Saturday, 16 November 2019

विद्या की अर्थी उठाते JNU के विद्यार्थी:स्वामी विवेकानंद जी राष्ट्र नायक हैं उनके विचारों को कैसे खत्म कर सकते हो !



स्वामी विवेकानंद तो बन नही पाओगे,उनके विचारों से सीख लेकर एक सभ्य भारतीय तो बन जाओ।
संदीप कुमार मिश्र: JNU कैम्पस के कुछ उपद्रवी और टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्यों ने स्वामी विवेकानंद जी की प्रतिमा की निरादर सिर्फ इसीलिए की कि उनकी मूर्ति पर उनके वस्त्र भगवा। ये सुनकर उन मूर्खों पर हंसना स्वाभाविक ही था। अब कौन बताए उन मूर्खों को कि ये भगवा धारण करने के लिए स्वामी जी ने कितनी तपस्या और साधना की थी...
चलिए एक छोटा सा दृष्टांत सुनाता हूं आपको नरेंद्र से विवेक और फिर भगवाधारी स्वामीविवेकानंद बनने की...उम्मीद है ये कथानक वो चंद गद्दार,देश के टूकड़े करने वाले चंद विद्या के मंदिर में चुम्मा पार्टी करने वाले कपूतों तक जरुर पहुंचेगा...!

मेरे प्यारे भाईयों और बहनों (स्वामी जी की लाइन से उपयुक्त शुरुआत औऱ क्या हो सकती है,शिकागो) 23 वर्ष की उम्र में संन्यास लेने वाले विवेकानंद जी को लोग यह कहकर ख़ूब उलाहना दिया करते थे कि "स्वामीजी अभाव-संन्यासी हैं या स्वभाव-संन्यासी?" यानी स्वामीजी के मन में सच ही में वैराग्य जगा था या अभाव-विपदा से पीछा छुड़ाने की गरज से उन्होंने कौपीन धारण कर लिया ?

इस उलाहना के पीछे अनेक कारण थे !
गौतम और वर्धमान दोनों ही राजपुत्र थे। जब संसार से मन उचटा तो राजपाट का परित्याग कर वन में चले गए। जाते समय उन्हें यह नहीं सोचना पड़ा था कि हमारे बाद परिजन भूखों तो नहीं मरेंगे। किंतु नरेन्द्रनाथ के साथ स्थिति थोड़ी भिन्न थी।
ऐसे तो दरीयाटाला गांव के कश्यप गोत्र के दत्त लोगों का परिवार समृद्ध था। कलकत्ते में गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर उनकी विशाल "दत्त-कोठी" थी। जिस काल में बंगाली मध्यवर्ग की तनख़्वाह ही 15 रुपया महीना हुआ करती थी, तब "दत्त-कोठी" का महीने का ख़र्चा हज़ार रुपया था। किंतु सुख के दिन सदैव कहां रहते हैं ?

नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ते के प्रख्यात क़ानूनदां थे। वर्ष 1884 में जब उनकी अकाल मृत्यु हुई तो परिवार पर विपदाओं का कहर टूट पड़ा। हालात ऐसे हो गए की जहां हजारों खर्च हो जाया करते थे वहां पति की मृत्यु के बाद नरेन्द्र की माता भुवनेश्वरी देवी जी तीस रुपया मासिक ख़र्च पर आ गई, लेकिन ख़र्चों में कटौती करने से कुटुम्ब का भरण-पोषण कहां होता है ?
जब पिता की मृत्यु हुई तब विवेकानंद 21 वर्ष के थे और घर में सबसे बड़े(पुरुष में) वही थे। जीवन-यापन के साधन के लिए कोई उपाय-जुगाड़ करने का उत्तरदायित्व भी उन्हीं के कंधों पर आया। लेकिन नरेन्द्रनाथ का मन तो मठों और योगियों की दुनिया में उलझा हुआ था !
नरेन्द्रनाथ अपने माता-पिता की चौदह संतानों में से छठे थे। विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी की पहली दो संतानें पुत्र‍ियां थीं और दोनों शैशव में काल-कवलित हो गई थीं। दो अन्य पुत्र‍ियां किरणबाला 18 की होकर और हरिमणि 22 की होकर चल बसीं। पिता की मृत्यु के समय परिवार में एक स्वर्णमयी दीदी ही नरेन्द्र से ज्येष्ठ थीं, हम जानते हैं कि उस काल में स्त्री कहां भात-भोजन के उपाय करने जाती? विवेकानंद के दोनों प्रसिद्ध छोटे भाई तब अल्पायु के थे। महेंद्रनाथ 15 के किशोर थे और भूपेंद्रनाथ तो अभी 3 वर्ष के बालक ही थे। आगे चलकर महेंद्रनाथ को बड़ा यायावर लेखक और भूपेंद्रनाथ को स्वतंत्रता सेनानी बनना था, किंतु अभाव तो उस समय सिर पर था!
मानो यह विपदा ही पर्याप्त ना हो, विश्वनाथ की मृत्यु के बाद अवसर देख अन्य परिजनों ने दत्त-संपत्त‍ि पर दावा ठोंक दिया। कलकत्ता हाईकोर्ट के एटॉर्नी-मुहाल के काग़ज़ात टटोलें तो पाएंगे कि विश्वनाथ दत्त के परिवार पर एक-एक कर बिंदुवासिनी, शचिमणि और ज्ञानदासुंदरी नामक परिवार की ही स्त्र‍ियों ने मुक़दमे दायर किए थे। "दुबले और दो आषाढ़" वाली दुर्दशा थी!
वर्ष 1881 में दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव से भेंट के बाद से ही नरेन्द्र का मन संसार से उचट गया था किंतु अब पिता की अकाल मृत्यु के बाद क्या परिवार को भूखों मरने को छोड़ दें? इस दुविधा का सामना कभी गौतम और वर्धमान ने नहीं किया था। इसी आत्मसंघर्ष में 1884 से 1886 तक नरेंन्द्रनाथ के दो वर्ष बीते।

