संदीप कुमार मिश्र: धर्म की रक्षा के लिए
जिन्होंने अपने पुरे परिवार का बलिदान किया... जिन्होने मात्र 9 वर्ष की आयु में हिन्दू
धर्म की रक्षा के लिए अपने पिता गुरु तेगबहादरजी को बलिदान के लिए प्रेरित किया था...और
घर्म की रक्षा की थी...वो कोई और नहीं सिख पंथ के दसवें व अंतिम गुरु...गुरु
गोविंद सिंह जी ही थे। उन्होंने देश, धर्म और स्वतंत्रता की रक्षा के
लिए सिखों को संगठित किया और देश भक्ति की सीख दी...।
दरअसल दोस्तों गुरु गोविंद सिंह के जन्म
के समय हमारे देश में मुगलों का शासन था। बादशाह औरंगजेब हिन्दुओं को दबाव से मुसलमान
बनाने की कोशिश कर रहा था। ऐसे समय में 22 दिसंबर, सन् 1666 को गुरु तेग बहादुर की धर्मपरायण पत्नी गूजरी देवी ने एक सुंदर और वीर बालक
को जन्म दिया, जो बाद में गुरु गोबिंद सिंह के नाम से विख्यात हुआ।गोविंद सिंह जी को प्यार
से बचपन में लोग 'बाला प्रीतम' कहकर बुलाते थे। उनके मामा उन्हें भगवान की कृपा मानकर 'गोविंद' कहते थे। बार-बार 'गोविंद ' कहने से बाला प्रीतम का नाम 'गोविंद राय' पड़ गया।ऐसा प्रतापी बालक जो निर्भीक होकर रहता था।
क्योंकि खिलौनों से खेलने की
उम्र में गोविंद कृपाण, कटार और धनुष-बाण से खेलना पसंद करते थे। कहते हैं गोविंद एक निस्संतान बुढिया, जो सूत काटकर अपना गुज़ारा करती थी, से बहुत शरारत करते थे । वे उसकी
पूनियां बिखेर देते थे। इससे दुखी होकर वह माता गूजरी के पास शिकायत लेकर पहुंच
जाती। माता गूजरी पैसे देकर उसे खुश कर देती थी। माता गूजरी ने गोविंद से बुढिया
को तंग करने का कारण पूछा तो उन्होंने बड़े ही सरल भाव में कहा कि, " उसकी गरीबी दूर करने के लिए। अगर मैं उसे परेशान नहीं करूंगा तो उसे पैसे कैसे
मिलेंगे।"ऐसी शरारत भरी मानवता शायद ही हमें कहीं और सुनने को मिले।
देश भक्ति की इससे बड़ी मिशाल और क्या
हो सकती है कि कहते हैं जब गोविंद आठ-नौ साल के थे तब उनके पिता तेग बहादुर
आनंदपुर साहिब चले गये। उन दिनों एक ओर गुरु तेग बहादुर का प्रभाव काफी बढ़ रहा था तो
वहीं दूसरी ओर औरंगजेब हिदुओं पर कहर बरपा रहा था। औरंगजेब से बचने के लिए कुछ कश्मीरी
पंडित तेग बहादुर की शरण में आनंद पुर साहिब आये। औरंगजेब से इस विषय में बातचीत
करने के लिए तेग बहादुर जब दिल्ली पहुंचे तो औरंगजेब ने उन्हें गिरफ्तार करवा
लिया। औरंगजेब ने कहा कि,
"तेग बहादुर, अब तुम मेरे रहमो-करम पर हो । अगर
तुम सच्चे संत हो तो हमें कोई चमत्कार करके दिखाओ, वरना अपना ईमान छोड़
दो।" जिस पर गुरु तेग बहादुर ने कहा, " मेरी गर्दन में एक
ताबीज बंधा है, जिसके कारण तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।" यह सुनते ही औरंगजेब के इशारे
पर गुरु तेग बहादुर का सर कलम कर दिया गया।
यह दर्दनाक घटना दिल्ली के चांदनी चौक
में 11 नवम्बर 1675 में हुई। उनकी गर्दन में बंधा ताबीज खोलकर देखा गया तो उसमे
लिखा था -"मैंने अपना सिर दे दिया, धर्म नहीं।" तेग बहादुर जी की
शहादत के बाद 9 वर्ष की अल्प आयु में 'गोविंद राय' गुरु गद्दी पर बैठाये गये। 'गुरु' की गरिमा बनाये रखने
के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढाया और संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएं सीखी। गोविन्द राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिखों को भी अस्त्र-शस्त्र
चलाना सिखाया। सिखों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और उन्हें मानवता
का पाठ पढाया। उनका नारा था- 'सत् श्री अकाल'- सत्य ही ईश्वर है'।
सन् 1699 में गोविन्द सिंह ने बैसाखी के
अवसर पर सिख संगत को आमंत्रित किया। और मंच से सबको संबोधित करते हुए कहा कि, "मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है ?" यह सुनते ही सिख संगत में सन्नाटा छा गया। सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे।
