Wednesday, 24 August 2016

।।गोपी गीत।।


कस्तुरी तिलकम ललाटपटले,वक्षस्थले कौस्तुभम ।
नासाग्रे वरमौक्तिकम करतले,वेणु करे कंकणम ।
सर्वांगे हरिचन्दनम सुललितम,कंठे च मुक्तावली ।
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते,गोपाल चूडामणि: ॥

जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:श्रयत इन्द्रिरा शश्व दत्र हि
द्यति द्दश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते !!
भवार्थ - हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है.
!! शरदुदाशये साधु जातसत सरसिजोदरश्रीमुषा द्द्शा
सुरतनाथ तेsशुल्दासिका वरद निघ्न्तो नेह किं वधः !!
भवार्थ - हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी है तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो. हे प्रिय !अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मरना हमारा वध करना नहीं है.
!! विषजलाप्ययाद व्यालराक्षसादवर्षमारुताद वैद्युतानलात
वृषमयात्मजाद विश्वतोभया द्दषभ ते वयं रक्षिता मुहु: !!
भवार्थ - हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाला अधासुर, इंद्र की वर्षा आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयो से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है.
!! न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले !!
भवार्थ - हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं.
!! विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संस्रृतेयात
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम !!
भवार्थ - हे वृषिणधूर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो जो लोग जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते है उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हो सबकी लालसा अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकडा है प्रिये, उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें.
!! ब्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मितः
भज सखे भवत्किंकरी: स्मनो जलरुहाननं चारू दर्शय !!
भवार्थ - हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुखो को दूर करने वाले हो तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तो के सारे मान मद को चूर चूर करती है. हे मित्र ! हम से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी है तुम्हारे चरणों में निछावर है, हम अबलाओ को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ.
!! प्रणतदेहिनां पापकर्षनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम
फणिफणार्पितं तेपदाम्बुजं कृणु ‌कुचेषु नः, कृन्धि हृच्छयम् !!
भवार्थ - आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे-पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो.
!! मधुरया गिरा वळ्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाssप्यायस्व न : !!
भवार्थ - हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते है उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रही है, हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधररस पिलाकर हमें जीवन दान दो.
!! तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडीतं कल्मषापहम्
श्रवणमंडगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये, भूरिदा जनाः !!
भवार्थ - आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत मेंकष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं. ज्ञानियों महात्माओ भक्तो कवियों ने
तुम्हारी लीलाओ का गुणगान किया है जो सारे पाप ताप को मिटाने वाली है जिसके सुनने मात्र से परम मंगल एवम परम कल्याण का दान देने वाली है तुम्हारी लीला कथा परम सुन्दर मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है जो तुम्हारी लीला का गान करते है वह लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी है.
! ! प्रहसितम् प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंङगलम्
रहसि संविदो या हदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति ‍‌हि !!
भवार्थ - आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम- भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ट लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है.और ये हमारे ह्दयों को स्पर्श करती है उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मनों को अतीव क्षुब्ध भी करती है.
!!चलसि यदब्रजाच्चारयन्पशून नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्
शिलतृणाडकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः, कान्त गच्छति !!
भवार्थ - हे स्वामी, हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर है जब आप गौवें चराने के लिए गाँव छोडकर जाते है तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते है कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार तिनके तथा घास- फूस एंव पौधे चुभ जाऐंगे. ये सोचकर ही हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है.
!! दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैवनरूहाननं विभ्रतवृतम्
धनरजवलं , दर्शयन्मुहुमनसि नः स्मरं वीर यच्छसि !!
भवार्थ - हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलके लटक रही है, और गौओ के खुर से उड़ उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो.
!! प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्ड़नं ध्येयमापदि
चरणपडकजं , शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन!!
भवार्थ - हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तो की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली है, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी व्याधि शांत हो जाती है. हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण कमल हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो.
!! सुरतवर्धनं शोकनाशनं,स्वरितवेणुना सुष्ठुः चुम्वितम्
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेsधराम्रृतम !!
भवार्थ - हे वीर ! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो माधुर्य हर्ष को बढाने वाला और शोक को मिटाने वाला है उसी अमृत का आस्वादन, आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियां भुलवा देती है.
!! अटति यद्भवानहिनि काननं त्रुटियुगायते त्वामपश्यताम्
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृतद्दशाम् !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती है उस समय हमारी पलको का गिरना हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी होता है तब ऐसा महसूस होता है कि इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है.
!! पतिसुतान्वयभातृबान्धवानतिविलडघ्य तेsन्त्यच्युतागताः
गतिविदस्तवोदगीत्मोहिताः कितब योषितः कस्त्यजेन्निशि !!
भवार्थ - हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई, बंधू, और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई है. हम तुम्हारी हर चाल को जानती, हर संकेत को समझती है. और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आई है हे कपटी इस प्रकार रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड सकता है.
!! रहसि संविदं हच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्
बृहदुर श्रियो, वीक्ष्य धाम ते मुहरतिस्पृहा, मुहयते मनः !!
भवार्थ - हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बाते किया करते थे हँसी मजाक करके हम छेड़ते थे तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे तुम्हारा वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हे प्रिये! तब से अब तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है ओर हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है.
!! ब्रजवनौकसां ,व्यक्तिरडग ते वृजिनहन्त्र्यलंविश्वमंडगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहद्रुजां यन्निषूदनम !!
भवार्थ - हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली ओर विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त्जनो के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दे.
!! यत्ते सुजातचरणाम्बुरूहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिये दधीमहि ककशेषु
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित कूपापदिभिभ्रमतिधीर्भवदायुषां नः !!
भवार्थ - हे कृष्णा ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल है उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है जिससे आपके कोमल चरणों में कही चोट न लग जाये उन्ही चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही है. हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए ही जी रही है हम सिर्फ तुम्हारी ही है.