इन दो वर्षों में नौकरी की तलाश में नरेन्द्र ने नौकरी का आवेदन लेकर कार्यालय कार्यालय ख़ूब चक्कर लगाए। ईश्वरचंद्र विद्यासागर के सुविख्यात "मेट्रोपोलिटन इंस्ट‍िट्यूशन" की एक शाखा जब सिद्धेश्वर लेन, चांपातला में खुली तो नरेन्द्रनाथ ने वहां नौकरी के लिए आवेदन किया। नौकरी मिल गई। स्कूल के सेक्रेटरी विद्यासागरजी के जमाई थे। नरेन्द्रनाथ से किसी बात पर उनका विवाद हो गया तो उन्होंने नौवीं और दसवीं के छात्रों से कहलवा दिया कि माटसाब को तो पढ़ाना ही नहीं आता ! स्वयं विद्यासागर जी तक शिक़ायत पहुंची तो उन्होंने कह दिया कि नरेन्द्रनाथ को कल से नौकरी पर आने की आवश्यकता नहीं है।
यह प्रसंग इन अर्थों में चमत्कृत करने वाला है कि जिस विवेकानंद की कीर्ति पूरी दुनिया में एक शिक्षक और उपदेशक के रूप में प्रसारित होना थी, उन्हें स्कूली छात्रों ने यह कहकर निरस्त कर दिया कि वे पढ़ाना नहीं जानते थे ! और दूसरे यह कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे महामानव से भी अभावग्रस्त नरेन्द्र नाथ के पेट पर लात मारने का पाप जाने-अनजाने हो गया था !
इसके बाद नरेन्द्र ने किसी ज़मींदारी कार्यालय में नौकरी की। मार्च 1885 में वह नौकरी भी छोड़ दी। परमहंसदेव को जाकर बताया कि "ठाकुर दादा, यह नौकरी भी छोड़ आया हूं।" ठाकुर दादा ने प्रकृतिस्थ भाव से कहा : "ठीक किया, ठीक ही तो किया!"
दत्त परिवार पर चल रहे दीवानी मुक़दमे के दौरान 8 मार्च 1887 को अदालत में नरेन्द्रनाथ की पेशी हुई। बैरिस्टर साहब ने नरेन्द्र से उनकी उम्र पूछी, नरेन्दर ने कहा, "होगी कोई तेइस चौबीस वर्ष!" पेशा पूछा तो उत्तर दिया, "बेकार हूं!" अब बैरिस्टर साहब ने उलाहना देते हुए कहा, "तुम किसी के चेले बन गए हो ना ?" नरेन ने उत्तर दिया, "मुझे नहीं मालूम कि "चेला" क्या होता है !" फिर बैरिस्टर ने पूछा, "तुम रामकृष्ण आश्रम के लिए चंदा वसूली तो नहीं करते ?" नरेन्दर ने कहा कि "मैंने वैसा कोई कार्य कभी नहीं किया!"
पिता की मृत्यु के बाद नरेन्द्र के जीवन के वे दो वर्ष ऐसे ही अपमान और उलाहना और कटाक्ष से भरे हुए थे।
तभी शंकर का "विवेकचूड़ामणि" उन्होंने पढ़ा तो भीतर तक कांप गए। शंकर ने कहा था : "मनुष्यत्व मुमुक्ष्यत्व: महापुरुष संश्रय।" यानी मनुष्य जाति, आत्मशोध की वृत्त‍ि और महापुरुष का साहचर्य, ये तीनों बातें कभी एक साथ नहीं होतीं, अतएव जब वैसा हो तो सत्य की खोज में जुट जाना चाहिए। नरेन्द्र ने मन ही मन सोचा कि जाने कितने कल्पों के बाद मिला यह अवसर क्या क्लर्क और टीचर की नौकरी करके ही गंवा दूं? नहीं, यह संभव नहीं है।
तब जाकर वर्ष 1886 में उन्होंने संन्यास ले लिया और "स्वामी विवेकानंद" कहलाए।
वैसी ही किसी मनोदशा में तब विवेकानंद ने हरिदास देसाई को पत्र लिखकर कहा था : "आप मेरी दुखिनी मां से मिलने गए, बहुत प्रसन्नता हुई। एक तरफ़ भारतवर्ष के लाखों नर-नारियों का दु:ख है, दूसरी तरफ़ आत्मीय स्वजनों की दुर्दशा। मैंने संन्यास का पथ चुना है। आगे मां काली ही मेरी रक्षा करेंगी!"
विवेकानंद की एक बहन योगींद्रबाला ने गृहकलह में आत्महत्या कर ली थी। उसकी मृत्यु का समाचार मिलने पर वे विलाप करने लगे तो किसी ने टोका : "संन्यासी को ऐसा शोक प्रकाश शोभा नहीं देता!" इस पर विवेकानंद ने उत्तर दिया : "संन्यासी हूं तो क्या अपने हृदय का विसर्जन कर दूं?"
परिवार के प्रति दायित्व की चेतना और आत्मसत्य के शोधन का गुरुभार, इस द्वैत-प्रपंच के बीच विवेकानंद आजीवन पिसते रहे थे। बाद में जब वे जगविख्यात हो गए, तब भी परिजनों की चिंता में घुलते रहे। विशेषकर मां के प्रति चिंतित थे। इसके लिए याचना में हाथ फैलाने से भी उन्होंने संकोच नहीं किया। 1 दिसंबर 1898 को खेतड़ी महाराज को पत्र लिखकर विवेकानंद ने कहा : "मेरे रोग का ख़र्च आपको अधिक दिन वहन नहीं करना होगा क्योंकि अब मैं अधिक दिनों का मेहमान नहीं हूं, किंतु आपसे भीख मांगता हूं कि मां को हर माह सौ रुपयों की जो आर्थिक सहायता आप भेजते हैं, उसे मेरी मृत्यु के बाद भी जारी रखें!"
किंतु दुर्दैव ही था कि स्वयं खेतड़ी महाराज विवेकानंद से पूर्व ही वर्ष 1901 में चल बसे थे!
संसार संन्यासी को देखता है। संसार महायोगी का नाम जपता है। "विवेकानंद" कहकर जयघोष करता है। किंतु इस महायोगी के जीवन में कितने कष्ट-क्लेश थे, देह में कितने रोग थे, अभावों का कितना संताप था, संन्यस्त हो जाने का कितना अपराधबोध था, इस बारे में कौन विचार करता है!
एक मनुज से महायोगी बनने तक की इस यात्रा को देख सकने वाली भावदृष्टि जिसके पास होगी, वह कभी युगनायक के भगवा वस्त्रों की अवमानना करने के पाप का विचार भी नहीं कर सकेगा! इति! (संकलन)

No comments:

Post a Comment