संदीप कुमार मिश्र: गुलाम अली खां साहब, जनाब याद तो होंगे ही आप सब को,जिनकी आवाज के जादू के दिवाने
जितने सत्तर के दशक के हमारे बड़े बुजुर्ग हैं उतने ही आज के यूवा भी।जिन गुलाम
अली खां साहब की मखमली आवाज के जादू ने सरहदों की दूरीयां मिटा दी।जिसने प्रेम का
संदेश संगीत और अपने आवाज के जरिए देने की लगातार कोशिश की,जो रहते तो सरहद पार थे,लेकिन जिसका दिल,जिनकी आवाज मेरे देश के
हर जुबां पर सुनाई देती है ।जिनके गजल के कलेक्शन हर घर में संगीत प्रेम की पहचान
बनते थे और हैं ।हर जुबां पर ‘हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह’ही सुनाई देती थी।कौन
भूल सकता है चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है।या फिर हंगामा है क्यूं बरपा
थोड़ी सी जो पी ली है।प्रेम को,संगीत को,सुर और ताल को सरहदें बांध सकती हैं क्या ? आप बताईए बांध सकती हैं
क्या ? नहीं,
कभी नहीं बांध सकती।आप बताईए आज की यूवा पीढ़ी की संगीत शिक्षा बगैर गुलाम अली की
गजलों के बगैर पूरी होगी क्या?शायद नहीं।फिर कैसे संगीत साधना होगी,कैसे अनहद नाद बजेंगे।
जी हां साब जनाब गुलाम अली साहब 'हंगामा क्यों है बरपा' की अपनी दास्तान सुनाते, उससे पहले ही उनका
कार्यक्रम हंगामे की भेंट चढ गया।लेकिन अफसोस की बात है कि कार्यक्रम रद्द करने
वाले वही लोग हैं जो इससे पहले पिच खोदने की घटना,
को अंजाम दे चुके थे।इतना ही नहीं पाकिस्तान के क्रिकेट खिलाड़ियों
का बहिष्कार के साथ ही वहां के फिल्मी कलाकारों का विरोध भी किया,और दूसरे पाकिस्तानी गायकों का बहिष्कार सबकुछ बड़े
ही जोरदार तरीके से किया। लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद शायद ही किसी को याद हो
की कभी गुलाम अली खां साहब के नाम पर इस कदर बवाल मचा हो...किसी को याद नहीं ।
अक्सर हम सोचते हैं कि इस मखमली आवाज के जादूगर को अपने फुर्सत के पल में
शिवसेना के मुखिया उद्धव ठाकरे भी बड़े मजे में सुनते होंगे।ये भी हो सकता है कि
हिन्दुत्व का झंड़ा थामने वाले तमाम और संगठनों के मुखिया भी उतनी ही शिद्दत से
चुपके चुपके रात दिन....सुनते हों।शायद, यही कारण है कि धर्म और आध्यात्मीक नगरी वाराणसी के संकट मोचन मंदिर के गुलाम
अली के कार्यक्रम का विरोध नहीं होता। इस महान शख्सियत के तो हमारे प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी भी मुरीद हैं।जब हमारे पीएम गुलाम अली से राजधानी दिल्ली में मिले तो
उन्होंने भी ट्वीट कर जाहिर किया कि वे भी उनके प्रशंसक हैं।शायद कुछ खास लम्हों
में हमारे पीएम भी गुलाम अली साहब की गजलों से अपनी थकान मिटाते हों।लेकिन मजे की
बात तो ये है कि जनाब जब सियासत करनी हो तो बहुत कुछ दांव पर रखना पड़ता है।शौक तो
खास करके,क्योंकि ना जाने कब किसका विरोध करना पड़ जाए।भाई वोट की पालिटिक्स तो
यही कहती है(माना जाता है,आज की राजनीति में)
लेकिन जनाब गुलाम अली ने बड़ा ही सटीक जवाब दिया कि ‘ठेस तो पहुंची है,लेकिन वो
गुस्से में नहीं हैं’।हम
सब जानते हैं कि चंद लोग विरोध कर अपनी राजनीति चमका रहे हैं।जबकि सच्चाई इसके उलट
