'छठी मैया की जय,
जल्दी-जल्दी उगी हे सूरज देव,
'कईली बरतिया तोहार
हे छठी मैया
'दर्शन दीहीं हे आदित देव
'कौन दिन उगी छई हे दीनानाथ
'छठी मैया की जय,
संदीप कुमार मिश्र: देश के हर भाग में श्रद्धा और विश्वास के साथ मनाये जाने वाला महान पर्व छठ,सूर्योपासना,सुख-शांति का प्रतीक बन चुका है।दोस्तों आज सूर्य ही प्रत्यक्ष देवता के रूप में सभी के सामने विराजमान है जो कालजयी और उर्जावान है।जिन्हें उपनिषद में ब्रम्हा, विष्णु,और महेश का स्वरुप बताया गया है।जिनकी उपासना से प्राणी हर कष्ट से मुक्त हो जाता है।
सूर्य की उपासना सुख शांति पुत्र प्राप्ति के लिये वर्षो से हमारे देश में होती आ रही है।हर साल छठ व्रत के रूप में श्रद्धा और विश्वास के साथ चली आ रही परम्परा अनवरत चालू है।उगते सूर्य की पूजा तो सभी करते है पर यह विश्व की पहली ऐसी उपासना है,जहां डूबते सूर्य की भी पूजा की जाती है।यह व्रत कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष को षष्ठी तिथि में अस्ताचल की ओर जाते सूर्य की उपासना के साथ प्रारम्भ होकर दूसरे दिन सप्तमी तिथि में उदित सूर्य को अर्घ देने के साथ समाप्त होता है।
केरवा जे फरेला घवद से ओह पर सुगा मंडाराय,
जे खबरी जनइबो आदित से सुगा देले जुठियाए ।
मृदूल स्वर में गाये जाने वाला मधूर गीत अपने मधुरता से किसी को भी सुध-बुध खो देने के लिए मजबूर कर देते हैं।हमारे हर पर्व, हर त्यौहार और हर तरह के व्रत के लिए लोक कवियों ने कर्इ तरह के लोक गीतों की रचना की है। इसी तरह दीपावली के ठीक छ: दिन बाद मनाये जाने वाले छठ महापर्व का हिन्दू धर्म में विशेष स्थान है। छठ पर्व “शब्द षष्ठी का अपभ्रंष है।भार्इदूज के तुरन्त बाद मनाये जाने वाला चार दिवसीय व्रत के सबसे कठिन और महत्वपूर्ण रात्रि कार्तिक शुक्ल षष्ठी की होती है।इसके कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया।सूर्य उपासना का यह सबसे प्रसिद्ध पर्व है।मित्रों सूर्य देव एक मात्र प्रत्यक्ष देवता हैं जो समस्त संसार के मित्र हैं।कहते हैं सूर्य देव की अराधना करने से सम्पूर्ण सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गर्इ इस पूजा से मानव की हर मनोकामनायें पूर्ण होती है।इसे करने वाली स्त्रियां और पुरुष धन-धान्य, पति-पूत्र और सुख-समृद्धि से परिपूर्ण रहते हैं।सूर्य उपासना का यह अनुपम लोक पर्व एक क्षेत्र विषेश में लोगों की अटल आस्था का परिचायक है।
साथियों छठ पर्व की परंपरा में ही वैज्ञानिक और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है।षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है।जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और दक्षिणायन के सूर्य की अल्ट्रावॉइलट किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती हैं।क्योकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है।इन दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट, स्किन आदि पर पड़ता है।इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि न पहुंचे,इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है।इसके साथ ही घर-परिवार की सुख- समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है।इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति, पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की खैरियत की ख्वाहिश जाहिर करती हैं।
हमारे देश में सूर्य उपासना के कई प्रसिद्ध लोकपर्व हैं जो अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग रीति-रिवाजों के साथ मनाए जाते हैं।सूर्य षष्ठी के महत्व को देखते हुए इस पर्व को सूर्यछठ या डाला छठ के नाम से संबोधित किया जाता है।इस पर्व को बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और नेपाल की तराई समेत देश के उन तमाम महानगरों में मनाया जाता है। यही नहीं मॉरिशस, त्रिनिडाड, सुमात्रा, जावा समेत कई अन्य विदेशी द्वीपों में भी भारतीय मूल के प्रवासी छठ पर्व को बड़ी आस्था और धूमधाम से मनाते हैं।डूबते सूर्य की विशेष पूजा ही छठ का पर्व है।ऐसे तो चढ़ते सूरज को तो सभी प्रणाम करते हैं।
