कार्तिक माह की कृष्ण चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन किया जाने वाला करकचतुर्थी यानी करवा चौथ का व्रत सुहागन स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य की कामना और अपने पति की दीर्घायु के लिए रखती हैं।
इस व्रत में शिव-पार्वती, गणेश और चन्द्रमा का पूजन किया जाता है, इस शुभ दिवस के उपलक्ष्य पर सुहागन स्त्रियां पति की लंबी आयु की कामना के लिए निर्जला व्रत रखती हैं।
पति-पत्नी के आत्मिक रिश्ते और अटूट बंधन का प्रतीक यह करवा चौथ या करक चतुर्थी व्रत संबंधों में नई ताजगी एवं मिठास लाता है।
करवा चौथ में सरगी का काफी महत्व है, सरगी सास की तरफ से अपनी बहू को दी जाने वाली आशीर्वाद रूपी अमूल्य भेंट होती है।
परंपरा के तौर पर यह व्रत पर्व वैसे तो पूरे भारत में मनाया जाता है, परन्तु उत्तर-मध्य भारत में यह बहुत अधिक उत्साह व शौक से विवाहित स्त्रियों द्वारा मनाया जाता है।
हालांकि भारत में ही कई ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां इसे बिल्कुल नहीं मनाया जाता है, जैसे कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड में गढ़वाल, अल्मोड़ा आदि अंचलों समेत समूचा दक्षिण भारत इस व्रत से अनभिज्ञ और उदासीन है।
हां, यह जरुर है कि इन क्षेत्रों में जेष्ठ में पड़ने वाले तीन दिन के वट सावित्री व्रत की अनिवार्यता जरूर है, जिसमें सुहागन स्त्री के व्रत का वही उद्देश्य होता है, जो करवा चौथ के व्रत का।
भारतीय दर्शन की पौराणिक परंपरा के अनुसार यह पर्व उन स्त्री जातकों के लिए भी बहुत अधिक महत्वपूर्ण है, जिनके वैवाहिक संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं या जिनके जीवन साथी का स्वास्थ्य ठीक न रहता हो।
यदि ऐसी स्त्रियां इस पर्व पर विधि-विधान से उपवास करके पूजा-अर्चना व कामना करती हैं तो पति-पत्नी के संबंधों में निश्चित रूप से मधुरता बढ़ेगी, आपसी सामंजस्य बढ़ेगा तथा उनके वैवाहिक जीवन से कष्ट दूर हो जाएंगे और खुशहाली आएगी। इस व्रत यह एक गहन पौराणिक मान्यता है।
इस व्रत की शुरुआत प्रातःकाल सूर्योदय से पहले ही हो जाती है, जब सरगी के रूप में सास अपनी बहू को विभिन्न खाद्य पदार्थ एवं वस्त्र इत्यादि देती हैं।
यह सरगी, सौभाग्य और समृद्धि का रूप होती है, सरगी के रूप में खाने की वस्तुओं को जैसे फल, मिठाई आदि को व्रती महिलाएं व्रत वाले दिन सूर्योदय से पूर्व प्रातः काल में तारों की छांव में ग्रहण कर लेती हैं, तत्पश्चात व्रत आरंभ होता है।
इस दिन स्त्रियां साज-श्रृंगार करती हैं, हाथों में मेहंदी रचाती हैं और पूजा के समय नए वस्त्र पहनती हैं।
दोपहर में सभी सुहागन स्त्रियां एक जगह एकत्रित होती हैं, शगुन के गीत आदि गाती हैं, इसके बाद शाम को कथा सुनने के बाद अपनी सासू मां के पैर छूकर आशीर्वाद लेती हैं और उन्हें करवा समेत अनेक उपहार भेंट करती हैं।
रात के वक्त चांद निकलने के बाद अनेक पकवानों से करवा चौथ की पूजा की जाती है तथा चांद को अर्घ्य देकर उसकी पूजा करते हैं।
चंद्र दर्शन के बाद छलनी से आर-पार पति का चेहरा देखकर पति के हाथों से पत्नी जल पीती है और अपने व्रत को पूर्ण करती है।
आज के समय में हर छोटे-बड़े शहर से लेकर महानगरों में करवा चौथ व्रत का आधुनिक स्वरूप बिल्कुल बदल गया है, इस व्रत पर भी बाजार कल्चर हावी हो गया है।
सरगी के रूप में किस्म किस्म के महंगे रेडिमेड फूड और गिफ्ट पैक चल पड़े हैं, जो कि सास अपनी बहू को देती हैं।
सुहागन की साज-सज्जा अब पार्लर आधारित हो गई है और पहनावा डिजाइनर ड्रेसों, साड़ियों, लहंगों और आधुनिक चाइनीज़ करवों तक जा पहुंचा है, यहां तक कि चांद देखने के बाद पति दर्शन की छलनी भी अब चांदी की हो गई है।
रही बात मेकअप की तो उसके लिए अमीरी और दिखावे की होड़ ने सभी परंपरागत स्वरूपों पर पानी फेर दिया है, ऐसे में लगता है कि यह त्योहार मध्यवर्गीय सम्पन्नता का आडंम्बर मात्र रह गया है।
लेकिन इसके विपरीत देहातों में आज भी इसका परंपरागत वजूद कायम है और वहां पर लगता है कि वास्तव में यह व्रत सुहागनों द्वारा की जाने वाली एक उपयुक्त साधना है, जिसे अधिकांश महिलाएं आज भी श्रद्धापूर्वक निभा रही हैं।
सभी भारतीय त्यौहारों को अगर गौर से देखें तो भारतीय संस्कृति के अनुसार नारी का हम सभी के जीवन में महत्व समझ आता है, नारी के बिना हर त्यौहार ही नहीं ज़िन्दगी भी अधूरी है।
वो सिर्फ नारी ही है जो अत्यंत दर्द सहने के बाद भी माँ बनने को अपना सौभाग्य मानती है और छठ का व्रत रखती है, बहन के रूप में हर कदम पर त्याग करके भी भाईदूज पर भाई के लिए उपवास करती है, पत्नी के रूप में सम्पूर्ण समर्पण के बाद भी अपने पति के लिए करवाचौथ और गणगौर का व्रत रखती है।
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