हम आह भी भरते हैं तो हो जाते बदनाम,
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती
संदीप कुमार मिश्र: दोस्तों आज मिर्जा
ग़ालिब साहब का जन्म दिन है।याद तो होंगे ही आपको गालिब साब..।हर जबां दिलों की
धड़कन,गज़ल गायकों की ज़ुबान हैं गालिब साब।पेरम की उनुठी मिसाल हैं गालिब साब।और
क्या कहें जनाब गालिब साब तो बेमिसाल हैं। अब इसे खुदा का शुक्र कहें,या फिर मान
लें कि इस दुनिया में कोई ऐसा शायर आया जिसने अपने अल्फ़ाज सें दबी नस्लों में
रूहानियत का इक़राम पैदा कर दिया। जिसकी उम्र महज़ 11 साल लेकिन फारसी और
उर्दू में पकड़ ऐसी मानों हर बात पर ख़ुद ख़ुदा ही तस्दीक़ कर रहा हो।
दरअसल गालिब साब की शेरो-शायरी की पूरी दुनिया
क़ायल है। उर्दू शायरी को जनाब गालिब साब ने ऐसा क्लासिकी मुक़ाम दिया कि उर्दू
अदब को उन पर नाज़ है। उनका अन्दाज़ें बयां हर आमो-ख़ास को पसन्द है।वे अपने आप
में बेमिसाल हैं।जी हां ऐसे ही थे शायरे आज़म जनाब मिर्जा ग़ालिब साहब।
असद' उस जफ़ा पर बुतों से वफ़ा की, मिरे शेर शाबाश रहमत खुदा की
दोस्तों कहते हैं कि इतिहास वही बनाते हैं, जो दुनिया की सारी सीमाओं को तोड़कर, जज़्बातो के बवंडर से नई सूरत तैयार करते
हैं।ऐसी शख्सियतें खुद अपनी सोच के जादू से एक अलग दुनिया रचते हैं।ऐसा शख्स जिसने
प्रेम और दर्शन के नए पैमाने तय किए, पर जिसकी जिंदगी खुद
ही वक्त और किस्मत के थपेड़ों से लड़ती रही, लेकिन थकी नहीं।गालिब
की कलम ने दिल की हर सतह को छुआ, किसी भी मोड़ पर कतराकर नहीं
निकले।जिंदगी ने उनकी राह में कांटे ही बोए लेकिन मिर्जा गालिब उनका जवाब अपने
लफ्जों के गुलों से देते रहे। गालिब के शेर शब्दों के हुजूम नहीं बल्कि जज्बातों
की नक्काशी से बनी मुकम्मल शक्ल है।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या
है...तुम्ही कहो कि ये अन्दाज़े ग़ुफ्तगूं
क्या है।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं
क़ायल...जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।।
कहते हैं कि उन दिनों ग़ालिब के बारे में दो
बातें बहुत मशहूर हुआ करती थीं,जिसकी अक्सर चर्चा होती।एक तो वे फ़लसफी शायर थें,दूसरे
उनके कलाम बहुत मुश्किल होते थें। मुशायरों, जलसों व महफ़िलों
में इनकी मुश्किलगोई के चर्चे आम थे।लोग कहतें कि ‘अच्छा तो कहते हैं
पर भई बहुत मुश्किल कहते हैं’।
मिर्ज़ा असद्दुल्लाह खां, जिन्हें सारी दुनिया
मिर्जा 'ग़ालिब' के नाम से जानती है।
उनका जन्म 27 दिसम्बर सन् 1797 ई. उनके ननिहाल आगरा के कालामहल में हुआ था। मिर्जा गालिब जब महज़ 5 वर्ष के थे तब उनके वालिद एक लड़ाई में शहीद हो गए।वालिद का साया सर से उठने
के बाद चचा नसीरुल्लाह बेग़ खान ने इनका पालन पोषण किया।ग़ालिब के बचपन में अभी और
दुःख शामिल होने थे।जब वे 9 साल के थे तब चचा जान भी
दुनिया से अलविदा कह गये।मिर्ज़ा तेरह वर्ष के हुए तो उनकी शादी 09 अगस्त 1890 को लोहारू के नवाब अहमद बख्श खां के छोटे भाई मिर्जा
इलाही बख्श ‘मारूफ’ की लड़की उमराव बेगम
से हुई।उस वक्त उमराव बेंगम की उम्र केवल 11 वर्ष की थी।गालिब
के सात बच्चे भी हुए,पर अफ़सोस की एक के बाद एक उन पर बिजली गिरती चली गई।सातों
बच्चे अल्लाह को प्यारे होते गये। मित्रों मिर्जा साब की निजी जिंदगी सचमुच में दर्द
की एक लम्बी दास्तां थी।
दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यों,
रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए
क्यों.
