Saturday 31 October 2015

चलो सम्मान लौटाएं,सुर्खियां पाएं...!


संदीप कुमार मिश्र: माफ कीजिएगा साब लेकिन सुर्खियां पानी हो तो नया रास्ता तलाश करना पड़ता ही है,टीवी,समाचार पत्रों के पहले पन्ने पर जगह पानी हो तो कुछ तो ऐसा करना होगा जिससे लोगों की नजर में बने रहें।कुछ ऐसा ही हो रहा है इस समय हमारे देश में।सम्मान वापस करने की सोच को आप क्या कहेंगे-देश के हालात पर आहत या सियासत।निश्चित तौर पर आहत तो नहीं,मेरी नजर में सिर्फ और सिर्फ सियासत, सियासत,सियासत।अरे भाई सम्मान वापस ही करना था तो लिया क्यों।क्या सोचा था सम्माननियों की शासन बदलेगा तो लोकतंत्र की परिभाषा बदल जाएगी या फिर संविधान बदल जाएगा।या ये सोचा था कि सत्ता किसी की जागीर है कि जीवन भर एक ही पाले में रहेगी।अजी साब देश के नागरीक होने की बात करते हैं और देश के सम्मान को वापस करते है।सत्ता से लगाव नहीं सम्मान से लगाव तो है,उसका ही शर्म कर लेते कि किस अरमान से आपको सम्मान दिया गया था।या फिर सम्मान भी जुगाड़ से लिया था और अब तकलीफ हो रही है।क्योंकि शायद सम्मान मिलते वक्त इतनी पापुलर्टी नहीं मिली थी जितनी अब मिल रही है।अरे मेरे सम्मानीत साहित्यकारों,इतिहासकारों,फिल्मकारों,और जो भविष्य में सम्मान वापस करन वाले हैं वो सभी सम्मानीतगण,आपका मर्मस्पर्शी,ह्रदयस्पर्शी,कोमल मन तब कहां था जब 1984 के दंगों में देश जल रहा था।तब आपकी पीड़ा कहां गयी थी जब कश्मीर से भोलेभाले मासूम कश्मीरी पंडितों को उनके घर से बेदखल कर दिया गया।और दर दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया गया।बड़े देस भक्त निकले साब आप तो।इससे पहले देश में क्या मौतें नहीं हुई,दंगे नहीं हुए,या बीफ पर बवाल नहीं मचा।आप बड़े आहत है...!वाह जी साब।आहत होने की नई परिभाषा आज पता चली।