अगले ही क्षण लाहौर निवासी दयाराम खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, "मेरा सिर हाजिर है"। गुरुजी उसे हाथ पकड़कर तम्बू में ले गए। थोड़ी देर में
तम्बू से खून की एक धारा निकलती दिखाई दी। जब गुरुजी तम्बू से बाहर निकलकर आये तो
उनकी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। आते ही वह पुनः बोले, "मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी प्यासी है।" इस बार सहारनपुर के
जटवाडा गांव से आया भाई धर्मदास उठ खड़ा हुआ। गुरुजी दयाराम की तरह उसे भी पकड़कर
तम्बू में ले गए। फिर तम्बू में तलवार चली और खून की एक धारा बाहर निकली। इस बार
गुरुजी जब तम्बू से बाहर आये तो फिर उन्होंने पहले की तरह अपनी तलवार की प्यास
बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी निवासी
हिम्मत राय सामने आये। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर अकेले बाहर आये।
इसी प्रकार चौथी बार द्वारका निवासी मोहकम चंद और पांचवी बार बीदर निवासी साहिब
चंद सिर देने के लिए आगे आये। इनके साथ भी वही व्यवहार किया गया, जो इनके पहले तीन लोगों के साथ किया जा चुका था।
लेकिन जब छठी बार गुरुजी तम्बू से बाहर
निकले तब उनके हाथ में नंगी तलवार नहीं थी। उनके साथ केसरिया बाना पहने पांच सिख
नौजवान थे। जब सिख संगत ने उन्हें देखा तो सभी चौंक उठे, क्योंकि पांचों व्यक्ति वे ही थे जिनका सर काटने के लिए गुरुजी उन्हें तम्बू
में ले गए थे। गुरुजी तख़्त पर बैठे और वे पांचों सिख उनके निकट खड़े हो गए। सिख
संगत में यह कानाफूसी होने लगी की ये पाँचों व्यक्ति तो जीवित हैं, फिर तम्बू में से किनके रक्त की धाराएं बही थीं। सिख संगत की जिज्ञासा शांत
करते हुए उन पांचों व्यक्तियों ने कहा कि गुरुजी हमारी परीक्षा ले रहे थे। गुरुजी
ने तख़्त पर खड़े होकर संगत को संबोधित करके कहा कि ये मेरे 'पंच प्यारे' हैं। इनकी निष्ठा से एक नए संप्रदाय का जन्म हुआ है, जिसका नाम होगा - खालसा, अर्थात शुद्ध।
इसके बाद गुरुजी ने एक बहुत बड़ा कडाहा
मंगवाया। उसमे स्वच्छ जल डाला गया। उनकी पत्नी ने उसमे बताशे डाले। 'पंच प्यारों' ने उसमे दूध डाला और गुरुजी ने गुरुवाणी का पाठ करते हुए उसमे खंडा चलाया।
थोड़ी देर बाद गुरुजी ने पांचो शिष्यों को वह शरबत अमृत के रूप में दिया और कहा, "तुम सब आज से 'सिंह' कहलाओगे और अपने केश तथा दाढी बढाओगे। केशों को संवारने के लिए तुम्हे एक कंघा
भी रखना होगा। साथ ही आत्मरक्षा के लिए एक कृपाण लेनी होगी। सैनिको की तरह तुम्हे
कच्छा भी धारण करना पड़ेगा और पहचान के लिए हाथ में कड़ा भी। लेकिन ध्यान रहे, कभी किसी निर्बल व्यक्ति पर हाथ मत उठाना।"इसी वाक्ये के बाद से गोविन्द राय 'गोविन्द सिंह' कहलाने लगे।
खालसा पंथ की स्थापना के कुछ समय बाद
औरंगजेब ने सिखों को मारकर गोविन्द सिंह को कैद करने का हुक्म दिया। यह खबर मिलने
पर गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिख सैनिकों को किले पर मोर्चा संभालने का आदेश दिया
और किले का फाटक बंद करवा दिया। सैनिकों ने किले के बुर्जों पर मोर्चा संभाल लिया।
औरंगजेब के सेनापती वजीर खां के सैनिकों ने किले को घेर लिया और किले का फाटक
तोड़ने के लिए हाथी लगा दिए। हाथियों की मेहनत जल्दी ही रंग लाने लगी।
जब इस बात को सिखों ने गुरुजी से कहा तो
गुरु गोविन्द सिंह ने कहा,
"तो इन्तजार किस बात का है!" और गुरु का इशारा
पाते ही सिख सैनिक गुरु और खालसा पंथ की जय-जयकार करते हुए जंग में कूद पड़े।
मुट्ठी भर सिख हजारों मुसलमानों पर भारी पड़ रहे थे। यह देखकर मुसलमान पीछे हट गए।
लेकिन उन्होंने आनंदपुर का घेराव नहीं छोड़ा। वे छः महीने तक वहां घेरा डाले रहे।इस
