संदीप कुमार मिश्रा: बाल दिवस हमारे देश
में बड़े ही धुमधाम से मनाया जाता है,बड़ी अत्छी बात भी है लेकिन क्या वास्तम में
आज हम बचपन को संवारने का काम कर पा रहे हैं,क्योंकि आज भी कहीं ना कही लगता है कि
देश का आधा बचपन तो भूखा सो रहा है।अच्छी शिक्षा को कौन कहे,दो वक्त की रोटी का
जुगाड़ करने में देश का आधा से अधिक बचपन नंगे सो रहा है।क्या उन आधे बच्चों का जो
स्कूल के अपने लंच बॉक्स में फॉस्ट फूड लेकर जाते हैं और जिनके लिए बाल दिवस पर चाचा
नेहरू के विचारों को रट्टा मारकर और स्कूल में होने वाले कार्यक्रमो में बोलना सिखाया
जाता है उनसे बचपन संवर रहा है। या फिर आज का बचपन विभाजन की ओर बढ़
रहा है ।दरअसल बचपन को बांटना इसलिए मुश्किल है क्यूंकि बचपन का ना तो कोई धर्म होता
है और ना ही कोई मजहब।
मित्रों बाल दिवस जब भी आता है वही साल
दर साल पूछे जाने वाले सवाल फिर से हमारे जहन में घुमने लगते हैं।हर बाल दिवस देश
की एक भयावह तस्वीर लेकर हाजिर होता है। पुराने आंकड़े अधिक डरावने होते जाते हैं,और
बचपन को बांटने वाली खाईआं और चौड़ी होती जाती हैं। आप महसुस कर सकते हैं कि कैसे हमारे
देश में शहरी, ग्रामीण और अमीर-गरीब की विभाजक रेखा ने बच्चों और बचपन के दो हिस्से कर दिए
हैं।बचपन का पहला तबका वो हैं, जो सुबह तैयार होकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिए रवाना होते हैं, तो दूसरी कतार में वे हैं, जिनको सुबह से ही दोपहर की एक अदद रोटी की तलाश में निकलना होता है। इनकी
थालियों में कौन कहे हथेलियों से रोटियां दूर हैं। उनके शरीर से पोषण गायब है।ऐसे
में आप कह सकते हैं कि बाल दिवस का बचपन का दूसरे तबके में
बच्चों के लिए कोई खास महत्व नहीं है। शायद तभी कभी कभी बाल दिवस बेमानी सा लगने लगता
है।
अब जरा देश के आधे बचपन यानी भुखे बचपन के बारे में भी जान
लें,जिनके लिए बाल दिवस का मतलब सिर्फ और सिर्फ दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना और
कमर तोड़ मेहनत ही है।मित्रों आजादी की अढ़सठ दशक
बाद भी जहां विकास की बातें लगातार होती हैं इक्कीसवीं सदी में सबका साथ सबका
विकास की बात हम करते हैं,डीजिटल भारत की बात करते हैं।लेकिन जब नजर झुग्गियो और
असंगठित श्रमिकों के बच्चों के रहन- सहन पर जाती है तो लगता है कि बदलाव और विकास
की बात सब बकवास है,छलावा है। ढाबों और घरों में काम कर रहे “छोटू” हों या कॉलोनियों के बाहर पड़े कूडेदानों में जूठन तलाशते और पन्नी बटोरते
बच्चे। हमारी सियासतें और हम ये भूल जाते हैं कि इस बचपन की संख्या करोड़ों में
है।जो मां-बाप के प्यार से वंचित है।हर प्रकार के सरकारी सहयोग और आराम की छांव से
दूर इन बहिष्कृत बच्चों को ना तो दो वक्त की रोटी नसीब होती है और ना ही कोई चाचा
नेहरू।ऐसे में आप बताएं कि किसका बाल दिवस और कैसा बाल दिवस? क्या आपको ऐसा नहीं
लगता कि बाल दिवस अमीर और गरीब की खाई को और बढ़ा रहा है...?
अंतराराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट
में दुनियाभर में बालश्रमिकों की संख्या 24.6 करोड़ बताई गई है और भारत में यह
आंकड़ा जो 2001 में 1.25 था वही 2011 में बढ़कर करीब दो करोड़ तक जा पहुंचा है,2015 के आंकड़े का आप अंदाजा लगा सकते हैं।इन आंकड़ों के
लिहाज से कई बच्चे तो पूर्णकालिक मजदूर हैं। ऐसे
बच्चों के हिस्से में अब भविष्य के सपनों और किताबों की जगह कुछ है तो जीतोड़
मेहनत करना, जुठा और बचा-खुचा खाना और मेहनत से कहीं कम तनख्वाह पाना। मालिकों की प्रतड़ना, उनकी हवस, यौन कुंठाओं की तृप्ति देश के करोड़ों बच्चों की तकदीर है।दोस्तों राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट तो और भी डराने वाली है। यह रिपोर्ट बताती है कि देश
में हर वर्ष 44 हजार बच्चे गायब हो जाते हैं। बच्चों के गायब होने की अगली कड़ी में आते हैं, निठारी कांड जैसे सच ! इतना ही नहीं आंकड़ों की बात करें तो तमाम बच्चे ऐसे
हैं जो किसी न किसी रूप में यौन शोषण का शिकार हो रहे हैं।बच्चों के यौन शोषण के
खतरे जितने तंग बस्तियों में हैं, उससे अधिक कहीं आलीशान इमारतों, बंगलों में हैं और ये हालिया कई घटनाओं से पुष्ट भी हो चुका है।
देश के इन आधे बचपन के हिस्से में सुरक्षा
की बात तो दूर शिक्षा भी नसीब नहीं है। आज भले ही सरकारें,सियासते, हम और आप, जागरूक अख़बार या वास्तविक स्वयंसेवी संगठन कितना ही गला क्यूँ ना फाड़ते रहें।
लेकिन हक़ीक़त यही है कि पूरे देश में दीपावली पर हजारों लाखों की संख्या में दीपक
तो जलाए जाते हैं लेकिन देश के बचपन के सामने अंधियारा ही रहता है ।जरा कल्पना
किजिए जिस देश का बचपन हाशिये पर जा रहा हो वहां हम बाल दिवस की कल्पना कैसे कर
सकते हैं।आज देश में बचपन हाशिये पर है, इसीलिए बाल दिवस को केवल नेहरू जी के
इर्द-गिर्द तक ही ना सीमित कर देना चाहिए बल्कि बाल दिवस में श्रद्धांजलि दी जानी
चाहिए बिहार के मसरख के धर्मासति गांव के उन सभी बच्चों को भी जो किसी मिड डे मील
का शिकार हो गए, उन सभी हवेलियों में काम करने वाले बच्चों को भी जिनकी गुमशुदगी दर्ज कराये 5 साल से ऊपर हो चुका है और और उन सभी बच्चोँ को भी जो किसी भ्रूण हत्या का
शिकार हो गए। क्यूंकि इस ‘आधे बच्चों के दिवस’ को घसीट कर हमें पूरे बच्चों तक ले ही जाना होगा।तभी बाल दिवस सार्थक होगा और
देश का भविष्य उज्वल होगा।
पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तीन नवंबर 1949 को बच्चों के नाम एक पत्र लिखा जिसकी चंद पंक्तियां आप भी पढ़ें- ”हम अपने कार्यालय में
बैठकर यह कल्पना करते हैं कि हम दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।
लेकिन ऐसा नहीं है। मैं उम्मीद करता हूं कि आप अधिक समझदारी का परिचय देंगे और इस
सुंदर धरती और जीवन के बारे में अपनी आंख और कान खोले रखेंगे। जब हम छोटे होते हैं
तब एक दूसरे के साथ बिना भेदभाव और संकीर्ण भावना के खेदकूद में व्यस्त रहते हैं।
लेकिन उम्र बढऩे के साथ जातपात, क्षेत्रवाद, रंग रूप, वेशभूषा, भाषा, रीति रिवाज अमीर गरीब जैसी संकीर्ण भावना हावी होती जाती है। हमें ऐसी बुराई
को अपने उपर हावी नहीं होने देना है।”
अंतत: हम सब को सोचना पड़ेगा की क्या वास्तव में
पंड़ित जवाहर लाल नेहरु के इन कथनो को हम सार्थक कर पा रहे हैं,क्या बच्चों को
न्याय संगत शिक्षा से जोड़ पा रहे हैं,क्या उस भूखे बचपन का ख्याल हमारे मन में एक
पल के लिए भी आता है जो सड़को पर,गोदामों में,ट्रैफिक सिग्नल पर,और भी ना जाने
कहां कहां किस दयनिय रुप में हमें नजर आता है। की सरकारों को भी नीति और नियम में
बदलाव करना होगा,और आंकड़ों से परे धरातल पर उस हकीकत से वाकीफ होना होगा जहां
बचपन उस अंधेरे में हैं जहां प्रकाश की किरणें पहुंत तो सकती हैं लेकिन कोशिश
बेहतर दिशा में होगा।मित्रों बाल दिवस पर इतना ही कहुंगा कि बचपन को संवरने दें...खिलने
दें...पढ़ने दें...पढ़ाने दें...बचपन को जाने-पहचाने,बचपन को देश का उज्वल भविष्य
बना दें...चाचा नेहरु को दें सच्ची श्रद्धांजली, कलियों को मुस्काने दें...।
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