Friday, 20 December 2019

370,35A,तीन ललाक पर मन मसोस कर बैठे विपक्ष की मुराद पूरी कर दी CAA ने...!


संदीप कुमार मिश्र: ना जाने क्यूं ऐसा बार-बार कहने को मन कर रहा है कि देश में जो कुछ फिलहाल हो रहा है सत्ता से दूर रहने की कसप है...क्योंकि लोग अक्सर कहा करते थे कि कांग्रेस बहुत दिनो तक सत्ता से दूर रहने की आदी नहीं हैं...आप समझ सकते हैं कि हम बात किसकी कर रहे हैं...नागरिकता संशोधन कानून  (CAA and NRC)...जिसपर पूरे देश में बवाल काट रहे हैं कुछ उपद्रवी,उन्मादी और सत्ता के लोभी लोग...देश के हर हिस्से में विरोध प्रदर्शन, तोड़-फोड़ और हिंसा, जनधन को खूब नुकसान पहुंचा रहे हैं ये देश विरोधी लोग...सरकारी संपत्तियों का लगातार नुकसान हो रहा है...
सत्ता पक्ष जहां #CitizenshipAmendmentAct(CAA) लाकर अपना चुनावी वादा पूरा करने में लगी है, वहीं सत्ता से जिन्हें जनता ने बेदखल कर दिया है वो विपक्षी दल जनता के सीने पर पैर रखतक उन्हें अपना मोहरा बनाकर उपद्रव करवा रहे हैं...
मजे की बात देखिए #CAA सिर्फ बयानबाजों के लिए ही नहीं, धरना-प्रदर्शन करने वालों को भी विशेष अवसर प्रदान कर रहा है...इनके लिए अब रोजगार कोई मुद्दा नहीं रहा... छात्र राजनीति करने वालों को भी खूब फलने फूलने का मौका दे रहा है #CAA ...तभी तो छात्रों को आधार बनाकर सियासी पार्टियां बहती गंगा में सिर्फ हाथ ही नहीं धो रही है बखूबी नहा भी रही हैं....
#ट्रिपलतलाक,#धारा370 और #राममंदिर से लेकर नागरिकता संशोधन विधेयक तक... कांग्रेस कुछ भी ना कर सकी और उसका मन कचोटता कर रह गया...उसके आंसू आंखों में आए तो जरुर लेकिन सत्ता पर काबिज लोगों ने बहने तक नहीं दिया...क्योंकि जहां सत्ता पक्ष बहुमत में है और जहां नहीं है (#लोकसभा, #राज्यसभा) दोनो जगहों पर वो विजयी रहे...संसद में तो कांग्रेस ताकती रह गयी लेकिन दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली कर मोदी सरकार के खिलाफ जम कर हल्ला बोला, लेकिन सब किये कराए पर फिर एक बार राहुल गांधी ने वीर सावरकर पर बयान देकर पानी फेर दिया,सब चौपट कर दिया...
खैर नागरिकता कानून पर मलाई काटने और सत्ता पाने की गुंजाइश में सभी विपक्षी पार्टियां कूद पड़ी...इतना ही नहीं प.बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने तो यहां तक कह दिया कि UN की देखरेख में जनमत संग्रह हो...ऐसे में कांग्रेस के साथ सभी थके हुए विपक्षी पार्टियों को एक मौका मिल गया कि वो NRC और CAA के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन को खूब हवा दें और भड़काएं...
अब बात सत्ता के एक पूराने साथी शिवसेना कीजिसने कभी भी नागरिकता कानून का विरोध नहीं किया था... वो भी महाराष्ट्र में सत्ता की मलाई काटने के लिए कांग्रेस को समर्थन दे दिया...शिवसेना को तो बीजेपी पर हमला करने के लिए बहाना चाहिए था जो जामिया हिंसा ने दे दिया और उद्धव ठाकरे ने यहां तक कह दिया कि, 'जामिया में जो हुआ, वो जलियांवाला बाग जैसा है...'साथ ही कई आरोप शिवसेना ने बीजेपी पर और लगा दिए...
वहीं प्रशांत किशोर को आधार बनाकर बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने बिहार में NRC लागू नहीं करने का भी शिगुफा छोड़ दिया...
ममता बनर्जी के लिए तो CAA और NRC किसी संजीवनी से कम नहीं है क्योंकि उन्हें तो केंद्र सरकार के खिलाफ बोलने का मौका चाहिए...ममता दीदी ने तो यहां तक कह दिया कि CAA के बाद NRC को वो पश्चिम बंगाल में लागू नहीं होने देंगी भले ही उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया जाये...मोमता दीदी ने तो एक रैली में यहां तक कह दिया कि "अगर वो इसे लागू करेंगे तो ये सब मेरी लाश पर होगा...
वहीं कन्हैया कुमार भी बेगूसराय में हार के बाद मुद्दे की तलाश में थे और CAA और NRC के रुप में एक अच्छा मुद्दा उन्हें भी अपनी राजनीति चमकाने के लिए मिल गया...
कमोबेश पूरे देश में छात्रों को बखूबी भड़काया जा रहा है,सभी शिक्षण संस्थानों में हंगामें के बीज बोये जा रहे हैं...