"जय जय श्री राधे"

जय कन्हईया लाल की


                                                      ।।श्रीकृष्ण शरणम् मम।।

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. १.. आतसीपुष्पसंकाशम् हारनूपुरशोभितम् रत्नकण्कणकेयूरं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. २.. कुटिलालकसंयुक्तं पूर्णचंद्रनिभाननम् विलसत्कुण्डलधरं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ३.. मंदारगन्धसंयुक्तं चारुहासं चतुर्भुजम् बर्हिपिञ्छावचूडाङ्गं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ४.. उत्फुल्लपद्मपत्राक्षं नीलजीमूतसन्निभम् यादवानां शिरोरत्नं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ५.. रुक्मिणीकेळिसंयुक्तं पीतांबरसुशोभितम् अवाप्ततुलसीगन्धं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ६.. गोपिकानां कुचद्वन्द्व कुंकुमाङ्कितवक्षसम् श्री निकेतं महेष्वासं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ७.. श्रीवत्साङ्कं महोरस्कं वनमालाविराजितम् शङ्खचक्रधरं देवं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् .. ८.. कृष्णाष्टकमिदं पुण्यं प्रातरुत्थाय यः पठेत् | कोटिजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनष्यति || || इति कृष्णाष्टकम् ||

जन्माष्टमी व्रत पूजा-विधान

संदीप कुमार मिश्र: नंद के लाल कृष्ण कन्हैया का जन्मोत्सव...जन्माष्टमी...जिसे देश ही नहीं विदेशों में भी बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है...योगीराज कृष्ण का गाती संदेश किसी संजीवनी से कम नहीं...जिसका अनुसरण संसार कर रहा है...जब-जब सृष्टी पर अत्याचार अनाचार बढ़ा है...असुर प्रवृति के कारण धर्म का ह्रास हुआ...तब तब स्वयं प्रभु दीनानाथ भगवान श्रीविष्णु इस धराधाम पर धर्म की स्थापना और असुरों का नाश करने के लिए अवतार लिए...कभी राम रुप में कभी कृष्ण रुप में...सोलह कलाओं से पूर्ण भगवान का बड़ा ही मनभावन रुप है कृष्णावतार...भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया।और धर्म की स्थापना की।
इस दिन को संपूर्ण संसार कृष्ण जन्माष्टमी या जन्माष्टमी के रूप में बड़े ही भक्तिभाव और उमंग और उत्साह के साथ मनाता है।जन्माष्टमी के दिन समस्त नर-नारी यहां तक की बच्चे भी व्रत रह कर श्रीकृष्ण भजन किर्तन में मध्य रात्री का इंतजार करते हैं...इस विशेष अवसर पर मंदिरों में सुंदर-सुंदर झाँकियाँ बनाई व सजाई जाती है और सांवरे सलोने कन्हईया को झूला झुलाया जाता है।
आईए जानते हैं कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर सबसे सरल और सुलभ तरीके से पूजा कैसे करें-

