संदीप कुमार मिश्र: दोस्तों महानगरों की तेज रफ्तार जिंदगी और चकाचौंध से दूर शांति और सुकून के जो
क्षण प्रकृति के गोद में मिलते है, उसका सुख शब्दो में बंया नही किया जा सकता है,और प्रकृति के इसी अदभुत स्वरुप का साक्षात्कार
होता है, देवभूमि उत्तराखंड में। देवभूमि उत्तराखंड ही वो जगह है,जहां प्रकृति और
उसका कृतिकार दोनों एक साथ मौजूद है। यही वो पावन भूमि है, जहां से गंगा और यमुना
जैसी पवित्र नदियां निकलती है। इस पवित्र धरा पर देवी-देवताओं के अनेको तीर्थ और
मंदिर है, और उन्हीं में एक है यमुनोत्री मंदिर। इस मंदिर के आसपास का नजारा मन को
मोहने वाला है। यहीं पर स्थित है देवी यमुना का मंदिर।जिसके दर्शन और चढ़ाई का
मार्ग दुर्गम और रोमांचित करने वाला है। रास्ते के अगल-बगल में स्थित गगनचुंबी,
मनोहरी बर्फीली चोटियों की छटा ही कुछ ऐसी होती है, जिसे देखकर भक्त मंत्रमुग्ध हो
जाते हैं। दुर्गम रास्तों के आस-पास घने जंगलों की खूबसूरती यहां आने वाले श्रद्धालुओं
की आंखों में बस जाती है। इन खूबसूरत रास्तों से होते हुए जब श्रद्धालु यमुनाजी के
मंदिर तक पहुंचते हैं, तो उन्हें ऐसा आभास होता है, मानो देवलोक पहुंच गए हों।यहां
की आलौकिक छटा कुछ इस तरह निराली है, कि उदासी और मायूसी भरे चेहरे भी खिल उठते
हैं।
कहते हैं यमुनाजी के
तट पर बने इस पौराणिक और एतिहासिक मंदिर की महिमा अपरम्पार है।यमुना देवी को समर्पित
इस मंदिर को कई बार प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा।कहा जाता है, कि भूस्खलन और
भूकंप से ये मंदिर दो बार क्षतिग्रस्त हो चुका है, लेकिन हर बार इसका पुर्ननिर्माण
कराया गया। यमुनोत्री का वर्तनान मंदिर जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19 वीं सदी
के अंतिम दशक में बनाया था। 1919 में टिहरी के राजा प्रताप सिंह ने इस मंदिर का
जीर्णोद्धार कराया। तब से लेकर आज तक मां यमुना का ये मंदिर श्रद्धालुओं के लिए
असीम आस्था का केंद्र बना हुआ है।मंदिर के आसपास पहुंचते ही दिव्य अलौकितता का बोध
होता है।यमुनोत्री
मंदिर के नजदीक पहुंचते मंदिर के बाहरी परिसर में सजी हुई दुकानें श्रद्धालुओं के स्वागत
में तैयार होती है।जिसकी रौनक देखने लायक होती है।धूप, अगरबत्ती, चुनरी, और
यमुनोत्री धाम की तस्वीरों से सजे इन दुकानों की छटा निराली होती है।यहीं से
प्रसाद और माता के श्रृंगार की सामग्री खरीदकर श्रद्धालु मंदिर में प्रवेश करते
हैं।आकार में
छोटे इस मंदिर मुख्य द्वार के उपर मां यमुना की प्रतिमा है। यमुनाजी के प्रतिमा के
ठीक नीचे भगवान गणपति विराजमान है। गर्भगृह के दोनो ओर दो द्वारपाल की मूर्तियां
है।गर्भगृह में मां यमुना की काले रंग की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। जिसके दर्शन कर
श्रद्धालु मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।मां गंगा और यमुना सौतेली बहनों के रुप में जानी
जाती है, लिहाजा इस मंदिर में गंगाजी की भी मूर्ति सुशोभित है।हमारी भारतीय
संस्कृति में इन दोनों नदियों को माता का दर्जा प्राप्त है। इन दोनों माताओं का एक
साथ दर्शन पाकर यहां आनेवाले भक्त भावविभोर हो जाते हैं।सदियों से भारतभूमि को
सिचिंत और पोषित करती यमुना नदी की स्नेह सुधा से हर भारतवासी अभिभूत है। इनके कल्याणकारी