अब सवाल ये उठता है कि नागरिकता जैसे मसले को लेकर छात्र क्यों आंदोलन कर रहे हैं।जबकि होना ये चाहिए था कि छात्र फीस को लेकर सुविधाओं को लेकर आंदोलन करते और पढ़ाई पर ध्यान देते... क्योंकि इस प्रकार आंदोलन करने के लिए तो पूरी उम्र पड़ी ही है...लेकिन जिन्हें समझाना चाहिए वो तो अपनी राजनीति चमकाने के लिए छात्रों को मोहरा बना रहे हैं....
अंतत: कहना गलत नहीं होगा कि ये जो भी हिंसा,विरोध प्रदर्शन देशभर में हो रहे है वो बिल्कुल भी #CAA_और_NRC का सिर्फ नहीं है...क्योंकि विरोध करने वाले भी जानते है कि इस कानून(#CAA) से किसी भी भारतीय को तनिक भर भी फर्क पड़ने वाला नहीं है...हां विरोधियों को संगठित होने का मौका जरुर मिल गया है। यकिन मानिए ये विरोध सत्ता पाने की उस कमीनी जल्दबाज़ी, टीस, कुंठा और हार का परिणाम है जो उन्हें पिछले 6 सालों से वर्तमान सरकार लगातार देती आ रही है...।

Monday, 16 December 2019

अफवाहों से अमन को अगवा नहीं किया जा सकता




एक नहीं,दो नहीं करो अनगिनत धरने और आंदोलन
बस ध्यान रहे इतना कि स्वतंत्र भारत का मस्तक ना झुके...
लोकतंत्र का जनमन रहे स्वतंत्र और आज़ाद,
क्योंकि सत्ता और सियासत दां रहें ना रहें...
सरकारें आएंगी और जाती रहेंगी...
लेकिन स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा...।
लेकिन अफसोस कि यहां जनता,
है भ्रष्ट राजनीति की ओछी मानसिकता की शिकार !
अब तो हर हफ्ते यहां फिल्मों की तरह बदलते हैं मुद्दे,
मुद्दों पर बहस नहीं..बसें जलायी जाती है,उग्र आंदोलन किया जाता है,
ऐसे में टूटती हैं तो सिर्फ आशाएं,मरती है तो जन अपेक्षाएं...
जिन पर बिस्तर बना कर चैन सो सोती है राजनीति
क्योंकि,
त्रस्त तो होती है जनता, जलते हैं मासूम,मरती है इंसानियत...! 
जिसे देखकर भी गूंगी, बहरी बनी हुई है सियासत...! 
लेकिन भय के फरिश्तों से कौन कहे कि,
अफवाहों से अमन को अगवा नहीं किया जा सकता
तुम्हारे करने में कुछ नज़र क्यूं नहीं आता...
क्यूं मुल्क की फिकर सिर्फ धरने में नजर आती है...
अल्फाज़ों से खेलने वाले ठेकेदारों...
जन्नत को जहन्नम बनाने की गुस्ताख़ी मत करना
क्योंकि ये जो हिन्दोस्तां है ना,मानवता का समन्दर है,
संदीप कुमार मिश्र,

Monday, 2 December 2019

और कितनी निर्भया ! आखिर दरिंदों का अट्टहास कब तक…?