भगवान श्रीकृष्ण का 5243वाँ जन्मोत्सव
निशिता पूजा का समय = 24:43+ से 25:26+
समय = ० घण्टे ४२ मिनट्स
मध्यरात्रि का क्षण = 25:04+
26th को, पारण का समय = 06:22 (सूर्योदय के बाद)
पारण के दिन अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र सूर्योदय से पहले समाप्त हो गये हैं
दही हाण्डी - 26, अगस्त
अष्टमी तिथि प्रारम्भ = 24/08/2016 को 12:47 बजे
अष्टमी तिथि समाप्त = 25/08/2016को 10:37 बजे
व्रत-पूजन विधान
जन्माष्टमी का व्रत धारण करने वाले को व्रत के पूर्व रात्रि को सुपाच्य हल्का भोजन ग्रहण करना चाहिए साथ ही ब्रह्मचर्य का पालन अवश्य करना चाहिए।व्रत के दिन सबसे पहले प्रातःकाल स्नानादि नित्यकर्मों से व्रती को निवृत्त हो जाना चाहिए ततपश्चात सूर्य, सोम, यम, काल, संधि, भूत, पवन, दिक्‌पति, भूमि, आकाश, खेचर, अमर और ब्रह्मादि को सादर प्रणाम कर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाना चाहिए।क्रमश: बाद जल, फल, कुश और गंध लेकर संकल्प लेना चाहिए-
ममखिलपापप्रशमनपूर्वक सर्वाभीष्ट सिद्धये।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतमहं करिष्ये॥


अब दोपहर के समय काले तिलों के जल से स्नान कर देवकीजी के लिए 'सूतिकागृह' नियत करें और फिर भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति या चित्र स्थापित करें। एक बात का विशेष ध्यान रखें कि संभव हो तो बाल गोपाल कृष्ण की मूर्ति में स्तनपान कराती हुई माता देवकी हों और लक्ष्मीजी उनके चरण स्पर्श किए हों,ऐसे तो भाववत्सल भगवान है भाव के भूखें हैं हमारे कृष्ण कन्हैया।
ऐसा करने के बाद विधि-विधान से श्रीकृष्ण पूजन पर ध्यान लगाएं।
पूजन में व्रतदारण करने वाले के साथ ही पूरा परिवार मैया देवकी, वसुदेव, बलदेव, नंद, माता यशोदा और माता लक्ष्मी का नाम क्रमशः स्मरण करना चाहिए।
अब निम्न मंत्र के माध्यम से मूर्ति के सामने पुष्पांजलि अर्पण करना चाहिए-
'प्रणमे देव जननी त्वया जातस्तु वामनः।
वसुदेवात तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमो नमः।
सुपुत्रार्घ्यं प्रदत्तं में गृहाणेमं नमोऽस्तुते।'
इस प्रकार सरलता और सुलभता से यथा सामर्थ्य कन्हैया को भोग लगाकर प्रसाद का वितरण करना चाहिए और जगराता करते हुए भजन-कीर्तन करना चाहिए और अंत में श्रीकृष्णजन्मोत्सव का आनंदसहित आरती गानी चाहिए और जयकारा लगाना चाहिए..जय कन्हईया लाल की...वृंदावन बिहारी लाल की जय...आज के आनंद की जय...धर्म की जय...अधर्म का नाश हो...प्राणियों में सदभावना हो...विश्व का कल्याण हो...।
      भगवान श्रीकृष्ण आप सभी की मनोकामनाओं को पूरा करें...जय श्रीकृष्ण।।

