संदीप कुमार मिश्र: ये बात करीब चालीस साल पहले की है जब देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश के
औद्योगिक केंद्र कानपुर को एशिया का मेनचेस्टर कहा जाता था।दोस्तों कानपुर भारत का
एकमात्र ऐसा शहर था, जहां सबसे ज़्यादा कपड़े का उत्पादन हुआ करता था।हमारे देश की बढ़ती अर्थव्यवस्था
में कानपुर का योगदान बेहद महत्त्वपूर्ण हुआ करता था।
दरअसल आज़ादी के पहले की बात करें तब भी
कानपुर शहर अंग्रेज़ों के लिए बहुत खास था और शहर में एल्गिन मिल, स्वदेशी मिल के साथ ही लाल इमली मिल चलायी जाती थी, जो समुचे विश्व में कपड़ा उत्पादन के लिए प्रसिद्ध थीं।उस समय इन मिलों में
लाखों लोगों को रोज़गार मिला करा था। आज़ादी के बाद 1947 से 1971 तक कम्युनिस्ट पार्टी के एसएम बनर्जी कानपुर के सांसद थे, जिन्होंने केंद्र सरकार के साथ मिलकर इन मिलों को और बढ़ाया। 1974 तक शहर की इन
मिलों ने पूरी दुनिया में अपना कद बढ़ाया, लेकिन देश में इमरजेंसी लगने के
बाद से ही कानपुर को ग्रहण लगना शुरू हो गया।
उस समय की केंद्र सरकार की अनदेखी और
इमरजेंसी के दौरान आए राजनीतिक भूचाल का असर सीधे तौर पर इन मिलों पर पड़ा और 1990
तक इन मिलों में कपडा उत्पादन लगातार घटने लगा और कुछ सालों बाद ये मिलें बंदी की
कगार पर आ गईं और यहां काम करने वाले लाखों लोग बेरोज़गार हो गए।जब कानपुर की हालत
खस्ता हो रही थी तो इस शहर को संभाला चमड़ा व पान मसाले के उद्योग ने। शहर के जाजमऊ
इलाक़े में सैकड़ों टेनरियां खुली। यही नहीं यहां पान मसाला और गुटखा का उत्पादन
करने वाली कई फैक्टरियां खुली। शहर में बनने वाले चमड़े व मसालों की सप्लाई न केवल
पूरे देश में हुई बल्कि भारी मात्र में निर्यात भी शुरू किया गया। शहरवासियों ने
इन उद्योगों को आगे बढ़ाकर कानपुर का नाम फिर पूरी दुनिया में ऊंचा किया। लेकिन आगे बढ़ने का ये सफर कुछ समय बाद एक बार फिर थमने लगा।
आपको बता दें कि उत्तर प्रदेश में 1990
से लेकर अभी तक बीएसपी, बीजेपी और सपा की सरकारें रहीं। लेकिन राज्य सरकारों की अनदेखी के
चलते शहर का बेसिक इंफ्रास्ट्रक्चर बेहद खराब होता चला गया। शहर की सड़कें ख़स्ताहाल
होती गईं और बिजली कटौती तेज़ी से बढ़ती गई। रोज़गार के लिए कानपुर में आसपास के कई
राज्यों से लाखों लोग आए,
जिससे शहर की आबादी बढ़ती गई, लेकिन बिजली सप्लाई का
हाल ठीक होने की बजाय और बुरा होता गया।
जिसका परिणाम ये हुआ कि शहर के हज़ारों
मसाला व्यापारियों ने कानपुर से अपनी फैक्टरियां का रुख अन्य शहरों की ओर कर
लिया।आपको बता दें कि कानपुर गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है। जाजमऊ इलाके में
स्थित चमड़ा व्यापारियों ने फैक्टरियों से निकलने वाले कूड़े को भारी मात्रा में
गंगा में फेंकना शुरू कर दिया, क्योंकि यहां कूड़े के डिस्पोजल के लिए
प्रशासन द्वारा कोई कदम नहीं उठाए गए, जिससे गंगा बुरी तरह दूषित हुई।
उद्योग के कारण शहर में प्रदूषण भी बढ़ता गया। जब प्रदूषण शहरवासियों के लिए जानलेवा
साबित होने लगा तो राज्य सरकारों और शहर प्रशासन ने फैक्टरियों पर चालान करना शुरू
कर दिया। कई फैक्टरियों को बंद भी करा दिया गया।लेकिन इसका स्थायी समाधान नहीं
खोजा गया,जिससे कि फैक्टरीयों का पलायन जारी रहा।
अगर लेदर कॉउंसिल ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट
की माने तो कानपुर शहर में 12000 करोड़ का चमड़ा व्यापार था, जो घटकर अब महज़ 3200 करोड़ रह गया है। शहरवासियों को काफी उम्मीदें थी कि लाल
इमली व एल्गिन जैसी बड़ी मिलें फिर से शुरू कराई जाएंगी, लेकिन सरकार की कारगुज़ारी के चलते कोई कदम नहीं उठ पाया और 2005 में इन दोनों
मिलों में ताला लग गया।बंद कंपनीयां तो सिर्फ चुनाव जितने के लिए सियासी मुद्दा बन
कर रह गयी ।
सियासत का शिकार कानपुर…!