आगरा शहर को छोड़ना और दिल्ली में बसने के दौर ने
ग़ालिब के जीवन में काफी बदलाव ला दिया दिल्ली में उन दिनों शायराना माहौल था।रोज़ाना
महफिलें गुलज़ार होतीं और मुशायरों का दौर चलता था।ग़ालिब का भी उन मुशायरों में
जाना होता था।वे दिन-ब-दिन दिल्ली की रंगीन महफिलों में ढ़लने लगे। ग़ालिब साहब बहुत
जल्द शोहरत की बुलंदियों पर पहुंच गये।उन्होने उर्दू शायरी को एक नया आयाम दिया।वे
उर्दू शायरी को तंग गलियारों,हुस्न और इश्क,गुलो और बुलबुल में न घुट कर शायरी को
नई पहचान दी।बल्कि ग़ालिब साहब के शेरों में दर्शन का झलक मिलने लगी।वे सूफी ही
नहीं,उनका यह शेर काबिले – गौर है-
ये मसायले तसव्वुफ ये तेरा बयान ग़ालिब,
तुझे हम वली समझते जो न बादाखार होता।
हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे।
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और।।
आज जानकर हैरान हो जाएंगे कि गालिब साहब का
स्वभाव बेहद खर्चिला और उदार था।जिसके चलते अक्सर वे तंगहाल रहते।यहां तक की
कभी-कभी पास में फूटी कौडी न होती।कहते हैं कि एक बार उधार की शराब पी कर पैसा न
देने पर इन पर मुकदमा चला। मुकदमा मुफ्ती सदरूद्दीन की अदालत में था। आरोप सुनकर
इन्होने सिर्फ एक शेर सुनाया-
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन
इतना सुनते ही मुफ्ती साहब ने अपने पास से रूपये
निकाल कर दिये और ग़ालिब को जाने दिया। साथियों गालिब साब खुद को नास्तिक मानते थे
और कहते भी थे कि- -
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को ग़ालिब ये ख्याल
अच्छा है।
ग़ालिब का दाम्पत्य जीवन कभी सुखी नहीं रहा,वह
दुःख की एक लम्बी कहानी है जिसमें नायक व नयिका वेदनाओं का बोझ ढ़ोते हुए जिन्दगी
पूरा करते हैं।उमराव का अहंकार एक तरफ और ग़ालिब का अहंकार दूसरी तरफ।टकराव बढ़ता गया
और दोनों कटते गये।यही कारण था कि घर में दिल की छाया न पाने की वजह से ग़ालिब एक
गायिका से दिल लगा बैठे और वह भी इनसे प्यार करने लगी।क्योंकि प्यार की कोई उम्र
नहीं होती कोई सीमा नहीं होती।प्यार तो महज़ एक इत्तफाक है जो किया नहीं जाता हो
जाता है।जैसा कि गालिब साहब को हो गया।लगातार कई वर्षों तक ग़ालिब का प्यार परवान
चढ़ता रहा। अचानक उनका प्यार एक दिन इस दुनिया से गालिब साहब को अलविदा कह गया,और
छोड़ गया उनके पास सिर्फ यादें औऱ गम के साये।जिससे ग़ालिब पूरी तरह से टूट गये।उनकी
याद में दिल ने जो कहा गालिब साहब की कलम लिखने को मजबूर हो गयी-
तेरे दिल में गर न था आषो-बे-गम का हौसला,
तू ने फिर क्यों की थी गम गुसारी हाय-हाय।
उम्र भर का तू ने पैमाने वफा बाँधा तो क्या,
उम्र भर नहीं है पायदारी हाय-हाय।।
ज़िन्दगी की तल्ख़ियों और मुसीबतों को
झेलते-झेलते ग़ालिब साहब इतने सख्त हो गये कि ग़म उन्हे हिला न सका।वे बेहद
स्वाभिमानी स्वभाव के शख्स थे।कभी-कभी बेहिसाब मुसिबतों का सामना करना पड़ता और कभी
हालात उनपर हाबी होने लगता।लेकिन उन्होने स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया।
सन् 1852 ई. में दिल्ली कालेज में फारसी का अध्यापक बनाने का प्रस्ताव भेजकर टामसन ने
ग़ालिब साहब को अपने बंगले पर मिलने को बुलवाया।टामसन ने कुछ ऐसी बात कही कि ग़ालिब