संदीप कुमार मिश्र: क्या कोई बता सकता है कि देश का कोई राज्य या फिर राज्य का कोई जिला,कस्बा ऐसा है जहां जननी की इज्जर तार-तार नहीं हो रही है...?
क्या कोई ये बता सकता है कि आखिर इसकी जिम्मेदारी किसकी है कि हमारे देश में महिलाएं सुरक्षित कब होंगी...?

या फिर कोई ये बता सकता है कि और कितनी निर्भया उन बहसी दरिदों का शिकार होंगी जिनकी गलती सिर्फ इतनी है कि वो आजादी से जीना चाहती है,कुछ करना चाहती हैं अपने लिए,अपने अपनों के लिए,देश के लिए और समाज के लिए...?

शायद नहीं....इसका जवाब किसी के पास नहीं...ना ही सरकारों के पास...ना ही आंख पर पट्टी बांधे न्यायालय की चौखट पर और ना ही सुरक्षा के बड़े...बड़े दावे और वादे करते हमारे प्रशासन के पास...।

किस किस कस्बे की चर्चा करें साहब....जितना बड़ा राज्य उतना ज्यादा अपराध...घिन आने लगी है ऐसी मानसिकता से....मन करता है उठा लो हथियार और बिना सोचे विचारे जिस किसी पर तनिक भी शक हो उसे तुरंत वहीं मार दो...क्योंकि वो तो भूल गए हैं कि उन्हें जन्म देने वाली भी कोई निर्भया ही थी जिसे उस दरिंदे ने मां या फिर अम्मी कहा होगा या फिर जिसे वो ब्याह कर या फिर निकाह कर लाया होगा वो भी तो एक निर्भया ही होगी और उसकी गोद में जिम्मेदारी का एहसास कराने वाले वो नन्हें-नन्हें हाथ भी किसी निर्भया के ही होंगे....भूल गए होंगे वो दरिंदे ये सब बातें......
लेकिन हम नहीं भूले हैं....हमें तो खुशी भी उसी आंचल में मिलती है...सपने भी हम उसी के साथ देखते हैं और स्कूल छोड़ने जाते समय जिम्मेदारी का एहसास भी उसी से पाते हैं.....!

इसका मतलब तो यही हुआ ना जिन हाथों में किताब देनी चाहिए उन हाथों को पहले हथियारों से सज्ज करें और ये बताएं कि राह चलते किसी पर भी शक हो तो बिना देर किए पहले बेटी उसे ठोंक देना...? लेकिन इससे तो अपराध और बढ़ेगा...और संविधान भी इसकी इजाजत नहीं देता और ना ही ये मानविय है...!

आखिर ऐसी बातें सोचने की और संविधान सम्मत आचरण करने की जिम्मेदारी क्या सिर्फ हमारी है उन राक्षसों की नहीं...क्या इस देश के सारे तंत्र बेकार,निकम्मे और नाकारा हो गए हैं...जो सिर्फ घोर निंदा करने के लिए ही रह गए हैं...क्या अपने सम्मान की रक्षा के लिए डरे सहमें लोगों को फिर किसी अवतार का इंतजार करना होगा....कि जब अत्याचार,अनाचार और पाप बेतहासा बढ़ जाएगा तब भगवान अवतार लेंगे और पापियों का नाश करेंगे...? या फिर अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए लोग एक  बेटी के साथ हुए दुष्कर्म के बाद दूसरी बेटी को भी किसी भूखे भेंडिये के आगे कर दें....या फिर हिंसा के रास्ते पर चलते हुए एक के बाद एक दरिंदे को मारते चले जाएं और फिर शहीद कहलाएं....?
आखिर क्या करे वो शख्स़ जिसके घर में मां भी है...बहन भी है...पत्नी भी है..और बेटी भी....? आखिर अपने जीवन के इन अभिन्न हिस्सों को कैसे सुरक्षित रखे कोई......???????

साहब किस रक्षक पर भरोसा करें जो खुद ही सबसे बड़ा भक्षक बने बैठे हैं या फिर उनपर जो आर्डर आर्डर करते हुए फाइलों के बोझ से दबे पड़े पड़े हैं...या फिर उनसे जो हर पांच साल में हमारी सुरक्षा की गारंटी देकर सत्ता में आते तो हैं लेकिन जैसे ही किसी निर्भया की इज्जत तार तार होती है तो कहते हैं कि लड़कों से गलतीयां हो जाती हैं....क्या करें कुछ समझ नहीं आता...!