पिछले पच्चीस सालों में एक बार बीजेपी, दो बार बीएसपी और दो बार सपा प्रदेश की सत्ता पर काबिज रही।कानपुर में दस
विधानसभा सीटें हैं, लेकिन यहां पर हर बार इन चार राजनीतिक दलों को लगभग बराबर सीटें मिलती रही हैं।
लोकसभा सीट पर सात साल बीजेपी रही तो पंद्रह साल कांग्रेस, लेकिन राज्य में बीते 15 सालों से सपा और बीएसपी की सरकार बनती आ रही है। कई बार मुलायम और मायावती ने
कानपुर आकर नाराज़गी व्यक्त की, कि कानपुर ने उन्हें कुछ नहीं दिया तो वह शहर के
बारे में क्यों सोचें। इसका मतलब यह था कि किसी बार भी लोकसभा में सपा और बसपा का
उम्मीदवार नहीं जीता।
कानपुर के सबसे बड़े नेता श्री प्रकाश
जायसवाल जो पंद्रह साल सांसद रहे और केंद्रीय कोयला मंत्री के साथ ही गृह राज्य
मंत्री भी रहे, लेकिन उन्होंने शहर के लिए कुछ ख़ास नहीं किया। कई बार लोगों ने सड़क पर उतरकर
उनके खिलाफ आक्रोश भी व्यक्त किया।इतना ही नहीं पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने
करीब चार साल पहले शहर में रैली के दौरान
लाल इमली और एल्गिन मिल को चलाने और शहर में उद्योग फिर से स्थापित कराने का वादा भी
किया था, लेकिन तब की केंद्र सरकार की तरफ से
कोई पहल नहीं की गई।जिसका खामियाजा कानपुर को भुगतना पड़ रहा है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश
यादव ने भी कानपुर की जनता को सिर्फ सब्जबाग ही दिखाए और शहर में किसी तरह का कोई
विकास कार्य नहीं कराया गया।फिलहाल कानपुर से बीजेपी के सांसद मुरली मनोहर जोशी
हैं, जिनकी गिनती बीजेपी के सबसे वरिष्ठ नेताओं में होती है। उनको सांसद बने लगभग
दो साल बीत गए हैं, लेकिन शायद ही वह दस बार भी कानपुर आए हों। जबकि कानपुर के बीजेपी कार्यकर्ता अपने
सांसद से लगातार अपनी नाराजगी जाहीर कर चुके हैं।कई बार तो जोशी जी के लापता होने
का पोस्टर भी लगा चुके हैं।
अंतत: ज़ाहिर है कि कानपुर में पार्टिया वोट की राजनीति से उपर उठकर सोची होंती तो अब
तक लाखों लोगों को रोजगार भी मिला होता और प्रदेश के राजस्व में भी बढ़ोतरी हुई
होती।इतना ही नहीं एशिया का मेनचेस्टर कानपुर इस तरह आंसु नहीं बहा रहा होता।
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