Monday, 29 January 2018

श्रीरामचरितमानस में नवधा भक्ति





संदीप कुमार मिश्र: गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने श्रीरामचरितमानस में राम-नाम का जाप करते हुए श्रीराम जी के आगमन की प्रतीक्षा करने वाली माता शबरी का चरित्रगान करते हुए उन्हें परमभक्त के रूप में बताया है

श्रद्धेय कपूर चन्द शास्त्री जी महाराज बड़े ही सरल भाव से नवधा भक्ति के विषय में बताते हुए कहते हैं कि,- भक्त वत्सल भगवान श्रीराम ने अपने भक्त सबरी के भक्ति की लाज रखने के लिए स्वयं सबरी के आश्रम में उन्हें दर्शन दिए। राम जी को देखकर सबरी जी को तो ऐसा लगा मानो जनम जनम की प्यास ही मिट गई हो।सबरी ने श्रीराम और लक्ष्मण की भावभीनी स्वागत किया। सबरी के अनुरोध पर उनकी भक्ति से प्रसन्ना होकर स्वयं प्रभू श्रीराम ने सबरी को भक्ति का रहस्य बताया, जिसका पालन करके कोई भी भक्त परम धाम को प्राप्त कर सकता है।भगवान के बताए हुए भक्ति के नौ अंग होने के कारण इसे नवधा भक्ति कहा जाता है :आप भी अपने जीवन में भक्ति के इस भाव का सह्रदय पालन करें, जीवन धन्य हो जाएगा और आप पर राम जी की कृपा हो जाएगी-

नवधा भगति कहउं तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
भाव-महत्वपूर्ण बात सावधान होकर सुनी जाए और मन में धारण कर ली जाए,तभी उसका लाभ उठाया जा सकता है।
पहली और दूसरी भक्ति
प्रथम भगति संतह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
पहली भक्ति है संतों का सत्संग।दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग से प्रेम।
भाव-संतो की संगति का अर्थ है अपने जीवन की गतिविधियां भी उन्हीं की तरह हो जाए।कथा प्रसंग में रुचि का अर्थ है-भगवान के श्रेष्ठ आचरण से प्रेरणा और वैसा ही बनने में सुख की अनुभूति।
तीसरी और चौथी भक्ति
गुरु पद पंकज सेवा,तीसरि भक्ति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन,करइ कपट तजि जान।।
तीसरी भक्ति है-अभिमान रहित होकर गुरु के चरणों की सेवा और चौथी भक्ति है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें।
भाव- गुरु पद सेवा से अर्थ गुरु के निर्देश का निष्ठापूर्वक पालन है।कपट छोड़कर गुणगान करने का तात्पर्य यह है कि अंत: करणसे भगवान के चरित्र एवं गुण की प्रशंसा करें।सच्ची प्रशंसा का भाव होने से अनुकरण भी स्वत: होने लगता है।
पंचम भक्ति
मंत्र जाप मम दृढ़ विस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।
मेरे (राम)मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास यह पांचवीं भक्ति है,जो वेदों में प्रसिद्ध है।।।
भाव-मंत्र का जप दृढ़ विश्वास से किया जाना चाहिए।मंत्र का अर्थ सूत्र से परामर्श भी होता है।मंत्रों में जीवन की दिशा के संकेत होते हैं।उन्हें विश्वास पूर्वक अपनाना चाहिए।सूत्र है भज सेवायामभजन का अर्थ सेवा है,अथवा सेवन जिसका तात्पर्य जीवन में उसे आत्मसात कर लेना है।
छठी भक्ति
छठ दम सील बिरित बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह,सच्चरित्रतम,बहुत से कर्मों से वैराग्य और सदैव सज्जनो जैसा आचरण में लगा रहना।
भाव-बहुत से कर्म ऐसे हैं जो मनुष्य के लिए अनुचित होते हैं,पर आकर्षणवश लोग उन्हें कराते हैं।ऐसे कर्मों से विरक्ति होनी चाहिए।दम इसी संदर्भ में युक्त है।शील सज्जनोचित कर्मों के पालन के लिए है।
सातवीं भक्ति
सातवां सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।
सातवीं भक्ति जगत भर को समभाव से मुझमें ओत-प्रोत(ईश्वरमय)देखना और संतो को मुझसे भी अधिक मानना है।
भाव-संत जनसाधारण के स्तर पर  आकर उन्हें भगवान तक पहुंचाने में सहायक होते हैं।अत: उन्हें भगवान से भी अधिक मानना भक्ति का चिन्ह कहा गया।
आठवीं भक्ति
आठवं जथालाभ संतोषा।
सपनेहुं नहिं देखई परदोषा
आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए,उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराये दोष को न देखना।
भाव-पुरुषार्थ पूरा करे,किंतु संतोष थोड़े में भी कर ले।जो न मिल सके उसके लिए दूसरे को दोष न देकर अपने प्रयास की कमी माने।
नवीं भक्ति
नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियं हरष न दीना।।
नव महुं एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई।।
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बरताव करना, ह्दय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दीनता का न होना। इन नौ भक्तियों में से जिनके एक भी होती है,वह स्त्री हो या पुरुष,जड़ हो या चेतन।
भाव-अंत: करण को इतना स्वच्छ बना ले कि कोई छल-कपट किसी के भी प्रति न रह जाए।भगवान पर इतना विश्वास हो कि हर शुभ अथवा अशुभ के पीछे भगवान के उद्धेश्य को समझ सके तभी हर्ष-विषाद से परे हो पाते हैं।
श्री हरि ओम् तत् सत्

प्रेम से बोलिए श्रीसीतारामचंद्र महाराज की जय,सत्य सनातन धर्म की जय

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