सम्माननिय कहते हैं कि उनका दम घुटता है इस देश में।अच्छा जी साब,इससे पहले आपका दम नहीं घुटा जब सैकड़ों की तादाद में इस देश में घपले और घोटाले हुए,सरेराह निर्भया की इज्जत तार तार हुई,गुड़िया के दरिंदे खुली हवा में सांस ले रहे थे, विदर्भ में किसान भूख और सूखे से मर रहे थे।और क्या-क्या याद दिलाएं साब।माफ कीजिएगा लेकिन आप सम्मानियों की सोच कुंए के मेढ़क की तरह है जो कार्पोरेट और पेज थ्री पार्टीयों तक ही सीमित है,अब छोड़िए साब जुबान खुली तो ना जाने कैसी-कैस और कौन कौन सी सच्चाई सामने आएगी लेकिन दिल पर हाथ रखकर अगर इमान है तो उसकी कसम खाकर कहें कि सम्मान क्यों वापस लौटाया।देस की यूवा पीढ़ी आपके पदचिन्हों पर चलती है आपकी लेखनी पर गौरवान्वित महसूस करती है,उन्हें आप क्या सीक देना चाहते हैं।एक हकिकत जान लें साब,इस देश की सत्तर प्रतिशत जनता गांव दिहातों में रहती है और मेरा दावा है कि आपका टारगेट वो भोलीभाली जनता तो कतई नहीं है जिनकी मूल आवश्यकता सिर्फ और सिर्फ दो वक्त की रोटी,तन ढंकने के लिए कपड़ा और सिर छुपाने के लिए एक मकान है।
जानते हैं जनाब बिहार की राजधानी पटना से मात्र 50-55 किमी की दुरी पर एक गांव है,कहने के लिए तो जिला मुख्यालय से मात्र धंटे भर की दूरी पर है लेकिन बेहद अफसोस की बात आज तक वो गांव बुनियादी सुविधाओं से महरुम है,देश के सबसे बड़े सूबे में उन दलित परिवारों की तरफ आपकी नजर नहीं है जो आज भी दबंगो की दरिंदगी का शिकार हैं,आदीवासीयों की उस हालत से आप आज भी महरुम हैं जिसे तन ढंकने के लिए कपड़े तक नहीं हैं।जिवन दायिनी मां गंगा की स्वच्छता पर आपकी कलम नहीं बोलती है,ना ही आपकी जुबान।बोलेगी भी क्यों...?आखिर इससे क्या मिलना है आपको....सम्मान तो मिलने से रहा।हां बीफ पार्टी पर रोक लगने से आपकी आजादी छिन जाती है,आपकी स्वतंत्रता का हनन होता है,आपका इस देश और इस शासन में दम घुटता है। वाह रे तथाकथित सम्मानितजन।करोड़ों देशवासी जिसे मां कहकर सम्बोधित करते हैं,जिसकी पूजा करते हैं,जो सनातन धर्म की पहचान है,उस गौ माता की हत्या तकन से रोक लगाने पर आपको तकलीफ होती है,क्योंकि आपकी पार्टी की रौनक नहीं बनती,मजा नहीं आता ना आपको।
एक बात बताईएगा साब,आपकी कलम और जुबान और जो सम्मान आप वापस कर रहे हैं वो तब क्यों नहीं किया जब गुजरात में कत्लेआम हुआ,अयोध्या में कारसेवकों पर निर्मम गोलियां बरसाई गई।बात तो आप सर्वधर्म समभाव की करते हैं,लेकिन इसका भाव भी जानते हैं आप।विरोध करने के इस तरिके में ही खोट नजर आता है जनाब।अब लोगों को लगने लगा है आपकी इस हरकत पर कि दुकानदारी नहीं चल रही तो सम्मान लौटा रहे हैं,या फिर राजनीति से प्रेरीत होकर सम्मान लौटा रहे हैं।बेहद अफसोस और शर्मनाक।ये देश जितना अकलाक की मौत पर गमजदा है उतना किसी अन्य के भी।जो गलत है वो गलत ही है।लेकिन विरोध करने का तरीका ऐसा होना चाहिए,जिससे समाज नहीं सरकार आहत हो,जिससे लेखनी और मजबूत हो,जिससे जनता का मनोबल बढ़े,।ना की ऐसी हो कि सियासत की बू आए,और ओछापन झलके।विरोध का बहुत सारे तरीके हैं आपको तो पता ही होगा,क्योकि आप तो कलम के सिपाही हैं, या आपकी सारी समझ सियासत पर ही टिकी है। पहले 33 साहित्यकार साहित्य अकादमी का सम्मान वापस करते हैं,फिर और 5 साहित्यकार,इसके बाद 12 फिल्मकार, 50 इतिहासकार,और वैज्ञानिक।मेरी गिनती गलत हो सकती है,ये फेहरिस्त और आगे बढ़ेगी...।क्योंकि ये लोग सम्माननिय जो है।

लेकिन साब एक बात और जान लिजिए,आप सम्मानित हैं तो देश की आवाम जनता जनार्दन महासम्मानित,वंदनीय और पूज्यनीय है।और उसी महासम्मानित जनता ने 2014 के आम चुनाव में सत्ता परिवर्तन किया तो आपको उस जनता का भी सम्मान करना होगा।लेकिन आप तो सरकार विरोधी की तरह पेश आ रहे हैं और ऐसा विरोध सियासी या फिर सियासी मोहरे ही करते हैं।अब आप निर्धारीत करें की आप क्या हैं...? कौन है...?और आपको किसकी परवाह है...?
जरा  निखिल दाधीच की इस कवीता को भी पढ़ लें-

याद करो नौखाली जब कितने हिन्दू सर काटे थे।
हिन्दू अस्मत नीलाम हुई,क्यूँ बोल ना मुंह से फूटे थे।
गांधी नेहरू से ठेकेदार भी जब मांद में छुपकर बैठे थे।
तब कितनों ने आवाज उठाई ? कितनो ने सम्मान लौटाया ?