और पवित्रता के भाव होने के कारण ही ये देवी के रुप में पूजनीय हैं। शास्त्रों में
कहा गया है कि इसी पवित्र स्थान पर असित मुनि ने तप किया था। अपने मानसिक तपोबल से
वे प्रतिदिन यमुनोत्री और गंगोत्री में स्नान कर यमुनोत्री आ जाते थे, लेकिन
वृद्धावस्था में जब ये असंभव हो गया, तब गंगाजी की एक छोटी सी धारा इसी स्थान पर चट्टान से निकल पड़ी।
मां गंगा के मंदिर के अलावा भी यहां कई मंदिर है,जो यहां
आने वाले श्रद्धालुओं के लिए आस्था और विश्वास के केंद्र हैं,और इन्ही में एक श्री सिद्ध हनुमानजी का
मंदिर भी है। यहां श्री हनुमान का बड़ा ही सुंदर विग्रह है, जिसकी अनुपम छवि देखकर
मन प्रेम से सराबोर हो जाता है। मंदिर में श्री हनुमानलला के अलावा भक्त वत्सल
प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता के भी दर्शन होते हैं।गंगोत्री आने वाले
श्रद्धालुओं के लिए श्री सिद्ध हनुमान मंदिर का बड़ा ही महत्व है। यही वजह है, कि
गंगोत्री धाम की यात्रा पर आने वाले भक्त हनुमानलला के दर्शन के बिना नहीं लौटते।सचमुच
हिंदू धर्माबलंबियों के लिए यमुनोत्री का मंदिर तपोस्थली से कम नहीं है।इस मंदिर
की पवित्रता और महिमा का ही असर है, कि भक्त यहां अपने नौनिहालों का मुंडन संस्कार
कराते हैं।इस पावन धाम की खूबसूरती बरकरार रहे, इसीलिए यमुनोत्री धाम में पर्यावरण
को स्वच्छ बनाए रखने की अपील हर तरफ चस्पा है।
यमुनोत्री मंदिर के आसपास गर्म जल के अनेक सोते हैं,उष्ण जल के ये स्रोत यमुनोत्री से 500 गज नीचे है, और
यहां पानी का तापमान 94.7 डिग्री सेल्सियस रहता है। इस गर्म जल के कुंड के आसपास
की भूमि भी काफी गर्म रहती है, यही वजह है, कि यहां की भूमि पर बर्फ नहीं टिकती।
इस गरम कुंड में स्नान करने के बाद यमुनोत्री आने वाले तीर्थयात्री की थकान पल भर
में दूर हो जाती है। पुरुष और महिलाओं के लिए अलग-अलग कुंड बनाए गए हैं। यहां आने
वाले श्रद्धालुओं के लिए तप्त कुंड किसी कौतूक और आश्चर्य से कम नहीं है। एक ओर
जहां यमुनोत्री
में यमुना का जल इतना ठंढ़ा होता है, कि उसे स्पर्श करने से ऐसा अनुभव होता है,
मानो हाथ निष्प्राण हो गए हैं। वहीं तप्त कुंड का पानी इतना गर्म होता है, कि उसे
छूने से हाथ जल जाए, फफोले पड़ जाए। यमुनोत्री के इन गर्म कुंड में सबसे प्रमुख है, सूर्य कुंड़। इस कुण्ड का
तापमान इतना होता है कि यदि मखमल के कपडे़ में बांधकर चावल
या आलू की पोटली डाली जाए तो वह पक जाती हैं। श्रद्धालु इस तप्त कुंड में पोटली में चाबल बांधकर पकाते
हैं और यही उबला हुआ चावल यमुनोत्री मंदिर का असली प्रसाद है।
तप्त कुंड से थोड़ी
ऊंचाई पर दिव्य शिला है, इस शिला को दिव्य ज्योति शिला भी कहते हैं। भक्तगण, भगवती यमुना की पूजा
करने से पहले इस शिला की पूजा करते है। मान्यता है, कि यहां 5 मिनट की पूजा-अर्चना करने से कोटि जन्मों के पाप मिट
जाते हैं।
