यान में रखते हुए जनहीत का ख्याल
रखेंगे और तमाम जनहित के महत्वपूर्ण बिल संसद में पेश करने में सहयोग करेंगे।वरना
जनता तो तैयार ही है शीत सत्र में गर्मी का एहसास करने के लिए।
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