संदीप कुमार मिश्र: हमारे देश में आतंकी हमले और उनपर हो रही लगातार चर्चा अब
तो आम बात हो गयी है। हमारे नापाक पड़ोसी के सीमा पार से लगातार घुसपैठ करवाना और सीमा
पर सीज़फायर लगातार उल्लंघन करना कोई नई बात नहीं है और ना ही कोई नया मुद्दा।हम
बात चाहे 26/11 मुंबई में हुए आतंकी हमले की करें या फिर साल 2006 में मुंबई सीरियल धमाके की। 2008 में पुणे का जर्मन बेकरी कांड,उसी
साल 30 अक्टूबर
को असम में हुआ ब्लास्ट या फिर अब पठानकोट एयरबेस में हुआ आतंकी हमला।
अब साब फेहरिस्त तो बहुत लंबी है आतंकी हमलों की।खैर,आतंकियों द्वारा पठानकोट
में हुए हमले ने हमारे कई सुरक्षा तंत्र के पहलुओं को उजागर किया जिससे कहीं ना
कहीं हम भारतीयों का मनोबल जरुर गिरता है।बड़ा सवाल उठता है कि जब भी कोई आतंकी
हमला होता है तब क्या कहीं ऐसा नहीं लगता है कि सरकार और सुरक्षा एजेंसियों के बीच
आपस का तालमेल हर बार धोखा खाने की वजह बनता है।और हर बार की तरह वही बयानबाजी..।
क्या से कहने भर से काम चल जाएगा कि गम इस हमले की कड़ी निंदा करते हैं...या
फिर इस कायरना हरकत के लिए हम करारा जवाब देंगे...या फिर ये हमला बर्दास्त नहीं
किया जाएगा...अब साब अबतक का इतिहास तो कुछ ऐसा ही कहता है..।सत्ता बदली तो उम्मीद
भी बढ़ी लेकिन कहीं ना कहीं ऐसा लगने लगा कि सरकार तो बदली लेकिन कभी विपक्ष में
रहने वाले नेता जो नेता एक के बदले 10 सिर लाने की बाते करते थे अब वे सरकार में होने पर
खामोशी की चादर ओढ़े रखे हैं।
लगातार हो रहे आतंकी हमलों में पाकिस्तानियों के शामिल होने के सबूत सौंपने का
सिलसिला भी बदस्तूर जारी है।लेकिन हमारे नापाक पड़ोसी को सबूत ही नाकाफी लगे। ये
कहने में बड़ा ही फक्र होता है कि, 'ऑपरेशन म्यांमार' को जिस तरह से अंजाम दिया गया।उसके लिए मोदी सरकार की तारीफ
करने से हमें नहीं चुकना चाहिए।क्योंकि ये वास्तव में एक करारा जवाब था। ऐसे में क्या
संभव नहीं कि म्यामार की तरह पाकिस्तान को भी माकूल जवाब दिया जाए।माना कि 'बात करने से ही बात बनती
है', लेकिन
पाकिस्तान के मामले में ऐसी बात....बेमानी है जनाब।
अब आप पिछले छह दशक से उलझा कश्मीर मुद्दा ही ले लें,जो अब विश्व के सबसे
पुराने या यूं कहें कि संभवतः लाइलाज फसादों की फेहरिस्त में शुमार हो चुका है। जिस
पर शायद सिर्फ बातें ही होती रहेंगी। ऐसे एक नई बार देखा गया है कि जब भी
पाकिस्तान से बात करने की पहल हम करते हैं परिणामस्वरुप हमें हमले ढेलने पड़ते
हैं। दो बड़ी वैश्विक ताकतों में शुमार चीन और अमेरिका से पाकिस्तान की नज़दीकियां
किसी से छुपी नहीं है। अमेरिका की ओर से मदद के लिये पाकिस्तानी को दिया जाने वाला
पैसा किस काम में उपयोग हो रहा है, ये बात पूरी दुनिया जानती है।वहीं विवादित सीमाक्षेत्र में
चीन का गैरवाज़िब दखल और हथियारों की सप्लाई भी हमारे देश के लिए कम चिंता का सबब
नहीं है..।
क्या अब जरुरी नहीं
हो गया है कि जिस प्रकार एक मां अपने बच्चे को ठीक करने के लिए कभी उसके कान
पकड़ती है तो कभी उसे मारती भी है,जिससे वो ठीक हो सके।ऐसे में क्या अब जरुरत नहीं
है कि हमारे
हुक्मरान रिश्ते बिगड़ने के डर से पाकिस्तान की हर गलती को नजरअंदाज करने की बजाय
उसे थोड़ा ठोंकने पीटने का भी काम करें।क्योंकि सच तो यही है कि चुप रहकर सहनशीलता
की मिसालें पेश करने से रिश्ते सुधरने से रहे।अब तो भारत को अपने तथाकथित छोटे भाई
पाकिस्तान के साथ भी यही करना चाहिए। कभी-कभी आदर्शों की अपेक्षा यथार्थ को
मद्देनजर रखकर निर्णय ले लेना चाहिए। क्योंकि सिर्फ बापू के अहिंसा धर्म का पालन
करने से लगता है कि देश को महफ़ूज़ रख पाना संभव नहीं है।इसलिए कभी-कभी भगतसिंह,
चंद्रशेखर आजाद,
नेताजी सुभाष जैसे
शहीदों का आक्रामक चोला भी धारण करना जरूरी है। ना'पाक' मंसूबों पर पानी फेरने के लिये 'जैसे को तैसा' की नीति अपनानी ही होगी।
अन्यथा अफसोस, निंदा, चेतावनी,कार्यवाही करेंगे जैसी बातें सिर्फ बेमानी ही होगी।
बार-बार,हजारों बार संघर्ष विराम की शर्तों का उल्लंघन हुआ, कभी जवानों के सिर काटे
गए,तो कभी आंखें निकाली गईं,
कभी देश में घुसकर
रक्तपात मचाया गया...हर बार बर्बरता की हदें पार हुई।और हमारे सियासतदां सिर्फ
कड़ी निंदा ही करते रह गए...आखिर कब तक चलेगा ऐसा...?
अब तो पाकिस्तान जैसे नापाक पड़ोसी को ठोस जवाब देना ही होगा।इसके लिये भारत
को कूटनीतिक दबाव या अंतरराष्ट्रीय बहिष्कार जैसे प्रयासों पर भी विचार करना होगा,
तभी पाकिस्तानी
हुक्मरानों को समझ में आएगा।चाहे वह लोकतांत्रिक तरीके से नियुक्त सरकार हो या
पर्दे के पीछे से सत्ता का संचालन करने वाली सेना हो। ये भी सच है कि विदेश नीति से जुड़े तमाम मुद्दे
रातों रात नहीं सुलझाए जा सकते, लेकिन ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं है कि भारत को पाकिस्तान की
गलत हरकतों को बर्दास्त करना पड़े।
अंतत: देश के रक्षा मंत्री ने
बिल्कूल सही कहा कि दर्द का बदला दर्द देकर ही लेना होगा।जी हां अब तो हद हो
चुकी...अब तो ये संकल्प लेना ही होगा कि हमारी सरजमी पर कभी रक्तपात नहीं होगा...हमारे
जवान नहीं होगें शहीद...और हमारी सिमाओं पर नजर रखने वाली आंखे रहेंगे ही नहीं...।काश.. !
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