दोस्तों निर्भया के
साथ हुई दरिंदगी की आज तीसरी बरसी है,निर्भया तो अब इस दुनिया में नहीं है लेकि
क्या उसके बलिदान के बाद कुछ बदला है इस देश में।आप कहेंगे नही...जी हां कुछ नहीं
बदला।ना जाने और कितनी निर्भया यूं ही अपनी अस्मत गंवाती रहेंगी,जरा सोचिए कि
निर्भया जहां कहीं भी है क्या सोच रही होगी...?
शायद कुछ ऐसा ही कि.....जब कभी आप खुलकर हंसोंगे तो मेरे परिवार
को भी याद कर लेना। जिनकी
हंसी पर अब ग्रहण लग गया है।जब आप शाम को अपने घर लौटें और अपने अपनों को इंतजार करते हुए देखें तो मेरे परिवार को याद कर लेना।मेरे पापा मम्मी और मेरे भाई सब परेशान
होंगे।उनके
ज़ख्मों पर ज़रा मरहम लगा देना।
दरअसल मित्रों मनहूसियत की वो रात मानवता के कलेजे पर एक चुभे हुए खंज़र के
दर्द सी हमेशा चुभती रहेगी। मानवीयता के दामन पर एक काले धब्बे की तरह हमें हमेशा मुंह
चिढ़ाती रहेगी।ना ही वो दर्द भूलाया जा सकता है और ना ही वो रात और ना ही देश के
माथे पर लगे उस कलंक को।जिस देस में कहा जाता है कि 'यस्य पूज्यंते नार्यस्तु
तत्र रमन्ते देवता: (भावार्थ- जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते
हैं।)।हम
तो बस हर 16 दिसंबर को मातम मना सकते हैं,कैंडल जला सकते हैं।मातम उस कड़वी हकिकत
और व्यवस्था का भी जो उस जुर्म का गवाह बना और जिसके सामने 16 दिसंबर और उसके बाद न जाने कितनी निर्भया की अस्मत
तार तार हो रही है ।
मित्रों जरा कल्पना किजिए 16 दिसंबर 2012 से आज तक कुछ बदला क्या...?औरतों के मन में जो भय था वो कम
हुआ क्या..?क्या
अब लड़कियां औरते खुलकर दिल्ली और देश की सड़को पर धुमफिर पा रही हैं क्या..? क्या इस देश के मां-बाप
की अपने बच्चों के प्कति चिंता कम हुई..?ऐसे ना जाने कितने सवाल होंगे जो आपने ज़हन में धूम रहे
होंगे...।ये वो डर और आशंकाएं हैं जो शाम ढ़लते ही उन मां-बाप को घेर लेती हैं,
जिनकी बेटियां घरों से बाहर निकलती हैं, पढ़ती हैं, काम करती हैं।तब से लेकर
आज तक न तो माहौल बदला और ना ही आंकड़े।
सच कहूं आपसे तो निर्भया के रोने की आवाज़ का एहसास जैसे ही होता है।ना जाने एक अजीब से दर्द से रूह तक कांप
जाती है।ऐसी दरिंदगी और बेशर्मी की दास्तां की अब
तो हद हो चुकी है।क्या इन हवस के भूखे भेंड़ियों को ज़रा
सा भी एहसास नही कि तुम्हें जन्म देने वाली भी एक मां है,जो जननी है,किसी की बेटी और बहन भी है।फिर कैसे तुम हवस की आग में इतने अंधे हो
सकते हो कि तुम्हें तरस नहीं आया।बड़ा अफसोस होता
है कि हमारे देश में आज भी ना जाने कितनी ही निर्भया हैवानों की हवस का शिकार हो
जाती है और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते हैं।प्रशासन के सुरक्षा के दावों की पोल खुलती रहती है।सियासत तेज हो जाती है।आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहता है।लेकिन निष्कर्ष क्या निकलता है।ये किसी से छुपा नहीं है। 16 दिसम्बर जैसी घटनाएं हमारे समाज में लगातार हो रही है और मानवता के शर्मसार होने का सिलसिला बदस्तूर जारी
है।
आप आंकड़ों पर गौर करेंगे तो कहानी कुछ और ही बयां करती है। जस्टिस कमेटी की रिपोर्ट
के अनुसार राजधानी दिल्ली में 2012 के मुकाबले आगे के
सालों में रेप के मामले बढ़े हैं।
वहीं NCRB
के आंकड़ों के अनुसार-
साल 2012 में जहां बलात्कार के 585 मामले दर्ज किए गए
2013 में ये संख्या बढ़कर 1441 हो गई
साल 2014 में ये आंकड़ा 1813 पर रहा
जबकि 2015 में नाबालिग बच्चियों
के साथ बलात्कार के मसले ने तो सबको हिला कर रख दिया। सबसे मजे की बात तो ये रही
कि बलात्कार मामले में चाहे केंद्र की सरकार हो या फिर राज्य की हर कोई पल्ला
झाड़ते ही नजर आया।कहना गलत नहीं होगा कि निर्भया कांड के तीन साल बीत जाने के बाद
भी हालात जस के तस हैं।दोस्तों क्या ये सही नहीं है कि हमारे देश में बलात्कार के बढ़ते
मामलों अक्सर लचर कानून और सज़ा में सुस्ती की वजह से हो रहे हैं।औसे में अगर
निर्भया जैसे चौतरफ़ा चर्चित मामले में भी इंसाफ का इंतज़ार लंबा होता जाएगा तो उन
असंख्य दूसरे मसलों में त्वरित न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है। जो न
टीवी-अखबारों में जगह बना पाते हैं,
और न जिनकी
हमें भनक लगती है। आज भी निर्भया के माता-पिता बुझी आंखों से हर रोज़ बेटी के
इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। लेकिन जो हो रहा है वो किसी मज़ाक से कम नहीं लगता है।
रेप और हत्या के नाबालिग आरोपी की सज़ा ख़त्म हो गई है, और उसे रिहा किये जाने की
कार्यवाही हो रही है।यहां तक की रिहाई के लिए 20 दिसंबर की तारीख भी तय कर दी गई है। हालांकि रिहाई के विरोध में दायर की गई
याचिका की सुनवाई में केन्द्र सरकार ने उसे कुछ और दिन बाल सुधार गृह में ही रखने
की अपील की है।
अंतत:निर्भया के माता पिता ने एक इंटरव्यू में यहां तक कह दिया कि हम हार गए अब
इंसाफ़ की कोई उम्मीद नहीं है।जरा सोचिए अगर वाकई निर्भया के माता-पिता खुद को हारा
हुआ महसूस कर रहे हैं तो ये हार सिर्फ उनकी नहीं हो सकती। ये हार हम सबकी होगी जो
उसी समाज का हिस्सा हैं जहां कुत्सित मानसिकता फलती-फूलती है।उस व्यवस्था की हार
है जहां डर अपराधियों के नहीं बल्कि आम लोगों के ज़हन में होता है।सोचना तो पड़ेगा
साब कि बेहतर देश और बेहतर दुनिया के निर्माण में योगदान देने के जो रास्ते हमारे
सामने हैं। क्या उसमें से एक रास्ता भी हमने अख्तियार किया है? अगर नहीं तो शुरूआत कब होगी..? अब तो बहुत हो चुका,हद हो चुकी है।आखिर कब तक हर रोज एक और निर्भया यूं ही हवस का शिकार बनती रहेगी और कब
तक कैंडल मार्च और सड़कों पर विरोध प्रदर्शन का सिलसिला चलता रहेगा...आखिर कब
तक...?
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