साहब के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा। और उन्होने नौकरी करने से इन्कार कर दिया। मुश्किलों
से लड़ते-लड़ते एक दिन उन्हें लिखना ही पड़ा-
मुश्किलें मुझपर पड़ी इतना की आसां हो गर्यीं
तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर खुद एक
शायर थे,और उनके हुकूमत में शायरों का कद्र था। सो उन्होने ग़ालिब साहब की मुफलिसी
पर तरस खाकर उन्हे तैमूर खानदान का इतिहास फारसी में लिखने का काम सौंप दिया।इसी
बीच ज़फर साहब के उस्ताद ज़ौक का इन्तकाल हो गया और वे अपना कलाम ग़ालिब को दिखाते।
इसपर ग़ालिब ने एक दिन कहा-
हुआ है शाह का मुसाहिब फिरा है इतराता,
ग़ालिब साहब पर जफर का बहुत करम था शायद इसीलिए
वे अक्सर उनकी शान में कसीदे पढ़ते रहते।
ग़ालिब वजीफाख्वार हो दो शाह को दुआ,वो दिन गये कि कहते थे कि नौकर नहीं हूँ
मैं।
लोग बदले, निजाम बदला...। अगर कुछ नहीं बदला तो
मिर्जा गालिब की तकदीर। जी हां निजाम बदलते ही बहादुर शाह ज़फर को कैद कर रंगून
भेज दिया गया। साथ ही ग़ालिब की पेंशन भी रोक दी गयी। इन्होने सोचा कि शान्ति होने
पर पेंशन चालू होगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।इसके बाद ग़ालिब ने चापलूसी वाला रास्ता
अख्तियार किया और महारानी विक्टोरिया के शान में कसीदे गढ़ कर दिल्ली के अधिकारीयो
के जरिये भिजवाया।फिर भी बात न बनी और 17 मार्च 1857 को दिल्ली के कमिश्नर ने यह लिख कर वापस कर दिया कि इसमें कोरी प्रशंसा है।हालात
दिन-ब-दिन दुष्वार होते गये।यहां तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे।जब
गरीबी से गाविब साब काफी निराश हो गए तो दिल्ली से बाहर जाने का निर्णय लिया।खैर
तय हुआ कि बीबी व बच्चे लोहारू जायें। वे अकेले रहना पसन्द किये और लिखा-
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहां कोई न हो
रामपुर के नवाब गोपाल दास तफ्ता और महेश दास
जैसे करीबी दोस्तो के सहारे जिंदगी की आखिरी शाम ढ़लती रही।ग़ालिब दिन-ब-दिन टूटते
चले गयें।पहले नातवां थे फिर नीमजान हुए।पेट की अतडियां मरोडे खाने लगीं।हालात ऐसे
पड़े कि दो-चार सतर लिखने के बाद हाथ खुद-ब-खुद रूक जाते।फिर वह शाम आयी जिसने
ग़ालिब साहब के इकहत्तर साल की लम्बी तड़प को खत्म कर उन्हे मौत के आगोश में हमेशा
के लिए सुला दिया। 15 फरवरी 1869 की दोपहर ने इस अजीम शायर को हमेशा के लिए मौत की गहरी नींद की आगोश में ले
लिया।नींद की ऐसी प्यास जो कभी खत्म न होने वाली थी।
अंतत: ज़िंदगी के इकहत्तर साल के लम्बे सफर में ग़ालिब ने उर्दू और फारसी की
बेइन्तहां खिदमत कर खूब शोहरत कमायी।अपनी तेज़धार कलम की बदौलत उन्होने उर्दू
शायरी को नया मुक़ाम, नई ज़िन्दगी और रवानी दी।उर्दू अदब में भले ही
अनेकों शायर हुये हों लेकिन ग़ालिब के कलाम पढ़ने और सुनने वालों के दिलों की कैफ़ियत
बदल देती है।ग़ालिब के कलाम आज भी गंगा के रवानी की तरह लोगों के ज़ेहन और ज़ुबान
पर कल-कल करती हुई बह रही है और हमेशा लोगों के मष्तिष्क पटल पर ज़िन्दा रहेंगी।ऐसे
ही थे मिर्जा गालिब साहब...।
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