ना जाने कितनी मोमबत्तियां और दीये जलाए जा चुके हैं और ना जाने कब तक जलाये जाते रहेंगे...और ये देश इसी तरह कलंक का काला टीका लगाए गौरवान्वित महसूस करता रहेगा...!
क्योंकि हमने पालने की आदत जो पाल रखी है...कभी कसाब...तो कभी निर्भया के कातिल वहसी दरिंदों को...इतिहास रहा है जी हमारा तो सहिष्णु बने रहने का...अफसोस कि ना जाने कब वो सौ गलतियां होंगी जब सहिष्णु से भगवान विष्णु का अवतार होगा और सुदर्शन चक्र से उन दरिंदों का संहार होगा...!

आप कहेंगे कि बार-बार भगवान की हम बात कर रहे हैं...आपही बताएं ना किसकी बात करें...प्रशासन की या फिर अदालत की...जहां की चौखट पर न्याय का इंतजार करते दशकों गुजर जाते हैं और ना जाने कितनी निर्भया फिर से न्याय की गुहार लगाए अदालत का दरवाजा खटखटाने के लिए तैयार हो जाती हैं....और गुनहगार सैकड़ों के सुरक्षा घेरे में शान से जेल से अदालत में सरकारी दामाद बनकर पहुंचते हैं जैसे कितना नेक कार्य किया हो...आपको नहीं लगता ऐसा....?

जरा कल्पना कीजिए कि कैसी घिनौनी मानसिकता होगी वो जिसे ना तो छह माह के उम्र का पता चल पाता है और ना ही चौथेपन में अपनी मां जैसी उम्र के होने का एहसास...सोचने भर से रुह कांप जाती है कि क्या ये वास्तव में राम,कृष्ण का देश है जहां कहा जाता है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”…क्या रामराज्य की कल्पना बेमानी नहीं लगती है आपको...?

क्यों नहीं ऐसे भूखे दरिंदों को सरेराह सड़क पर चील कौओं और कुत्तों को नोचने के लिए छोड़ दिया जाए...क्यों ना ऐसे हजारों लाखों दरिंदों को देश के हर कस्बे में ले जाकर चौक पर बांधकर पत्थर मारा जाए(शैतान को आखिर ऐसे ही तो मारा जाता है)।और चाहे सोशल मीडिया हो या फिर न्यूज चैनल महीनों महीनों सिर्फ इसी खबर को दिखाए और हर किसी को देखने पर मजबूर करे...इनकी मौत एक दिन में ना हो इस बात का भी ध्यान रखा जाए...ये टूकड़ों टूकड़ों में मरें और रोज मरें....!
क्यों ना संविधान में बदलाव करके इस नियम को लागू किया जाए...क्योंकि उन हबसी दरिंदों को सरकारी मेहमान बना कर भी तो देख लिए...क्या फर्क पड़ा....हर मिनट देश में ना जाने कितनी लड़कियों की अस्मट लूट ली जाती है और उन्हें मार दिया जाता है...यही ना...?

माफ करियेगा पता नहीं कि क्या लिखूं...बस लिख कर अपने गुस्से का इजहार कर रहा था...क्योंकि हैदराबाद से उत्तर प्रदेश तक और तमिलनाडु से राजस्थान तक शायद ही देश का कोई हिस्सा बचा हो जहां कि दिल दहला देने वाली घटनाएं सोचने पर मजबूर ना कर दें कि अगला कौन...कहां से...किस हालत में....ना जाने और क्या..क्या...? किससे कोई गुहार लगाए..... सरकार से जो कड़ी और घोर निंदा कह कर के काम चला लेती है...अदालत से जो तारीख़ पर तारीख़ देना जानती है...या फिर प्रशासन से जिसकी छवी ऐसी बन गयी है जिसके पास जाने से एक आम आदमी डरता है कि ना जाने क्या पूछ बैठेंगे साहेब या फिर ना जान कितने रुपये पैसे मांग बैठेंगे या फिर कुछ और घिनौने सवाल जो मैं लिख नहीं सकता....जिसे लिखते हुए मेरे हाथ कांपते हैं.....

क्या ये सवाल और जहन में आ रहे ख्याल आपके नहीं है..........सोच कर देखिएगा....जरुर ????

