संदीप कुमार मिश्र: प्रद्युम्न का गुनहगार कौन ? क्या हम सब ?आखिर कहां पैदा होते
हैं शैतान।क्या मासुमियत की सजा मौत है? क्या बड़े स्कूल
में पढ़ाने का सपना देखना गलत है ? ओह ! शैतानो को पहचानने के लिए इतने राम कहां से लाऊं
कि हर चेहरे के पीछे छिपे असली चेहरे को पहचाना जा सके,और फिर कोई प्रद्युम्न अपनी
मां से हमेशा के लिए दूर ना चला जाए।क्योंकि सत्ता और सियासत में तो मुद्दों की
आवश्यकता होती है ना,ममत्व और इंसानियत की नहीं...क्यों ?
क्योंकि गहरी
संवेदना,घोर निंदा,कड़ी भर्तस्ना के अलावा हासिल क्या हुआ है मेरे देश में अब
तक..हां कैंडल मार्च और थोड़ा शोर हंगामा बरपा और फिर लाठीचार्ज के बाद जांच पर
जांच... जांच पर जांच..हर बार यही तो होता है....।
ऐसे में ये सोच पाना
बड़ा मुश्किल है कि क्या शहरों में बढ़ता बोझ इसके लिए दोषी है,खान-पान दोषी है।
जिससे कि हमारी मानसिकता ही दुषित होती जा रही है,या फिर गरीबी-भुखमरी या हमारी
शैतानी मानसिकता और दिवालियापन।क्योंकि हालात चाहे जैसे भी हों मानवता इतनी गिरी
तो नहीं हो सकती।
प्रद्युम्न,
नाम तो सुना ही होगा आपलोगों ने !!“बड़ी
कच्ची और कोमल सी उम्र मात्र सात साल !रोज की तरह ही सुबह अपने मम्मी-पापा
के लाख पुचकारने और दुलारने के बाद उठा होगा !पापा ने ब्रश करवाकर नहलाया होगा और मां
जल्दी-जल्दी नाश्ता तैयार की होगी !
इतना ही नहीं,मां ने रोज की तरह ही प्रद्युम्न को स्कूल के लिए सुबह के नाश्ते का
एक निवाला भी अपने हाथ से बड़े प्यार से खिलाया होगा। और लंच में सेव काटकर रखते
हुए कहा होगा कि “बेटा पराठे और ऐपल
रख दिया है खा लेना और किसी को मत खिलाना! ठीक।“ नन्हा बच्चा था
ना, खड़ा सेव कैसे खाता,मां की ममता का क्या
करें साब.. उसके सामने तो देवता भी नतमस्तक हैं।और पापा तो लगे होंगे रोज की तरह
ही स्कूल की यूनीफार्म,टाई बेल्ट,आई
कार्ड और जूते पहनाने में और फिर मोहल्ले के बाहर बस स्टाप तक दौड़ कर गए होंगे कि
कहीं बस ना छूट जाए....ओह !”
लेकिन
कौन जानता था कि आज उनके कलेजे का टुकड़ा वापस नहीं आएगा...आज की दोपहरी में पसीने
से तरबतर स्कूल से वापस आते हुए बस स्टाप से मां को प्रद्युम्न के बैग को उठकर ले जाने का अवसर नहीं मिलने
वाला है।ओह !कौन जानता था कि जिस बेटे को डाक्टर,इंजीनियर बनाने
और अपने बूढ़ापे की लाठी बनने के सपना देखा था आज उससे मुलाकात की अंतिम दोपहरी
है...अब वो कभी वापस नहीं आएगा...छोड़ जाएगा हमें सदा सदा के लिए..हमेशा के लिए!