समुद्रतल से 10,000 फीट की उंचाई पर होने की वजह से यहां सर्दी का मौसम शुरु होते ही हिमपात होने लगता है। पवित्र देवालय बर्फ की सफेद चादर से ढक जाता है और वहां पहुंचना संभव नही होता है। लेकिन ईश की आराधना कभी नहीं थमती। यही कारण है, कि सर्दियों में इन देवालयों के साथ एक परंपरा जुडी है। शीत ऋतु में जब इस मंदिर के कपाट बंद हो जाता है, तो भगवान के विग्रह को ऐसे स्थान पर ले जाया जाता है, जहां सरलता से पूजा- अर्चना की जा सके। भगवान का मूल विग्रह तो स्थाई रुप से मूल मंदिर में ही स्थित रहता है, लेकिन प्रतीक रुप में स्थापित की गई चल प्रतिमा को बड़े ही पारंपरिक ढंग से पालकी में विराजित करके इन देवालयों की ओर प्रस्थान किया जाता है। इसीलिए इन देवालयो को सर्दियों के चार धाम कहा जाता है।
उत्तराखंड के चार धामों की तरह यमुनोत्री में भी मई से अक्टूबर तक
श्रद्धालुओं का अपार समूह हर वक्त देखा जाता है। लेकिन शीतकाल मे ये स्थान पूरी
तरह हिमाछादित हो जाता है। यही वजह है,कि इस पावन धाम के कपाट
यम द्वितीया यानी भाई दूज के दिन बंद कर दिए जाते हैं।इस पावन मौके पर पूरे वैदिक
रीति-रिवाज और मंत्रोच्चार के साथ शनि देव की मौजूदगी में यमुना मैया के विग्रह को
उत्सव डोली में सजाकर खरसाली गांव लाया जाता है।
क्षेत्रीय परंपरा और संस्कृति यहां सदियों से चली आ
रही व्यवस्था के तहत यमुना की मूर्ति
को खरसाली में बने प्राचीन शनि मंदिर में छह माह तक रखा जाता है। मां यमुना को शनि देव की बहन के रुप में पूजा की जाती है। भैयादूज से लेकर
अक्षय तृतीया तक मां यमुना के चल प्रतिमा का पूजन खरसाली मे ही की जाती है।यहां
मां यमुना की पूजा उनियाल जाति के ब्राह्मण करते हैं।छह महीने के बाद यमुनोत्री
मंदिर के कपाट अक्षय तृतीया के अवसर पर वैदिक अनुष्ठान के साथ श्रद्धालुओं के दर्शानार्थ खोल दिए जाते हैं।इस पावन दिन को देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु मां यमुनादेवी के मंदिर में उनके दर्शन के लिए आते हैं।
यमुनोत्री में यमुना के भाई शनि देव और मां यमुना की डोली के साथ आस-पास के कई गांव के देवी-देवाताओं की डोली आती है। बैंड बाजो की धुन से इस मंदिर का माहौल और भी आध्यात्मिक और भक्तिमय हो जाता है। हर-हर गंगे और जय मां यमुना के जयकारे से पूरा माहौल गूंजायमान रहता है। इस मौके पर मंदिर को फूलों से सजाया जाता है। तीर्थयात्रियों के लिए मंदिर के द्वार सुबह 6 बजे से रात के आठ बजे तक खुला
रहता है। सुबह की आरती साढे 6 बजे और संध्या आरती साढ़े 7 बजे होती है। सर्दियों
में मंदिर पौने सात बजे से दोपहर 2 बजे और फिर दोपहर तीन बजे से शाम के सात बजे तक
खुला रहता है। यमुनोत्री मंदिर का संचालन का जिम्मा यमुनोत्री मंदिर समिति के हाथ
में होता है।
साथियों आस्था की ये मंगल यात्रा पहले के मुकाबले अब बेहद आसान हो गई है। चार
धाम का पहला पड़ाव यमुनोत्री के लिए जहां पहले हनुमान चट्टी तक ही वाहन चलते थे,
वहीं अब जानकी चट्टी तक आप वाहन से जाया जा सकते है। जानकी चट्टी से यमुनोत्री तक
5 किलोमीटर तक खड़ी चढाई करनी पड़ती है। जो श्रद्धालु पैदल नहीं जा सकते उनके लिए
भी कई साधन मौजूद है। यमुनोत्री जाने के लिए टट्टू, घोड़े, डांडी यानी पालकी और
कंडी भी मिल जाते हैं।डांडी एक तरह की पालकी होती है। जिसे चार लोग लेकर चलते हैं।कंड़ी
एक तरह की डलिया है, जिसे व्यक्ति अपने पीठ पर लेकर चलता है। भले ही यमुनोत्री धाम
की ये यात्रा तकलीफ से भरी हो, लेकिन आस्थावान श्रद्धालु के लिए प्रकृति के गोद
में स्थित इस पावन धाम की यात्रा वाकई अविस्मरणीय हो जाती है।
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