Friday 15 January 2016

सियासत में वंशवाद का बढ़ रहा चलन...!



संदीप कुमार मिश्र: वंशवाद...जहन में ये नाम आते ही जो पहला नाम हमारे सामने आता है वो है नेहरु-गांधी परिवार का...। दरअसल वंशवाद को बढावा देने का आरोप शुरुआत से ही कांग्रेस पर लगता रहा है।आजादी के छ: दशक बाद भी कांग्रेस पार्टी पर गांधी परिवार का ही कब्जा चला आ रहा है और लगता है कि आगे भी चलता ही रहेगा।लेकिन वंशवाद की जकड़ से देश की और भी सियासी पार्टीयां अछुती नहीं है।यूं तो कांग्रेस का वजूद ही परिवार से ही रहा है और जब जब परिवार से इतर लोगों ने पार्टी की कमान संभाली पार्टी कमजोर ही हुई है।लेकिन फिलहाल इस रोग से सभी पार्टीयां पीड़ित हैं। कभी अपने को पार्टी विथ डिफरेन्स बताने वाली और वंशवाद को कोसने वाली भाजपा भी शनै: शनै: इसकी जकड़ में लिपटती जा रही है।

दरअसल बीजेपी के भी बड़े नेता सियासत में परिवार के विस्तार कार्यक्रम को ही लोकतंत्र बता रहे है चाहे वो चावल वाले बाबा रमन सिंह ही क्यों ना हो। तमाम सियासी विरोध के बावजूद वो अपने पुत्र अभिषेक सिंह को संसद पहुंचाने में सफल रहे।इसी कड़ी में अगला नाम प्रेम कुमार धूमल का है जो खुद कई बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और अब उनके सुपुत्र अनुराग ठाकुर हमीरपुर से सांसद हैं।पुत्र मोह के इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए राजस्थानी राजमाता कहां पीछे रहने वाली थी सो उन्होंने भी कूंवर दुष्यंत कुमार को लगातार दोबार सांसद बनवाया और संसद की गरिमा बढायी और वैसे भी हमारे देश में राजशाही में उत्तराधिकार तो वंशानुगत ही चलता है ना।

जब वंशवाद को बढ़ाने की होड़ लगी हुई है तो देश का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश के राजनेता कैसे पीछे रहते।सो इस कड़ी में कल्यान सिंह के बेटे राजवीर सिंह, लाल जी टंडन के बेटे गोपाल जी टंडन,वरूण गांधी का नाम इस फेहरिस्त में शामिल है। महाराष्ट्र में तो भाजपा हमेशा ही यूं तो छोटे भाई की भुमिका में रही है। फिर भी वहां से पूनम महाजन, रक्षा खडसे और मुंडे परिवार से प्रीतम, पंकजा भी परिवारवाद की ही उपज है। ये सभी लोग पिता की ही विरासत संभाल रहे है।वहीं दुसरी तरफ बाला साहेब का पुत्र मोह तो हम सब जानते ही हैं। ऐसे में मराठा छत्रप शरद पवार कहां पीछे रहने वाले थे। अजीत पवार से लेकर सुप्रिया सुले ये सब लोग भी तो वंशवाद की अमर बेल की ही उपज हैं।पूर्व मंत्री मुरली देवड़ा ने जब राजनीतिक सन्यास का इरादा जाहिर किया तो उन्हें भी मिलिंद देवड़ा के रुप में राजभार संभालने का वारिश मिल गया।

ये तो हाल था बड़ी पार्टीयों का लेकिन कुछ और भी छोटे दल हैं जहां वंशवाद की लंबी चौड़ी श्रृंखला है।वैसे तो समाजवाद का मतलब बहुसंख्यक से है, लेकिन मुलायम सिंह ने इसे केवल अपने कुनबे तक ही सीमित रखा है।2014 के लोकसभा चुनाव में तो तो केवल उनका परिवार ही संसद के गलियारे में कदम रख सका।ये परिवार तो ये कहने से भी नहीं चूकता कि लोकतंत्र के महापर्व में जनता का विश्वास केवल उनके ही परिवार पर है। और उनका पारिवारिक समाजवाद ही असल समाजवाद है। जबकि लोकदल का हाल तो और बुरा है। भले ही जनता ने अजीत सिंह को सिरे से नकार दिया हो लेकिन जयंत चौधरी को वो राजनीति का ककहरा पढाया और अपने रहते ही पार्टी में उनका कद और पद बढ़ा दिया।

लेकिन बसपा को आप थोड़ा असल जरुर कह सकते हैं,क्योंकि अगर बहनजी पर अपने भाई आनंद कुमार का साथ देने का आरोप ना लगे होते तो यूं तो पुत्रमोह से वो दूर रही।लेकिन भाई भतीजावाद से वो भी अछूती नहीं रही। अब बिहार को हम कैसे भूल सकते हैं जहां लालू के बाद पार्टी में सबसे खास रहे रामगोपाल यादव को पार्टी से निकाला गया तो लालू पर आरोप यही लगे कि इसकी वजह लालू का पारिवारिक प्रेम है।इतना ही नहीं अपने राजनीतिक ढ़लान के दौर में लालू ने दोनो बेटों और बेटी को शानदार तरिके से सियासत में प्रवेश करवा दिया।वहीं रामबिलास पासवान के बाद अब चिराग पासवान लोजपा को आगे बढ़ा रहे हैं।

दक्षिण भारत में भी कुछ ऐसा ही हाल रहा।जयललिता यानि अम्मा को जब जेल जाने का कारण भले ही भ्रष्टाचार रहा लेकिन असल वजह पुत्रमोह ही रहा। दुसरी तरफ करूणानिधी का पुत्र मोह तो उन पर ही भारी पड़ गया।जिसका कारण उनके दोनो पुत्रों के बीच विवाद बताया गया।ऐसे में छोटे राज्य कहां पीछे रहने वाले थे। उत्तराखंड में पहले साकेत बहुगुणा और फिर हरीश रावत भी इसी कतार को आगे बढ़ाते रहे। जबकि नए बने राज्य तेलंगाना में केसीआर का तो पूरा कुनबा ही इस कतार में बना रहा है।जबकि कर्नाटक में पहले देवेगौड़ा और अब येदुरप्पा ने भी पुत्रमोह को ही तवज्जो देना ठीक समझा। उधर बंगाल की सत्ता पर काबिज ममता दीदी भी वंशवाद से अछूती नहीं रही और अपना उत्ताराधिकारी उन्होंने अभिषेक को घोषित कर दिया जो कि उनके भतीजे हैं।



अंतत: बड़ा सवाल यही है कि क्या लोकतंत्र की दुहाई देने वाली ये पार्टियां वंशवाद को बढ़ावा देकर आम कार्यकर्ता का मनोबल नहीं गिरा रही हैं ? क्या जनता के विश्वास पर ये खरे उतर पा रहे हैं या फिर लोकतंत्र कहने के लिए ही है।लोकतंत्र की मजबूती को आखिर बहाल करने का और क्या तरीका है या फिर इसी प्रकार से चलता रहेगा...?

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