Tuesday, 23 August 2016

श्रीकृष्ण उवाच : तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ (जन्माष्टमी विशेष)

मेरा आपकी कृपा से हर काम हो रहा है।
करते तुम कन्हैया मेरा नाम हो रहा है।।
संदीप कुमार मिश्र: अभिमान और स्वाभिमान में बड़ा ही बारीक फर्क है।जो इस अंतर को समझ गया उसे परमधाम प्राप्त हो गया,आनंद मिल गया और जो नहीं समझा उसे माया के चक्कर में फंस जाना पड़ा और उपहास का पात्र होना पड़ा।जहां मैं का भाव आ गया वहां श्री कृष्ण रह ही नही सकते।कृष्ण तो प्रेम और भाव में रहते है।उन्हें कहां मैं और मेरा से मतलब।कन्हैया का तो एहसास ही,स्मरण ही बिगड़ी को बनाता है।बस आवश्यकता उसे जानने और समढने की है।
अब इसे थोड़ी सरलता से एक कहानी के माध्यम से जानते हैं-
श्रीमद्भागवत गीता का एक रोचक प्रसंग,

दरअसल महाभारत के युद्ध के बाद जब सत्य की स्थापना हो गई तब योगीराज प्रभु श्रीकृष्ण की ऐसी चाह थी की उनके शरीर त्यागने के बाद द्वारका में रहने वाले संपूर्ण जनमानस पार्थ यानी अर्जुन की देखरेख में पाण्डवों के राज्य हस्तिनापुर को चले जाएं।प्रभु का आदेश पाकर अर्जुन समस्त नगर वासीयों को लेकर जाने लगे तभी रास्ते में उपद्रवियों ने लूटमार शुरू कर दी। जो कि धनुरधारी अर्जुन से देखा नहीं गया और शीघ्र ही अर्जुन का हाथ गाण्डीव की तरफ बढ़ गया।लेकिन अफसोस! गाण्डीव का वजन इतना बढ़ गया कि प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर गाण्डीव अर्जुन से उठा तक नहीं।आश्चर्य था कि इतने बड़े अजेय योद्धा के सामने नर नारी लूटे जा रहे थे और अर्जुन विवश होकर सिर्फ देख सकते थे, कर कुछ नही पा रहे थे।तभी घटनघोर बिजली कड़की और केशव,परम पुरुष,योगीराज श्रीकृष्ण शब्द गुंजने लगे-हे पार्थ- तुम तो सिर्फ निमित्त मात्र हो।
मित्रों श्रीमद्भागवत गीताका यह मार्मिक प्रसंग है जो एक अटल और अखंड सत्य का बोध कराता है। हमारे जीवन में जब-जब कृष्ण का एहसास नही होता, तब-तब मनुष्य हमारी शक्ति,ऊर्जा,ज्ञान सब कुछ शुन्य हो जाता है।श्रीकृष्ण का हमारे जीवन में रहना शाश्वत मूल्यों का बने रहना है।क्योंकि श्रीकृष्ण प्रतिक हैं प्रेम के निर्वाह का, अन्याय के प्रतिकार का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। भक्ति और मुक्ति का।आनंद के एहसास का।
बाल्यावस्था से ही श्रीकृष्ण की लीलाएं अत्याचार के विरुद्ध थी।समाज को सशक्त बनाने की थी।नगर ग्रामवासीयों को स्वावलंबी बनाना ही उनका उद्धेश्य ता तभी तो इंद्र से वैर करते कन्हैया ने गोवर्धन उठा लिया,कालिया नाग को यमुना से खदेड़ा।और भी अन्य लीलाओं के पीछे का भाव सहज ही मानव कल्यार्ण था। जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने कंस,जरासंध,शिशुपाल जैसे मानवता विरोधी शक्तियों का विनाश किया,लेकिन ऐसा करने से पहले सुधार का उन्हे भरपूर अवसर भी प्रदान किया।क्योंकि कोशिश अवश्य करनी चाहिए। शांति और सत्य की स्थापना के लिए श्रीकृष्ण नें विनाशकारी महाभारत का युद्ध ना हो इसके लिए भी हर संभव प्रयास किया। सुधार का एक अवसर श्रीकृष्ण नें सदैव लोगों को दिया।
कर्म की प्रधानता और जिम्मेदारी की सीख लेनी हो तो योगीराज श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही पड़ेगा। हमें अपने जीवन में निरंतरकृष्ण को आत्मसात करना ही पड़ेगा,तभी सत्कर्म करने की प्रेरणा मिलेगी। अच्छाई और बुराई,जस अपजस,लाभ हानी सब कुछ कृष्णार्पित करने से ही जीवन में आनंद की प्राप्ती होगी।