Saturday, 16 November 2019

विद्या की अर्थी उठाते JNU के विद्यार्थी:स्वामी विवेकानंद जी राष्ट्र नायक हैं उनके विचारों को कैसे खत्म कर सकते हो !



स्वामी विवेकानंद तो बन नही पाओगे,उनके विचारों से सीख लेकर एक सभ्य भारतीय तो बन जाओ।
संदीप कुमार मिश्र: JNU कैम्पस के कुछ उपद्रवी और टुकड़े-टुकड़े गैंग के सदस्यों ने स्वामी विवेकानंद जी की प्रतिमा की निरादर सिर्फ इसीलिए की कि उनकी मूर्ति पर उनके वस्त्र भगवा। ये सुनकर उन मूर्खों पर हंसना स्वाभाविक ही था। अब कौन बताए उन मूर्खों को कि ये भगवा धारण करने के लिए स्वामी जी ने कितनी तपस्या और साधना की थी...
चलिए एक छोटा सा दृष्टांत सुनाता हूं आपको नरेंद्र से विवेक और फिर भगवाधारी स्वामीविवेकानंद बनने की...उम्मीद है ये कथानक वो चंद गद्दार,देश के टूकड़े करने वाले चंद विद्या के मंदिर में चुम्मा पार्टी करने वाले कपूतों तक जरुर पहुंचेगा...!

मेरे प्यारे भाईयों और बहनों (स्वामी जी की लाइन से उपयुक्त शुरुआत औऱ क्या हो सकती है,शिकागो) 23 वर्ष की उम्र में संन्यास लेने वाले विवेकानंद जी को लोग यह कहकर ख़ूब उलाहना दिया करते थे कि "स्वामीजी अभाव-संन्यासी हैं या स्वभाव-संन्यासी?" यानी स्वामीजी के मन में सच ही में वैराग्य जगा था या अभाव-विपदा से पीछा छुड़ाने की गरज से उन्होंने कौपीन धारण कर लिया ?

इस उलाहना के पीछे अनेक कारण थे !
गौतम और वर्धमान दोनों ही राजपुत्र थे। जब संसार से मन उचटा तो राजपाट का परित्याग कर वन में चले गए। जाते समय उन्हें यह नहीं सोचना पड़ा था कि हमारे बाद परिजन भूखों तो नहीं मरेंगे। किंतु नरेन्द्रनाथ के साथ स्थिति थोड़ी भिन्न थी।
ऐसे तो दरीयाटाला गांव के कश्यप गोत्र के दत्त लोगों का परिवार समृद्ध था। कलकत्ते में गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर उनकी विशाल "दत्त-कोठी" थी। जिस काल में बंगाली मध्यवर्ग की तनख़्वाह ही 15 रुपया महीना हुआ करती थी, तब "दत्त-कोठी" का महीने का ख़र्चा हज़ार रुपया था। किंतु सुख के दिन सदैव कहां रहते हैं ?

नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ते के प्रख्यात क़ानूनदां थे। वर्ष 1884 में जब उनकी अकाल मृत्यु हुई तो परिवार पर विपदाओं का कहर टूट पड़ा। हालात ऐसे हो गए की जहां हजारों खर्च हो जाया करते थे वहां पति की मृत्यु के बाद नरेन्द्र की माता भुवनेश्वरी देवी जी तीस रुपया मासिक ख़र्च पर आ गई, लेकिन ख़र्चों में कटौती करने से कुटुम्ब का भरण-पोषण कहां होता है ?
जब पिता की मृत्यु हुई तब विवेकानंद 21 वर्ष के थे और घर में सबसे बड़े(पुरुष में) वही थे। जीवन-यापन के साधन के लिए कोई उपाय-जुगाड़ करने का उत्तरदायित्व भी उन्हीं के कंधों पर आया। लेकिन नरेन्द्रनाथ का मन तो मठों और योगियों की दुनिया में उलझा हुआ था !
नरेन्द्रनाथ अपने माता-पिता की चौदह संतानों में से छठे थे। विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी की पहली दो संतानें पुत्र‍ियां थीं और दोनों शैशव में काल-कवलित हो गई थीं। दो अन्य पुत्र‍ियां किरणबाला 18 की होकर और हरिमणि 22 की होकर चल बसीं। पिता की मृत्यु के समय परिवार में एक स्वर्णमयी दीदी ही नरेन्द्र से ज्येष्ठ थीं, हम जानते हैं कि उस काल में स्त्री कहां भात-भोजन के उपाय करने जाती? विवेकानंद के दोनों प्रसिद्ध छोटे भाई तब अल्पायु के थे। महेंद्रनाथ 15 के किशोर थे और भूपेंद्रनाथ तो अभी 3 वर्ष के बालक ही थे। आगे चलकर महेंद्रनाथ को बड़ा यायावर लेखक और भूपेंद्रनाथ को स्वतंत्रता सेनानी बनना था, किंतु अभाव तो उस समय सिर पर था!
मानो यह विपदा ही पर्याप्त ना हो, विश्वनाथ की मृत्यु के बाद अवसर देख अन्य परिजनों ने दत्त-संपत्त‍ि पर दावा ठोंक दिया। कलकत्ता हाईकोर्ट के एटॉर्नी-मुहाल के काग़ज़ात टटोलें तो पाएंगे कि विश्वनाथ दत्त के परिवार पर एक-एक कर बिंदुवासिनी, शचिमणि और ज्ञानदासुंदरी नामक परिवार की ही स्त्र‍ियों ने मुक़दमे दायर किए थे। "दुबले और दो आषाढ़" वाली दुर्दशा थी!
वर्ष 1881 में दक्षिणेश्वर में परमहंसदेव से भेंट के बाद से ही नरेन्द्र का मन संसार से उचट गया था किंतु अब पिता की अकाल मृत्यु के बाद क्या परिवार को भूखों मरने को छोड़ दें? इस दुविधा का सामना कभी गौतम और वर्धमान ने नहीं किया था। इसी आत्मसंघर्ष में 1884 से 1886 तक नरेंन्द्रनाथ के दो वर्ष बीते।

