(संकलन)श्रीरामचरितमानस में
गोस्वामी जी ने सहज ही प्रभु श्रीराम के प्राकट्य का मनमोहक वर्णन किया है।आईए हम
सब भी भाव सहित मानस की चौपाईयों का गान कर इस पावन अतिशुभ अवसर का आनंद उठाएं।।जय
जय श्री सीताराम।।
-:दोहा:-
जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए
अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम
सुखमूल॥190॥
भावार्थ:-योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हर्ष
से भर गए। (क्योंकि) श्री राम का जन्म सुख का मूल है॥190॥
-:चौपाई:-
नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल
पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन
काल लोक बिश्रामा॥1॥
भावार्थ:-पवित्र चैत्र का
महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्
मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शांति देने वाला था॥1॥
सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित
सुर संतन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा।
स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥
भावार्थ:-शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और
संतों के मन में (बड़ा) चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ
अमृत की धारा बहा रही थीं॥2॥
सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले
सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल संकुल सुर जूथा।
गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा॥3॥
भावार्थ:-जब ब्रह्माजी ने
वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान सजा-सजाकर
चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गंधर्वों के दल गुणों का गान करने
लगे॥3॥
बरषहिं सुमन सुअंजुलि साजी।
गहगहि गगन दुंदुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा।
बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥
भावार्थ:-और सुंदर अंजलियों
में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाड़े बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से
अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेंट करने लगे॥4॥
-:दोहा:-
सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज
निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक
बिश्राम॥191
भावार्थ:-देवताओं के समूह
विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शांति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥191॥
-:छन्द:-
भए प्रगट कृपाला दीनदयाला
कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी
अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज
आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला
सोभासिंधु खरारी॥1॥
भावार्थ:-दीनों पर दया करने
वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए।
मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई।
नेत्रों को आनंद देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बड़े-बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर
राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥
कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी
केहि बिधि करौं अनंता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद
पुरान भनंता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि
गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ
प्रगट श्रीकंता॥2॥
भावार्थ:-दोनों हाथ जोड़कर
माता कहने लगी- हे अनंत! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम
को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं।
श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए
हैं॥2॥
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया
रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत
धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना
चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि
प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥
भावार्थ:-वेद कहते हैं कि
तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे)
हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों
की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना
चाहते हैं। अतः उन्होंने (पूर्व जन्म की) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो
(भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)॥3॥
माता पुनि बोली सो मति डोली
तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह
सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ
बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं
ते न परहिं भवकूपा॥4॥
भावार्थ:-माता की वह बुद्धि
बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोड़कर अत्यन्त प्रिय
बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम
होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर
रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप
में नहीं गिरते॥4॥
-:दोहा:-
बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन
गो पार॥192॥
भावार्थ:-ब्राह्मण, गो, देवता और संतों के लिए
भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं।
उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बंधन से परवश होकर त्रिगुणात्मक
भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥
-:चौपाई:-
सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी।
संभ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद
मगन सकल पुरबासी॥1॥
भावार्थ:-बच्चे के रोने की
बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आईं। दासियाँ हर्षित
होकर जहाँ-तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनंद में मग्न हो गए॥1॥
दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना।
मानहु ब्रह्मानंद समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत
उठन करत मति धीरा॥2॥
भावार्थ:-राजा दशरथजी पुत्र का जन्म
कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनंद में अधीर हुई) बुद्धि को
धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥
जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें
गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानंद पूरि मन राजा। कहा
बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥
भावार्थ:-जिनका नाम सुनने से ही
कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं।
(यह सोचकर) राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजे वालों को बुलाकर
कहा कि बाजा बजाओ॥3॥
।।प्रेम से बोलिए
मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र जी महाराज की जय।।