है। दरअसल गुलाम अली साहब को पूरा देश सुनता है। जब आल इंडिया रेडियो पर 'चुपके-चुपके रात दिन' बजता है तो विरोध करने वाले कट्टर भी अपना कान रेडियो सेट के नजदीक सटा लेते
हैं,साब ये सिलसिला कोई नया नहीं है,बेहद पुराना है,क्योंकि पिछली दो से तीन
पीढ़ीयों से हम भी सुनते और देखते आ रहे हैं।
पड़ोसी मुल्क के ऐसे तमाम कलाकार हैं और एक लंबी फेहरिस्त है जिनको हर भारतिय
देखना और सुनना पसंद करती है।दरअसल बात सूफी गायन की होया फिर गजल की,या
दादरा,ठुमरी की हो हर अंदाज में पाकिस्तानी कलाकारों की दिवानगी बमारे देश में सिर
चढ़ कर बोलती है।हमारे देश ने पाकिस्तान के जनाब हसन जहांगीर का 'हवा-हवा' भी सुना है। जिसकी लगभग डेढ़ करोड़ कॉपी हमारे देश भारत में ही बिकी।वहीं राहत
फतेह अली खां से लेकर आबिदा परवीन और अदनान सामी भी उतने ही लोकप्रिय हैं।आज की
यूवा पीढ़ी लगातार इस सिलसिले को आगे भी बढ़ा रही है।
शिवसेना ये बात बखुबी जानती है कि इस प्रकार की सियासत करने से प्रचार भी खुब
मिलेगा और देशभक्ति का सर्टिफिकेट भी मिलेगा । चाहे इसके दूरगामी परिणाम नुकसान के
तौर पर ही क्यों ना मिले। हमारे देश भारत और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के बीच कला और
संस्कृति का एक ऐसा रिश्ता है जिसकी निरंतरता ही दोनो मुल्कों के भविष्य के बेहतर
रिश्ते को मजबूत बनाने की सुंदर कड़ी है।
किसी भी देश की पहचान वहां की कला और संस्कृति से होती है।दरअसल कला और
संस्कृति का काम ही जोड़ने का है।ऐसे ओछी और स्वार्थपरक राजनीति को संस्कृति से
दुर रखना चाहिए।देश में ढ़ेरों ऐसे मुद्दे हैं जिसपर सियासत की जा सकती है।भूल गए
क्या विकास तो है ही।राजनीति का सर्वमान्य मुद्दा।
अब साब बड़ा देश है तो सियासत भी बड़ी होगी।यहां तो मुद्दों को लपकने की
सियासत होती है,जैसा कि हुआ।जहां एक
सूबे में गुलाम अली के कार्यक्रम को रोका गया, वहीं दुसरे राज्यों नें इसे लपक
लिया। क्योंकि मामला पब्लिक इंट्रेस्ट का जो था, और इसमे हमारे नेता पीछे कैसे रह
सकते थे। बहरहाल संगीत प्रेमियों और गुलाम अली साब के प्रशंसको को इससे खुशी जरुर
मिलेगी । देश की राजधानी दिल्ली में अपना कार्यक्रम करने का जो न्योता दिल्ली
सरकार ने गुलाम अली साब को दिया था, उसे उन्होनें स्विकार भी कर लिया है।जो एक
अच्छी बात है,और दिल्ली सरकार के इस
फैसले का सम्मान भी होना चाहिए।
खैर किसी के पहरा लगाने से संगीत के कद्रदानो की ना पहचान खत्म होती है और ना
ही पाकिस्तान के साथ हर प्रकार के सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बंद किया जा सकता है
और ये संभव भी नही हैं। गीत, संगीत,
फिल्में, खेल कला संस्कृति में जब भी राजनीतिक हस्ताक्षेप होता
है तो उसका असर हमारे आने वाली पीढ़ीयों पर पड़ता है।हवाओं को रोकना हमारे वश में है
क्या? क्या वो भी सरहदों की
बंदिशों में बध कर रह सकती हैं क्या ? बमारे सियासतदां को ये समझना होगा कि कुछ चीजें राजनीति, डिप्लोमेसी अपनी जगह पर ठीक है।कृपया कला के
कद्रदानों को अपनी सियासी रोटी सेंकने के लिए कला संस्कृति को हथियार ना बनाएं।
बड़े गैर से जान ले हमारा देश है भाव राग और ताल से बना है।तभी तो हम गर्व से कहते
हैं कि हम भारतिय हैं।।
No comments:
Post a Comment