जय श्री कृष्ण

मुरली मनोहर का धाम वृंदावनधाम(जन्माष्टमी विशेष)

संदीप कुमार मिश्र: "वृन्दावन" जहां के हर रज कण से रास-रासेश्वर कृष्ण -राधा के नाम का नाद सुनाई देता है।मन आनंद के गोते लगाने लगता है।इंसान अपनी सुधबुध खोकर कृष्णमय हो जाता है।ऐसे ही सांवरे सलोने कृष्णकन्हैया का पावन और पवित्र धाम है वृंदावनधाम।जहां मुक्ति भी है और मोक्ष भी।जहां शांति भी है और आनंद भी।भक्ति भी है और ज्ञान भी।जहां हर कोई आने को लालायित रहता है।जहां सभी रुप रंग एक हो जाते हैं..जन जन पर पर सिर्फ एक ही रंग चढ़ जाता है...जो के कृष्ण का रंग।ऐसा ही पावन धाम है वृंदावनदाम।

वृंदावनधाम में कन्हैया के बांसुरी की सुमधुर ध्वनि जीव को आनंद विभोर कर देती है।क्यों कि  परमपुरुष श्रीकृष्ण वृंदावन में नित्य विराजमान हैं। श्रीकृष्ण की लीलाओं का साक्षी गोवर्धन भी यहीं हैं और मां यमुना भी यहीं है। कहने भाव है कि गोअर्थात इंद्रिय, यानी गोवर्धन का अर्थ हुआ इंद्रिय वर्धन। और श्री यमुना यानी एक रसप्रवाह , जो परम तत्व की ओर ले जाता है।धन्य है वृंदावनधाम।
ब्रजक्षेत्र का मतलब है कि आनंद पाते-पाते उस परमानंद की तलाश करना।निरंतर मनुष्य आनंद को पाने के लिए भटकता है और मनुष्य जिस पथ पर बढ़ता हुआ वृंदावन पहुंचता है तब उसे भाववश परम पुरुष के दर्शन होते है।कलिकाल में श्रीकृष्ण की लीलाओं के साक्षी ब्रजक्षेत्र में निरंतर भक्तों के समागम सत्संग जीवन को धन्य कर देते हैं।

जहां श्रीकृष्ण रचाते थे रास कुंजवन: पेड़-पौधों से घिरा हुआ एक छोटा सा परिसर एक अद्भुत दृष्य दर्शाता है।जहां बांसुरी की तान सुधबुध को देने के लिए मजबुर कर देती है। आध्यात्मिक नजरीये से कुंजवन का भाव है कि मानव अस्तित्व का वह गोपनतम प्रदेश, जहां से परमपुरुष अपने भक्तों का बांसुरी की मधुर ध्वनि से आह्वान कर रहे हैं।मनुष्य उसी प्रकार कुंजवन में आनंद की तलाश में भटकता है,जिस प्रकार मृग कस्तुरी को वन में।धन्य है लीलाधारी...धन्य है मुरली बजैया...धन्य है ब्रज के बसैया...और कोटिश: नमन है वृंदावनधाम...जहां नित्य,हर पल,हर क्षण उत्सव है,उमंग है, आनंद है,रास है,रसिया हैं,छलिया है...लेकिन उद्धेश्य सिर्फ एक है...जीवन में हो सुख और शांति..परम पुरुष,योगीराज श्रीकृष्ण कन्हैया को बारंबार प्रणाम...।