खबर से औरंगजेब आग बबूला हो उठा। तब उसके सेनापति पाइंदा खां ने कहा कि मै गोविन्द
सिंह से अकेला लडूंगा। हमारी हार जीत से ही फैसला माना जाये। औरंगजेब पाइंदा खां
के अचूक निशाने से परिचित था। उसने अनुमति दे दी। फिर क्या था, मुगलों का दूत गुरु गोविन्द सिंह के पास भेजा गया। गुरुजी ने पाइंदा खां की
चुनौती स्वीकार कर ली। अगले दिन दोनों योद्धा रणभूमि में मौजूद थे। दोनों की
सेनाएं पीछे थीं। गुरु गोविन्द सिंह ने पाइंदा खां से कहा कि चूंकि चुनौती तुमने
दी है, इसलिए पहला वार तुम ही करो। पाइंदा खां ने कहा, "ठीक है। तुमने मौत को
न्योता दिया है। मेरा वही आखिरी वार होगा।" फिर उसने धनुष पर तीर चढ़ाकर
छोड़ा। गोविन्द सिंह ने उसका बाण बीच में ही काट दिया। अब बारी गोविन्द सिंह की थी।
उन्होंने एक तीर छोड़ा और पाइंदा खां का सिर धड़ से अलग हो गया। सिख जीत गए, मुगलों ने घेरा हटा लिया।ऐसे महान वीर सपूत और धरती के लाल थे गुरु गोविंद
सिंह जी।
लेकिन कुछ दिन बाद ही औरंगजेब ने पूरी
तैयारी के साथ दोबारा हमला कर दिया। लेकिन इस बार भी मुगल न तो किला जीत सके और न
गुरु गोविन्द सिंह को पकड़ सके। गुरु गोविन्द सिंह ने एक कूटनीति के तहत अपने
परिवार के साथ आनंदपुर छोड़ दिया लेकिन उनपर मुगलों ने हमला कर दिया।गुरु गोविन्द
सिंह ने अपनी पत्नी तथा बच्चों को विश्वस्त सैनिकों के संरक्षण में सुरक्षित स्थान
पर पहुंचाने का आदेश दिया। माता गूजरी और गुरुजी के दो छोटे- छोटे बच्चों ने
सरहिंद में शरण ली।लेकिन वहां किसी ने उन्हें पहचान लिया और सूबेदार वजीर खां के
हवाले कर दिया। उन्हें वजीर खां ने कैद कर दिया और फिर कई दिन तक वजीर खां और काजी
उन्हें दरबार में बुलाकर धर्म परिवर्तन के लिए लालच एवं धमकियां देते रहे।बहादुरी
की ऐसी मिसाल कहां मिल सकती है कि गुरु जी दोनो बच्चों ने कहा कि ' हम अपने प्राण दे देंगे लेकिन धर्म नहीं।'जिसके बाद वजीर खां ने उन्हें जिंदा दीवारों में चिनवा दिया।
इसके बाद सिखों के साथ हो रहे युद्ध में मुगलों
ने समझा कि उन्होने गुरु गोविन्द सिंह को मार डाला। लेकिन इसी दौरान गुरुजी वेश बदल
कर निकल गए। जब औरंगजेब की मृत्यु के बाद दिल्ली में गद्दी के लिए जद्दोजहद शुरू
हुई। तब गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब के दूसरे पुत्र, बहादुर शाह का साथ दिया। गद्दी पर बैठने के बाद उसने गुरु गोविन्द सिंह को
ससम्मान दिल्ली बुलवाया। बहादुर शाह से गुरु गोविन्द सिंह की दोस्ती की बात सुनकर
वजीर खां बहुत चिंतित हुआ। उसे डर था कि गुरु गोविन्द सिंह बादशाह से उसकी शिकायत
न कर दें। इसलिए उसने गुल खां नामक एक पठान को लालच देकर दिल्ली भेजा, ताकि वह धोखे से गुरु गोविन्द सिंह को मार डाले।
एक दिन जब गुरु गोविन्द सिंह अपने शिविर
में दोपहर के समय विश्राम कर रहे थे तब गुल खां ने अचानक उन पर छुरे से वार करना
चाहा। गुरूजी ने उसी समय अपनी तलवार से उसे मार डाला। इस संघर्ष में गुरुजी को भी
कई चोटें लगीं। लेकिन चिकत्सकों की मदद से धीरे- धीरे घाव भरने लगे और वह सिख संगत
को फिर उपदेश देने लगे। एक दिन जब गुरुजी धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे, तब कमान खींचते समय उनके घाव फिर हरे हो गए । लेकिन वे घाव दोबारा भरे नहीं जा
सके। एक दिन उन्होंने सिख संगत को बुलाकर कहा, "अब मेरा अंतिम समय आ
गया है। मेरे मरने के साथ ही सिख सम्प्रदाय में गुरु परंपरा समाप्त हो जायेगी।
भविष्य में सम्पूर्ण खालसा ही गुरु होगा । आप लोग 'ग्रन्थ साहिब' को ही अपना गुरु मानें।" और 7 अक्टूबर,1708 को गुरु
गोविन्द सिंह जी का देहांत हो गया।
अंतत:ऐसे महान गुरु ,संत राष्ट्र भक्त को कोटिश:नमन और गुरु गोविंद सिंह जी के जन्म दिवस की आप सभी को बधाई..।
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