मेरा आपकी कृपा से हर काम हो रहा है।
करते तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है।।
संदीप कुमार मिश्र: अभिमान और स्वाभिमान में बड़ा ही बारीक फर्क है।जो इस अंतर को समझ गया उसे
परमधाम प्राप्त हो गया,आनंद मिल गया और जो नहीं समझा उसे माया के चक्कर में फंस
जाना पड़ा और उपहास का पात्र होना पड़ा।जहां ‘मैं’ का भाव आ गया वहां श्री कृष्ण रह ही नही
सकते।कृष्ण तो प्रेम और भाव में रहते है।उन्हें कहां मैं और मेरा से मतलब।कन्हैया
का तो एहसास ही,स्मरण ही बिगड़ी को बनाता है।बस आवश्यकता उसे जानने और समढने की
है।
अब इसे थोड़ी सरलता से एक कहानी के
माध्यम से जानते हैं-
‘श्रीमद्भागवत गीता’ का एक रोचक प्रसंग,
दरअसल महाभारत के युद्ध के बाद जब सत्य
की स्थापना हो गई तब योगीराज प्रभु श्रीकृष्ण की ऐसी चाह थी की उनके शरीर त्यागने
के बाद द्वारका में रहने वाले संपूर्ण जनमानस पार्थ यानी अर्जुन की देखरेख में पाण्डवों
के राज्य हस्तिनापुर को चले जाएं।प्रभु का आदेश पाकर अर्जुन समस्त नगर वासीयों को
लेकर जाने लगे तभी रास्ते में उपद्रवियों ने लूटमार शुरू कर दी। जो कि धनुरधारी अर्जुन
से देखा नहीं गया और शीघ्र ही अर्जुन का हाथ गाण्डीव की तरफ बढ़ गया।लेकिन अफसोस!
गाण्डीव का वजन इतना बढ़ गया कि प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर गाण्डीव अर्जुन से उठा तक
नहीं।आश्चर्य था कि इतने बड़े अजेय योद्धा के सामने नर नारी लूटे जा रहे थे और
अर्जुन विवश होकर सिर्फ देख सकते थे, कर कुछ नही पा रहे थे।तभी घटनघोर बिजली कड़की
और केशव,परम पुरुष,योगीराज श्रीकृष्ण शब्द गुंजने लगे-हे पार्थ- ‘तुम तो सिर्फ निमित्त
मात्र हो।’
मित्रों ‘श्रीमद्भागवत गीता’ का यह मार्मिक प्रसंग है जो एक अटल और अखंड सत्य का बोध कराता है। हमारे जीवन
में जब-जब कृष्ण का एहसास नही होता, तब-तब मनुष्य हमारी शक्ति,ऊर्जा,ज्ञान
सब कुछ शुन्य हो जाता है।श्रीकृष्ण का हमारे जीवन में रहना शाश्वत मूल्यों का बने रहना है।क्योंकि श्रीकृष्ण प्रतिक हैं प्रेम
के निर्वाह का, अन्याय के प्रतिकार का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। भक्ति और
मुक्ति का।आनंद के एहसास का।
बाल्यावस्था से ही श्रीकृष्ण की लीलाएं
अत्याचार के विरुद्ध थी।समाज को सशक्त बनाने की थी।नगर ग्रामवासीयों को स्वावलंबी
बनाना ही उनका उद्धेश्य ता तभी तो इंद्र से वैर करते कन्हैया ने गोवर्धन उठा
लिया,कालिया नाग को यमुना से खदेड़ा।और भी अन्य लीलाओं के पीछे का भाव सहज ही मानव
कल्यार्ण था। जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने कंस,जरासंध,शिशुपाल जैसे मानवता विरोधी
शक्तियों का विनाश किया,लेकिन ऐसा करने से
पहले सुधार का उन्हे भरपूर अवसर भी प्रदान किया।क्योंकि
कोशिश अवश्य करनी चाहिए। शांति और सत्य की स्थापना के लिए श्रीकृष्ण नें विनाशकारी
महाभारत का युद्ध ना हो इसके लिए भी हर संभव प्रयास किया। सुधार का एक अवसर
श्रीकृष्ण नें सदैव लोगों को दिया।
कर्म की प्रधानता और जिम्मेदारी की सीख
लेनी हो तो योगीराज श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन में निरंतरकृष्ण
को आत्मसात करना ही पड़ेगा,तभी सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलेगी। अच्छाई और
बुराई,जस अपजस,लाभ हानी सब कुछ कृष्णार्पित करने से ही जीवन में आनंद की प्राप्ती
होगी।
जय श्री कृष्ण
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