इन दो वर्षों में नौकरी की तलाश में नरेन्द्र ने नौकरी का आवेदन लेकर कार्यालय कार्यालय ख़ूब चक्कर लगाए। ईश्वरचंद्र विद्यासागर के सुविख्यात "मेट्रोपोलिटन इंस्ट‍िट्यूशन" की एक शाखा जब सिद्धेश्वर लेन, चांपातला में खुली तो नरेन्द्रनाथ ने वहां नौकरी के लिए आवेदन किया। नौकरी मिल गई। स्कूल के सेक्रेटरी विद्यासागरजी के जमाई थे। नरेन्द्रनाथ से किसी बात पर उनका विवाद हो गया तो उन्होंने नौवीं और दसवीं के छात्रों से कहलवा दिया कि माटसाब को तो पढ़ाना ही नहीं आता ! स्वयं विद्यासागर जी तक शिक़ायत पहुंची तो उन्होंने कह दिया कि नरेन्द्रनाथ को कल से नौकरी पर आने की आवश्यकता नहीं है।
यह प्रसंग इन अर्थों में चमत्कृत करने वाला है कि जिस विवेकानंद की कीर्ति पूरी दुनिया में एक शिक्षक और उपदेशक के रूप में प्रसारित होना थी, उन्हें स्कूली छात्रों ने यह कहकर निरस्त कर दिया कि वे पढ़ाना नहीं जानते थे ! और दूसरे यह कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे महामानव से भी अभावग्रस्त नरेन्द्र नाथ के पेट पर लात मारने का पाप जाने-अनजाने हो गया था !
इसके बाद नरेन्द्र ने किसी ज़मींदारी कार्यालय में नौकरी की। मार्च 1885 में वह नौकरी भी छोड़ दी। परमहंसदेव को जाकर बताया कि "ठाकुर दादा, यह नौकरी भी छोड़ आया हूं।" ठाकुर दादा ने प्रकृतिस्थ भाव से कहा : "ठीक किया, ठीक ही तो किया!"
दत्त परिवार पर चल रहे दीवानी मुक़दमे के दौरान 8 मार्च 1887 को अदालत में नरेन्द्रनाथ की पेशी हुई। बैरिस्टर साहब ने नरेन्द्र से उनकी उम्र पूछी, नरेन्दर ने कहा, "होगी कोई तेइस चौबीस वर्ष!" पेशा पूछा तो उत्तर दिया, "बेकार हूं!" अब बैरिस्टर साहब ने उलाहना देते हुए कहा, "तुम किसी के चेले बन गए हो ना ?" नरेन ने उत्तर दिया, "मुझे नहीं मालूम कि "चेला" क्या होता है !" फिर बैरिस्टर ने पूछा, "तुम रामकृष्ण आश्रम के लिए चंदा वसूली तो नहीं करते ?" नरेन्दर ने कहा कि "मैंने वैसा कोई कार्य कभी नहीं किया!"
पिता की मृत्यु के बाद नरेन्द्र के जीवन के वे दो वर्ष ऐसे ही अपमान और उलाहना और कटाक्ष से भरे हुए थे।
तभी शंकर का "विवेकचूड़ामणि" उन्होंने पढ़ा तो भीतर तक कांप गए। शंकर ने कहा था : "मनुष्यत्व मुमुक्ष्यत्व: महापुरुष संश्रय।" यानी मनुष्य जाति, आत्मशोध की वृत्त‍ि और महापुरुष का साहचर्य, ये तीनों बातें कभी एक साथ नहीं होतीं, अतएव जब वैसा हो तो सत्य की खोज में जुट जाना चाहिए। नरेन्द्र ने मन ही मन सोचा कि जाने कितने कल्पों के बाद मिला यह अवसर क्या क्लर्क और टीचर की नौकरी करके ही गंवा दूं? नहीं, यह संभव नहीं है।
तब जाकर वर्ष 1886 में उन्होंने संन्यास ले लिया और "स्वामी विवेकानंद" कहलाए।
वैसी ही किसी मनोदशा में तब विवेकानंद ने हरिदास देसाई को पत्र लिखकर कहा था : "आप मेरी दुखिनी मां से मिलने गए, बहुत प्रसन्नता हुई। एक तरफ़ भारतवर्ष के लाखों नर-नारियों का दु:ख है, दूसरी तरफ़ आत्मीय स्वजनों की दुर्दशा। मैंने संन्यास का पथ चुना है। आगे मां काली ही मेरी रक्षा करेंगी!"
विवेकानंद की एक बहन योगींद्रबाला ने गृहकलह में आत्महत्या कर ली थी। उसकी मृत्यु का समाचार मिलने पर वे विलाप करने लगे तो किसी ने टोका : "संन्यासी को ऐसा शोक प्रकाश शोभा नहीं देता!" इस पर विवेकानंद ने उत्तर दिया : "संन्यासी हूं तो क्या अपने हृदय का विसर्जन कर दूं?"
परिवार के प्रति दायित्व की चेतना और आत्मसत्य के शोधन का गुरुभार, इस द्वैत-प्रपंच के बीच विवेकानंद आजीवन पिसते रहे थे। बाद में जब वे जगविख्यात हो गए, तब भी परिजनों की चिंता में घुलते रहे। विशेषकर मां के प्रति चिंतित थे। इसके लिए याचना में हाथ फैलाने से भी उन्होंने संकोच नहीं किया। 1 दिसंबर 1898 को खेतड़ी महाराज को पत्र लिखकर विवेकानंद ने कहा : "मेरे रोग का ख़र्च आपको अधिक दिन वहन नहीं करना होगा क्योंकि अब मैं अधिक दिनों का मेहमान नहीं हूं, किंतु आपसे भीख मांगता हूं कि मां को हर माह सौ रुपयों की जो आर्थिक सहायता आप भेजते हैं, उसे मेरी मृत्यु के बाद भी जारी रखें!"
किंतु दुर्दैव ही था कि स्वयं खेतड़ी महाराज विवेकानंद से पूर्व ही वर्ष 1901 में चल बसे थे!
संसार संन्यासी को देखता है। संसार महायोगी का नाम जपता है। "विवेकानंद" कहकर जयघोष करता है। किंतु इस महायोगी के जीवन में कितने कष्ट-क्लेश थे, देह में कितने रोग थे, अभावों का कितना संताप था, संन्यस्त हो जाने का कितना अपराधबोध था, इस बारे में कौन विचार करता है!
एक मनुज से महायोगी बनने तक की इस यात्रा को देख सकने वाली भावदृष्टि जिसके पास होगी, वह कभी युगनायक के भगवा वस्त्रों की अवमानना करने के पाप का विचार भी नहीं कर सकेगा! इति! (संकलन)