जब इंदिरा ने आपात लगाया तब क्यूँ देश नजर ना आया?
सिसक रहा था लोकतंत्र काली अंधियारी रातों में।
आजादी थी बंधक और बेड़ी थी जेपी के पाँवो में।
तब कितनों ने आवाज उठाई? कितनों ने सम्मान लौटाया ?

चौरासी में सिखों को जब मौत के घाट उतारा था।
एक तानाशाह की मौत के बदले कितने निर्दोषो को मारा था।
उन खून सने हाथो से लेकर तमगा, तूम मन में फूले थे।
लेकिन बतलाओ तब कितनों ने आवाज उठाई और कितनों ने सम्मान लौटाया?

नब्बे की काली रातों में जब बेघर हिन्दू रोये थे।
ना जाने कितनी माँओ ने आँख के तारे खोये थे।
जब घाटी के चौराहो पर बहनों की अस्मत लूटी थी
तब कितनों ने आवाज उठाई ? कितनों ने सम्मान लौटाया ?

मुलायम ने डायर बनकर जब रामभक्तों को मारा था।
यूपी पुलिस की बंदूको से, बरसा मौत का लावा था।
सरयू का पानी लाल हुआ और मौत का मातम पसरा था ।
तब कितनों ने आवाज उठाई ? कितनों ने सम्मान लौटाया ?

शोक मनाओ बेशक तुम बिसहड़ा के पंगो पर
क्यों बोल नहीं निकले थे मुंह से भागलपुर के दंगो पर।
जब हत्यारों ने मासूमों के खून से होली खेली थी
तब कितनों ने आवाज उठाई ? कितनों ने सम्मान लौटाया ?

एक दादरी याद रहा क्यों मूडबिडरी भूल गए ?
एक हिन्दू की हत्या पर होंठ क्यों सबके चिपक गए ?
गौ माता के देश में जब हिन्दू गौरक्षक मरते है
कितनों ने आवाज उठाई ? कितनों ने सम्मान लौटाया ?
माफ किजिएगा लेकिन पहल आप पर नहीं आपकी बात पर नही,आपकी सोच पर नहीं,बल्कि इस बात पर होनी चाहिए कि हमारा देश सर्वधर्म समभाव की भावना के साथ कैसे आगे बढ़े,और उसे बढ़ाने के लिए हमारी क्या जिममेदारी है,हम क्या कुछ ऐसा करें कि देश का संविधान,सम्मान,समाज गौरवान्वित हो।

एक कविता है जी कि हमारा देश कैसा हो-
सबके दिल में प्यार बसा हो,
सुखी जहां हर इंसान चाहिए।
ऐसा हिन्दुस्तान चाहिए।
जहां जायसी प्रेमचंद हों,सुर रहीम निराला,
जहां पर आंसू हो प्रसाद का,हो मिरा का प्याला,
घर घर में फेरी जाती हो तुलसी जी की माला,
तन में तुलसी बसे जहां पर,रोम रोम रसखान चाहिए।
ऐसा हिन्दुस्तान चाहिए।
जहां खुदा मस्जिद में रहते, मंदिर में भगवान चाहिए।
ऐसा हिन्दुस्तान चाहिए।


बहरहाल मेरे सम्माननियों, तथाकथितों,वरिष्ठो,सियासतदानो इस महान श्रेणी में जो छुट गए हों उन सभी सम्मानितजनो से मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हुं कि इस पूरी लेखनी में जो ठीक लगे वो आपके लिए है और जो ना लगे वो सिर्फ मेरे लिए है....एक बात और ये लिखने की हिम्मत इसलिए कर पाया हुं कि मैं भी इस देश का नागरीक हुं और उतना ही लिखने के लिए स्वतंत्र हुं जितना आप सम्मान वापस करने के लिए,और विरोध करने के लिए...। 

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