Friday, 23 March 2018

23 मार्च शहीद दिवस : आजादी से मोहब्बत करके जिन्होंने मौत को अपनी दुल्हन बना लिया


संदीप कुमार मिश्र: जब भी हमारे ज़हन में देश की आजादी का ख्याल आता है तो पहला नाम जो आज के युवाओं को याद आता है वो है शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का।जो देश की आजादी की खातिर हंसते हंसते फांसी के फंदे पर हम सब से विदा ले गए।सच है दोस्तों आजादी के इन हरफनमौला दिवानो का जब भी जिक्र होता है तो सवा सै करोड़ भारतीय का सीना फक्र से चौड़ा और ,माथे पर चमक जोश और उत्साह बरबस ही  देखने को मिल जाता है। आज शहीदी दिवस है।हम सब जानते हैं कि 1931 में आज ही के दिन शहीदे आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी गई थी।

भगत सिंह प्रायः यह शेर गुनगुनाते रहते थे-
जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है
सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं...
दरअसल दोस्तों उम्र के जिस पड़ाव पर लोग अपने सुनहरे भविष्य के सपने संजोते हैं वहां मां भारती के इन वीर सपूतों ने गुलामी की जंजीरों में जकड़ी भारत माता की आजादी से मोहब्बत करके मौत को अपनी दुल्हन बना लिया।तभी तो स्वतंत्रता से इश्क करने वाले शहीद भगत सिंह का नाम कभी अकेले नहीं लिया जाता, उनके साथ राजगुरु और सुखदेव का भी जिक्र हमेशा होता है।
मित्रों जब अंग्रेजों के अन्याय और अत्याचारों से देश में हर तरफ हाहाकार मचा हुआ था तो अनेकों वीर सपूतों ने अंग्रेजों की दासता से भारत माता को मुक्ति दिलाने की खातिर अ हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

लिख रहा हूं मैं अंजाम,जिसका कल आगाज आएगा।मेरे लहू का हर इक कतरा इंकलाब लाएगा ।।
मैं रहूं ना रहूं पर ये वादा है मेरा तुमसे।मेरे बाद वतन पर मरने वालों का सैलाब आएगा।।

कहते हैं कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी विचारों से भारत के नौजवानों में स्वतंत्रता के प्रति ऐसी अलख जगा दी कि अंग्रेज सरकार को डर लगने लगा कि कहीं उन्हें भारत छोड़ कर भागना न पड़ जाए। आज़ादी के तीनों मतवालों ने ब्रिटिश सरकार की रातों की नींद हराम कर दी थी। दरअसल अपने निर्धारित योजना के अनुसार भगत सिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने ८ अप्रैल, १९२९ को केन्द्रीय असेम्बली में एक खाली स्थान पर बम फेंक दिया।बम फेंकने के बाद वे चाहते तो भाग सकते थे लेकिन भगत सिंह की सोच थी की गिरफ्तार होकर वे अपना सन्देश बेहतर ढंग से दुनिया के सामने रख पाएंगे ।जिसका परिणाम हुआ कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 24 मार्च 1931 को तीनों को एक साथ फांसी देने की सजा सुना दी गई।फांसी की चर्चा आग की तरह चारो तरफ फैल गई,जिसे सुनकर लोग इतने भड़क चुके थे कि भारी भीड़ के रूप में उस जेल को घेर लिया लोने ने जहां फांसी दी जानी थी ।
इस बात से अंग्रेज इतने डर गए कि कहीं विद्रोह न हो जाए इसलिए एक दिन पहले यानी 23 मार्च 1931 की रात को ही भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दे दी। इतना ही नहीं चोरी छिपे उनके शवों को जंगल में ले जाकर जला दिया।

दोस्तों भगत सिंह और सुखदेव कालेज के युवा स्टूडैंट्स के रूप में भारत को आजाद कराने का सपना संजोये बैठे थे तो वहीं दूसरी ओर राजगुरु विद्याध्ययन के साथ कसरत के काफी शौकीन थे और उनके बारे में कहा जाता है कि उनका निशाना अचूक था।
ये सभी आजादी के दिवाने चंद्रशेखर आजाद के विचारों से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने क्रांतिकारी दल में शामिल होकर बहुत कम समय में ही अपना विशेष स्थान बना लिया था। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आज आजादी के जोशीले दीवानों के रूप में तो हम सब जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग इस बात से अवगत हैं कि जेल में लम्बे समय तक रहते हुए उन्होंने कई विषयों पर अध्ययन किया और अनेकों लेख लिखे।जिसे उनकी मृत्यु के बाद अनेकों लेख प्रकाशित किए गया।

मेरे जज्बातों से इस कदर वाकिफ है मेरी कलम।मैं इश्क भी लिखना चाहूं तो इंकलाब लिखा जाता है                                                                   (भगत सिंह) 

अंग्रेजों ने भगतसिंह को तो खत्म कर दिया पर वह भगत सिंह के विचारों को खत्म नहीं कर पाए। जिसने देश की आजादी की नींव रख दी।आज भी देश में भगतसिंह क्रांति की पहचान हैं।अपनी छोटी सी आयु में ही देश पर जान कुर्बान करने वाले इन क्रांतिकारी शहीदों को शत्-शत् नमन,प्रणाम।इंकलाब-जिंदाबाद।जय हिन्द।

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