संदीप कुमार मिश्र: दरअसल ये बात हम नहीं
कह रहे हैं...ये कहना है बीजेपी का....दरअसल हमेशा कहा जाता रहा है कि यूपी में
साढ़े चार सीएम और मेघालय में चार, तो बिहार में एक सुपर सीएम क्यों
नहीं?भई बिहार में लालू प्रसाद
को उनके विपक्षी मतलब बीजेपी कुछ इसी अंदाज में घेरने की कोशिश कर रही है।
जरा अतित को खंगालने की कोशिश करते
हैं,कि आखिर कब कब ऐसी बातें होती रही है।आपको याद होगा कि 2010 में ऐसे राजनीतिक
हालात बने कि मेघालय में तीन-तीन नेताओं को मुख्यमंत्री का दर्जा देना पड़ा था।
इसके तहत कांग्रेसी सीएम डीडी लापांग के अलावा कांग्रेस नेता फ्राइडे लिंगदोह, राज्य के योजना बोर्ड के चेयरमैन दॉनकूपर रॉय और आर्थिक विकास परिषद के प्रमुख
जेडी रिम्बेई को मुख्यमंत्री का दर्जा दिया गया। इनमें सुरक्षा और सुविधाएं तो
चारों को हासिल थीं लेकिन फैसले का अधिकार सिर्फ लापांग के पास था।
कुछ इसी तरह बिहार में एक पुल के
उद्घाटन में जब आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद शामिल हुए तो बीजेपी नेता सुशील मोदी
ने नीतीश सरकार पर करारा हमला किया।कुछ ऐसा ही विपक्ष यूपी में साढ़े चार
मुख्यमंत्री की बात लगातार करता रहा है। इनमें मुलायम सिंह यादव और वरिष्ठ नेता
आजम खां के अलावा मुलायम के भाइयों को चार में शुमार किया जाता है। और सीएम अखिलेश
यादव को तो सिर्फ आधा सीएम ही कहा जाता है।
अब साब लगता कुछ ऐसा ही है कि बिहार भी
यूपी की ही राह पर निकल पड़ा है। बिहार में साढ़े चार तो नहीं लेकिन जल्द ही वहां
भी कम से कम ढाई मुख्यमंत्री की चर्चा जरूर होगी। वो दिन दूर नहीं जब नीतीश के साथ-साथ
तेजस्वी और लालू को फैसला लेने का पूर्ण अदिकार मिल जाएगा।
जब बीजेपी ने वार किया तो सुशासन बाबू क्यों
चुप रहते।लालू का बचाव करते हुए नीतीश ने कहा कि, "लालू प्रसाद सत्तारूढ़
गठबंधन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और पूर्व मुख्यमंत्री हैं, उनके कहीं जाने पर लोगों को क्यों आपत्ति है। हम भी तो विरोधी दल के नेताओं, सभी दलों के सांसदों और विधायकों को शिलान्यास, कार्यारंभ और उद्घाटन
में बुलाते हैं।विकास कार्यों में बाधा नहीं होनी चाहिए। लेकिन बीजेपी इस बात पर
भी एतराज जता चुकी है कि लालू प्रसाद सीधे अफसरों को फोन कर देते हैं।लगे हाथ
नीतीश कुमार इस बात का जवाब भी दे देते हैं जिसमें अफसरों के लिए भी गाइडलाइन
शामिल होती है।
सुशासन बाबू साफ कहते हैं कि, "हम महागठबंधन धर्म का पालन करना जानते हैं।महागठबंधन धर्म के आचार संहिता के
अनुसार काम करते हैं।घटक दलों ने विश्वास किया है।जनता द्वारा दिए गए दायित्वों का
निर्वहन कर रहे हैं।हम घटक दल को एकसूत्र में बांधकर काम करते हैं।हम अधिकारियों
को कहते हैं कि जनप्रतिनिधि जो जनहित में काम कहें, उसे करिए, उनका सम्मान कीजिए।"
अब एक कार्यक्रम को ही लिजिए जहां तेज
प्रताप की जगह स्वास्थ्य विभाग के समारोह में खुद लालू ही पहुंच गए।जबकि बतौर
स्वास्थ्य मंत्री लालू के बेटे तेज प्रताप को शामिल होना था।लालु ने बाकायदे कहा
भी कि तेज प्रताप व्यस्त थे सो वो खुद चले आए। भई वाह! मानना पड़ेगा कोई तो है जो
बिहार का इस हद तक ख्याल रखता है। किसी को तो बिहार की इस कदर फिक्र है।साब अब इस
फिक्र पर सही राय तो संविधान विशेषज्ञ ही दे सकते हैं लेकिन ऐसी मंशा पर लोग तो
सोचेंगे ही।
अब आप बताईए कि क्या बिहार में वो दिन
भी करीब है जब लालू यादव डिप्टी सीएम के दफ्तर में कामकाज करते देखे जाएं।भई मान
लिया जाए कि अगर तेजस्वी कहीं बाहर चले जाएं या फिर कोई और वजह से दफ्तर ना जा
पाएं तो काम तो नहीं रुक सकता ना...अरे साब बिहार का विकास जो करना है।ऐसे में एक
पिता और सत्तारुढ़ पार्टी के मुखिया का क्या कर्तव्य बनता है...उसे तो फौरन ही
दफ्तर पहुंचना होगा ना....!
अंतत: कौन कहे कि साब कि सचिवालय कोई ठेला
नहीं है कि घर का कोई भी लेकर निकल पड़े और शाम को जमापूंजी लेकर वापस घर लौट
आए।बुरा मत मानिएगा जनाब लेकिन लोकतंत्र के लिए ये ठीक नहीं है।इस बात को सुशासन
बाबू को तरिके से समझना होगा क्योंकि सत्ता और कुर्सी किसी की सगी नहीं होती...एक
बार मिल गयी तो क्या गारंटी है पिर मिलेगी।ऐसे भी चारे का मारा सत्ता से कितने दिन
दूर रह सकता है अवसर मिला है तो लाभ तो उठाएंगे ही। लेकिन आप को बहुत काम करने हैं
क्योंकि गुंडाराज और जंगलराज की आहत सुनाई पड़ने लगी है...।
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