आज हमारे समाज में
कुम्हार कहीं ना नहीं मुफलिसी का शिकार हैं...दुसरो के घरों को तो वो रौशन कर देते
हैं...लेकिन खुद उनके घर में अंघेरा ही रहता है...ये कोई नई बात नहीं है...चकाचौंध
भरे समाज में अब बाजारवाद हावी हो गया है ....एक ऐसा बाजारवाद जहां रौशनी तो है लेकिन
अपनो के लिए उजाला नहीं है...जिसका खामियाजा कुम्हारों को भुगतना पड़ता है...
तमसो मा ज्योतिर्गमय...वैदिक सूत्र को चरितार्थ
कर अपने हाथों से दीपक बना कर दूसरों का घर रौशन करने वाले शिल्पी कुम्हारों के घर
आज भी विकास की रौशनी को तरस रहे है....देश को आजाद हुए छह दशक से अधिक की अवधि
गुजर चुकी है....लेकिन कुम्हार अब भी बदहाल है...कुम्हारों की वर्तमान हालात देखकर
जाना जा सकता है...की विकास की दौड़ में आज कुम्हार जाति पिछली पंत्ति में ही है...इनके
रोजी रोजगार पर दिन पर दिन ग्रहण लगता जा रहा है....रोजगार के अभाव में इन्हें
परंपरागत धंधे से दूर जाना पड़ रहा है...कुछ हैं जो अपने पुश्तैनी रोजगार के
अस्तित्व को बचाये रखने के जदोजहाद में लगे है...ये दीपावली के लिए दीपक और पूजन
कलश बना तो रहे है...लेकिन इनके चेहरों पर रोशनी नजर नहीं आती...अपने परंपरागत काम
से गुजारा नहीं होने के कारण अपने पुश्तैनी काम से अब ये दूर होते जा रहे है....
कुम्हार के चाक की रफ्तार अब धिरे धिरे मंद पड़ती
जा रही है...कभी गांव में राज करनेवाला मिट्टी के बरतनों का कारोबार अब फीका पड़
गया है...अब तो खास अवसरों पर ही कुम्हार का चाक धूमता है...और मिट्टी के बरतनों
का उपयोग होता है....।।
अब तो गरीबी की मार झेल रहा कुम्हार...अपने
परंपरागत पेशे से बच्चों को अलग करना शुरु कर दिया है....दिवाली को लेकर गांवों
में कुछ कुम्हारों के द्वारा दीया बनाया जा रहा है....लेकिन वे इस पेशे से संतुष्ट
नहीं हैं...रंगीन बल्वो और र्केडल ने दीया के कारोबार को फीका कर दिया है...
आखिर हमारे देश में सदियों से चली आ रही
परम्परा...आज दम तोड़ती जा रही है...सवाल उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन
है...और कैसे अनमोल मिट्टी के कारीगर की रोजी रोटी चलेगी...और हमारे देश का एक
वर्ग अपने पुस्तैनी कारोबार से खुशहाल हो सकेगा....
संदीप कुमार मिश्र
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