बिसेहड़ा में सुकून…!
ये जरुरी नहीं की सजदे हों और होठों पर कोई नाम
आए,
जिंदगी खुद एक इबादत है बशर्ते किसी के काम आए।
संदीप कुमार मिश्र: जरा कल्पना कीजिए दोस्तों की हमें कैसा
हिन्दुस्तान चाहिए।धर्म के नाम पर हो रही सियासत की तरह या जो कल्पना जो सपना हमने
कभी देखा था या किताबों में कभी पढ़ा था कि विश्व का इकलौता मुल्क है भारत जहां
सर्व धर्म समभाव की भावना कण कण में बसी है वैसा..?
निश्चिततौर पर सर्वधर्म समभाव की भावना से ओतप्रोत वाले हिन्दुस्तान की कल्पना
हम सब करते हैं।हमारे देश की आवाम भी सदैव यही चाहती है।लेकिन अफसोस कि तथाकथित
धर्म के कुछ ठेकेदारों को ये सब नागवार गुजरता है।जितना ह्रदयविदारक उदाहरण हमने
दादरी उत्तर प्रदेश के बिसेहड़ा गांव में देखा।जहां अफवाह फैलाकर अखलाक की हत्या कर दी
जाती है।जिससे एक तरफ तो आवाम की बेचैनी परेशानी बढ़ जाती है तो वहीं दुसरी तरफ कुछलोग अपनी सियासी
रोटीयां सेंकने में कामयाब हो जाते हैं।
आखिर कब तक यूं हीं चलता रहेगा,विकास की बात तो
हम करते हैं,देश को आगे बढ़ाने की बात भी हम करते हैं..लेकिन किस शर्त पर..? डीजिटल भारत की बुनियाद क्या यही है,ऐसी ही है कि महज
सत्ता पर बने रहने के लिए धर्म की आड़ ली जाए और किसी हंसते खेलते परिवार में गम
का माहौल पैदा कर अपनी बहादुरी दिखाई जाए। सांप्रदायिक दंगो के उन तमाम दंश को हम
भूल गए क्या...?जिसकी आग में समुचा देश जल
रहा था।
सुकून और अमन किसे कहते हैं और इसका सही मायने
में क्या मतलब होता है,अब दादरी का बिसेहड़ा गांव बखुबी समझ रहा होगा।बिसेहड़ा उन
लोगों को कड़ा संदेश भी दे रहा है जो धर्म की आड़ में समाज को बांटने का काम कर
रहे थे।लेकिन ये भी उतना ही सच है कि हम भी खुद को इस्तेमाल होने में कोई कसर नहीं
छोड़े।
खैर, कहते हैं कि अंत भला तो सब भला।बिसेहड़ा के
लोगों की जिंदगी अब अपने वास्तविक ढर्रे पर आने लगी है,रोजमर्रा का जो सुकून कही
खो गया था,हर तरफ खौफ का जो साया था,अब वो छंटने लगा है।उन्मादी ताकतें और सियासी
नुमाइंदो की चहलकदमी अब इस गांव में कम होने लगी है।अब तो हर कोई इस गांव में
चौपाल लगाकर एकता और भाईचारे की ना सिर्फ बात कर रहा है बल्कि उस पर इमानदारी से
पहल कर मिसाल भी पेश कर रहा है।
जिसकी बानगी देखने को मिली बिसेहड़ा में।दरअसल
गम खा चुके बिसेहड़ा गांव में एक ही मुस्लिम परिवार की दो बेटियां रेशमा और जैतून
का निकाह था।आप सोच सकते है कि चंद दिनो पहले जिस गांव इतना सब कुछ हुआ हो वहां निकाह
कितनी बड़ी बात होगी।रेशमा और जैतून के परिवार में डर और खौफ का माहौल था।लेकिन
चैन ओ सुकून की रफ्तार पकड़ चुके इस गांव में क्या हिन्दु परिवार और क्या मुस्लिम
।हर किसी ने दिल खोल कर रुपये पैसे खर्च किए।बात चाहे शादी के खर्च की हो या फिर
खाने पीने की व्यवस्था हो,या फिर बारातियों के स्वागत और अगुवानी की।हर किसी नें
भेदभाव भुला कर हाथोंहाथ लिया और विवाह सम्पन्न हो गया।
जरा सोचिए जिस गांव में अखलाक की हत्या की गई
वहां के लोंगो का सोचना लाजिमी होगा कि इस गांव में किसी की डोली कैसे उठ सकती है।बिसेहड़ा
में एक दहशत और डर का माहौल खड़ा करने की कोशिश होने लगी थी।क्योंकि जो अपनी
सांप्रदायिक सोच के लोग इस गांव में खुलेआम दस्तक देने लगे थे। उन्हें लगा कि 'धर्म के ठेकेदारी की एक नई जमीन उन के हाथ लग गई है। लेकिन बिसेहड़ा के लोगों
ने उन्हें नकार दिया, निराश कर दिया।
दोस्तों अफसोस तो इस बात का है कि हम अक्सर 'तूफान' के गुजर जाने और बहुत कुछ बर्बाद हो जाने के बाद
ही क्यों एकजुटता का प्रदर्शन करते हैं।सब कुछ लूट जाने के बाद ही हमारी आंखों से
पर्दा क्यों उठता है। हम हमेशा उस तूफान में गिरे घरौंदों, कुचले गए रिश्तों, टूटे विश्वासों को सहजेने की उसी लंबी प्रक्रिया
से गुजरते हैं। फिर एक वैसी ही रात आती है।और दोबारा सब कुछ वहीं पहुंच जाता है।सदियों
की कोशिशें भला क्यों नाकाम हो जाती हैं ? क्यों ?
आखिर कब हम इस नाकामी से निपटने की कला सीखेंगे।जरा
सोचिए गोमांस खाने की अफवाह के बीच जिस शख्स की हत्या हुई, उसकी जिंदगी क्या अब कभी वापस आएगी..?क्या ये कड़वा सच नहीं है कि उस गांव में भविष्य में अनगिनत शादियां और निकाह
होंगे,तीज त्योहार भी मनाए जाएंगे, दिवाली भी होगी और ईद भी मनाई जाएगी। लेकिन अब अखलाक
के परिवार में बकरीद तो मनाई जाएगी लेकिन अखलाक नहीं होगा।अखलाक तो चला गया,अब वो इस
दुनिया में नहीं हैं। लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अखलाक को अपने जेहन में
जिंदा रखें,क्योंकि जब कभी धर्म के ठेकेदार अपनी उग्र भावनाओं का प्रदर्शन कर समाज
को बांटने की कोशिश करें तो उनके मुंह पर हम एकता,सर्व धर्म समभाव का करारा तमाचा
मारा जा सके, और ये बताया जा सके कि चंद उपद्रवी लोगों में वो शक्ति नही जो हिन्दुस्तान को
बांट सके....??जरा सोचिए।।।।
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