हालात
इतने बिगड़ चूके हैं कि ना तो सही शिक्षा की गारंटी है,ना ही सुरक्षा की और ना ही
स्वास्थ्य की।फिर ना जाने हम क्यूं कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं।शर्म
आती है ऐसी व्यवस्था पर।क्या सोचा है हम सब ने कभी कि हम सरकारी स्कूल में बच्चों
को क्यों नहीं भेजना चाहते ! इसीलिए ना कि सरकारी स्कूलों में शिक्षा,सुरक्षा की गारंटी नहीं
होती है,तो इसके लिए कौन है दोषी ? तभी तो हम "निजी स्कूल" की तरफ
भागते हैं ना।जहां आधुनिकता से सुसज्जित चकाचौंध को देखते हुए सिर्फ निजी ही नहीं ‘इंटरनेशनल स्कूल’ में कोशिश करते हैं की हमारे बच्चे का एडमिशन हो
जाए...आखिर सवाल बच्चे के भविष्य का जो है।ख्वाब तो देख ही सकते हैं साब कि हमारा
बच्चा बढ़िया पढ़ाई
करेगा,जल्दी से अंग्रेजी बोलेगा,हार्स राइडिंग, स्विमिंग, कराटे,स्केटिंग और कलचरल प्रोग्राम में हिस्सा
लेकर मेरा और देश का नाम रौशन करेगा।क्योंकि प्राइवेट स्कूल में तो हाई-फाई टीचर्स होंगे,बेहतरिन
सिक्योरिटी होगी,टाप क्लास के टीचर होगे...क्यों ! ऐसा ही है ना ‼
फिर
क्यूं गुरुग्राम के "रेयान इंटरनेशनल स्कूल" में प्रद्युम्न के साथ ऐसा
हुआ...जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया..आखिर क्यूं क्यूं क्यूं...?
ये
सोचकर शरीर में सिहरन होने लगती है कि मात्र सात साल का मासूम प्रद्युम्न जो अभी दूसरी
क्लास में ही था,उसके साथ शिक्षा के मंदिर में ना केवल दरिंदगी की गई, बल्कि उसका गला रेत कर हमेशा के लिए
उसे मौत की नींद सुला दिया गया।रोंगटे खड़े हो जाते हैं उस ह्रदय विदारक भयानक
दृश्य की कल्पना करने भर से...
दरअसल
सवाल उठता है कि क्या ये पहली बार हुआ है।साल दर साल यही तो होता आ रहा है।क्यूं
नहीं सरकार और स्कूल प्रशासन ऐसी घटनाओं से सचेत हो रहे है।और कितने प्रद्युम्न
असमय इस संसार को अलविदा कहते रहेंगे।आखिर किस गुनाह की सजा उन्हें मिल रही
है।मासूम बचपन के दुश्मनों को सजाए मौत क्यों नहीं मिलती...आखिर कब तक मांए हर बार
रोती रहेंगी, सिसकती रहेंगी।
ऐसे
व्यवसायिक स्कूलों पर क्यों नहीं कड़ी कार्यवाही होती है जिनके लिए स्कूल किसी
धंधे और नोट छापने की मशीन से ज्यादा कुछ नहीं है।शिक्षा का मंदिर आखिर कब तक
बदनाम होता रहेगा...आखिर कब तक ? या फिर कुछ वक्त शोर हंगामें के बाद
बदलाव के नाम पर एक और नयी दुर्घटना का
इंतजार करेंगे....
ओ
देश के रखवालों...क्या संविधान में कोई ऐसा प्रावधान नहीं कि मासूमों की मौत पर
सियासत की बजाय न्याय का प्रावधान हो...हर बार कब तक कोई
निर्भया,गुडिया,प्रद्युम्न जैसे लोग बली की वेदी पर चढ़ते रहेंगे और दरिंदे पैदा
होते रहेंगे...दरिंदगी की इस पौध को जड़ से खत्म नहीं कर सकते तो आग लगा दो ऐसे
संविधान को क्योंकि हम तो अपने बच्चे को अंधेरी कोठरी में रख कर रूखा सूखा खिलाकर जी
लेंगे लेकिन आप सोचिए की ये दरिंदे क्या किसी के सगे हैं...????
अंतहीन
कालकोठरी में सुबक-सुबक कर रो रही है इंसानियत,और रुपयों पैसों के लोभी दानवों
दरिदों का अट्टहास लगातार बढ़ता जा रहा है !!
हा हा हा हा हा हा
हा हा हा..डर लगता है...हे राम ! अब तो आ ही जाओ...बस आ ही जाओ।
माफ करना प्रद्युम्न,लगता
है कि ये दरिंदों का शहर है !
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