संदीप कुमार मिश्र: कलिपावनावतार,पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज की जयंती आज समस्त संसार मना रहा है।गोस्वामी
जी महाराज की देन है कि भारतिय सभ्यता संस्कृति को श्रीरामचरितमानस के माध्यम से
समस्त संसार,भगवद् प्रेमी सत्संग और त्रान का अनुशरण कर रहा है।मानस की व्यापकता
और प्रमाणिकता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आज की आपाधापी भरी जींदगी
में केजी में पढ़ने वाले बच्चे से लेकर से पीजी तक के विद्यार्थीयों भी मानस का
अध्ययन कर स्वयं को धन्य कर रहे हैं। गोस्वामी जी ही हैं जिन्होंने आमजनमानस के
लिए बड़े ही सरल और सुलभ शब्दों में मानस की रचना कर जगत को प्रभु श्रीराम के
गुणगान का वर्णन कर हम सबको कृतार्थ किया।
पंद्रह सै चौवन विषै,कालिंदी
के तीर,
सावन शुक्ला
सप्तमी,तुलसी धरेउ शरीर।
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का जन्म
विक्रमी सम्वत् 1554 की श्रावण शुक्ल सप्तमी को बांदा जिले के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था।
इनके पिता का नाम श्री आत्मा राम दुबे तथा माता का नाम हुलसी देवी था।कहा जाता है
कि जन्म के समय जहां बालक रोता है तो वहीं तुलसी बाबा जन्म के समय रोये नही बल्कि
उनके मुख से तो राम-नाम निकला।
कहते हैं कि भगवान शंकर की प्रेरणा से
स्वामी नरहर्यानंद जी गोस्वामी जी को अयोध्या ले गए और यज्ञोपवीत-संस्कार करके उनका नाम ‘रामबोला’ रख दिए।तुलसी बाबा की की बुद्धि अत्यंत प्रखर और तेज थी।जो भी गोस्वामी जी
सुनते उसे वो कंठस्थ याद कर लेते थे।गोस्वामी जी जब अयोध्या से अपने गुरुदेव भगवान
के (श्री नर हरिदास जी) साथ सोरो आए, तब पहली बार गुरुदेव के मुखारविंद
से इन्हें पवित्र रामकथा-श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।बाद में बाबा भोलेनात
की नगरी काशी में जाकर गोस्वामी जी ने श्री शेष सनातन जी से पंद्रह वर्षों तक वेद
शास्त्रों का गंभीर अध्ययन और मनन किया।
हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।
कहा जाता है कि गोस्वामी जी की धर्मपत्नी
रत्नावली जब अपने मायके चली गई थी तब पत्नीमोह में आसक्ति के कारण तुलसी बाबा भी
उनके पीछे-पीछे ससुराल पहुंच गए। जिसपर देवी रत्नावली ने गोस्वामी जी को धिक्कारते
हुए कहा कि, ‘‘जितना प्रेम तुम हाड़ मांस से बने मेरे शरीर से करते हो उसका आधा भी यदि भगवान
से कर सको तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा।’’ इस प्रकार की उलाहना और सत्य ने गोस्वामी जी के मानस पटल पर
ऐसा असर किया कि उन्होंने वैराग्य घारण कर लिया और सीधे प्रयागराज आकर विरक्त हो गए।
पूज्यपाद गोस्वामी जी प्रयागराज(इलाहाबाद)
में नित्य मां गंगा के पार जाया करते और वापस लौटते समय लोटे का बचा हुआ जल एक
वृक्ष की जड़ में डाल दिया करते थे।जिससे उस पेड़ पर बैठा प्रेत गोस्वामी जी से संतुष्ट
होकर वर मांगने के लिए कहता है और गोस्वामी जी सिर्फ प्रभु श्री राम के दर्शन की अपनी
लालसा को प्रकट करते हैं।जिसके उत्तर में प्रेत ने गोस्वामी जी को श्री हनुमान जी
की कृपा प्राप्त करने की सलाह दी।संयोगवश एक दिन एक सत्संग में गोस्वामी जी को श्री
हनुमान जी महाराज के साक्षात दर्शन हुए और अंजनी के लाल महावीर हनुमान जी महाराज
ने चित्रकूट में भगवान के दर्शन कराने का गोस्वामी जी को आश्वासन दिया।
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़,तुलसीदास तंदन घिसे,तिलक करे रघुवीर।
एक समय जब चित्रकूट के घाट पर बैठकर
गोस्वामी जी चंदन घिस रहे थे।तभी भगवान सामने से आकर चंदन मांगने लगे।इस प्रकार से
गोस्वामी जी की जन्म-जन्मांतर की प्रभु दर्शन की इच्छा पूरी हुई।
'बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।'
जिसके बाद श्री हनुमंत लाल जी महाराज की
आज्ञा और प्रेरणा से गोस्वामी जी ने विक्रमी संवत् 1631 की चैत्र शुक्ल
रामनवमी, मंगलवार को श्री रामचरित मानस का प्रणयन प्रारंभ किया और दो वर्ष सात माह
छब्बीस दिन में श्रीरामचरितमानस ग्रंथ की रचना कर दी। मानस की रचना के अतिरिक्त
गोस्वामी जी ने विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली आदि अनेक भक्ति परक ग्रंथों की रचना की और विक्रमी सम्वत् 1680 की श्रावण कृष्ण तृतीया, शनिवार को राम-राम कहते हुए अपनी नश्वर
देह का त्याग किया।धन्य हैं गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज,जिन्होने संसार को
मर्यादापुरुषोत्तम प्रभु श्रीरामचंद्र जी महाराज का गुणगान करने का जनमानस को सबसे
सरल और सुलभ माध्यम प्रदान किया।
संवत सोलह सै असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज को कोटिश: नमन्
Nice post for the great information.
ReplyDeleteपरहित सरिस धरम नहि भाई,
ReplyDeleteपर पीड़ा सम नहि अधमाई।
thank you for the useful information
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