छठ पूजा विधान
छठ पूजा के पहले दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी ‘नहाय-खाय’ के रूप में मनाया जाता है।सबसे पहले घर की सफार्इ कर उसे पवित्र बना दिया जाता है।इसके पश्चात् छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने “शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की “शुरुआत करते हैं।घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोंपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं।भोजन के रूप में कद्दू ,चने की दाल और चावल ग्रहण किया जाता है।दूसरे दिन कार्तिक “शुक्ल पंचमी को व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद “शाम को भोजन करते हैं....इसे ‘खरना’ कहा जाता है।‘खरना’ का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है।प्रसाद के रूप में मिट्टी के चूल्हे पर गुड एवं चावल की खीर और रोटी बनार्इ जाती है।इसमें नमक या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है।पूजा के दौरान किसी भी बर्तन का उपयोग नहीं किया जाता है।पूजा करने के लिए केले के पत्तों का प्रयोग करते हैं।इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखा जाता है।
तीसरे दिन कार्तिक “शुक्ल शष्ठी को दिन में मिट्टी के चूल्हे पर छठ प्रसाद बनाया जाता है।प्रसाद के रूप में ठेकुआ जिसे कुछ क्षेत्रों में टिकरी भी कहतें हैं।ठेकुआ के अलावा चावल के लड्डू बनाते हैं।इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया लौंग, बड़ी र्इलाइची, पान-सुपारी, अग्रपात, गड़ी-छोहड़ा, चने, मिठार्इयां, कच्ची हल्दी, अदरख, केला, नींबू, सिंहाड़ा, सुथनी, मूली एवं नारियल, सिंदूर और कर्इ प्रकार के फल छठ के प्रसाद के रूप में “शामिल होता है।“शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बांस की टोकरी में अघ्र्य का सूप सजाया जाता है और व्रति के साथ परिवार और पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं।सभी छठ व्रति एक पवित्र नदी या तालाब के किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से स्त्रियां छठ का गीत गाती हैं।इसके बाद अर्घय दान सम्पन्न करती हैं।सूर्य को जल का अघ्र्य दिया जाता है और छठी मर्इया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है।इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृष्य बन जाता है।सूर्यास्त के बाद सारा सामान लेकर सोहर गाते हुए सभी लोग घर आ जाते हैं और अपने घर के आंगन में एक और पूजा की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।जिसे कोशी कहते हैं।यह पूजा किसी मन्नत के पूर्ण हो जाने पर या कोर्इ घर में “शुभ कार्य होने पर किया जाता है।इसमें सात गन्ने नये कपड़े से बांधकर एक छत्र बनाया जाता है।जिसमें मिट्टी का कलश या हाथी रखकर उसमें दीप जलाया जाता है और उसके चारों तरफ प्रसाद रखे जाते हैं।सभी स्त्रियां एकजुट होकर कोशी का गीत गाती हैं और छठी मर्इया का धन्यवाद करती हैं।
चौथे दिन कार्तिक “शुक्ल सप्तमी की सुबह उदियमान सूर्य को अघ्र्य दिया जाता हैं। व्रति उसी जगह पुन: इकट्ठा होते हैं।जहां उन्होंने “शाम को अघ्र्य दिया था।कोशी की प्रक्रिया यहां भी की जाती है।इसके बाद पुन: पिछले “शाम की प्रक्रिया की पुनरावृति होती है।इसके बाद व्रति कच्चे दूध से उगते सूर्य को अघ्र्य देते हैं।अंत में व्रति अदरख गुड़ और थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।इस प्रकार इस पवित्र और पावन त्योहार की संपूर्ण प्रक्रिया पूर्ण की जाती है।
भगवान सूर्य जिन्हें आदित्य भी कहा जाता है।ये एक मात्र प्रत्यक्ष देवता हैं। इनकी रौशनी से ही प्रकृति में जीवन चक्र चलता है।इनकी किरणों से ही धरती में प्राण का संचार होता है और फल-फूल, अनाज, अण्ड और शुक्र का निर्माण होता है और यही वर्षा को आकर्षीत करते हैं और ऋतु चक्र को चलाते हैं।भगवान सूर्य की इस अपार कृपा के लिए सूर्य ,षष्ठी या छठ व्रत इन्ही आदित्य सूर्य भगवान को समर्पित है।
इतिहास में छठ की परंपरा
छठ पर्व की परम्परा की “शुरुआत किस तरह हुर्इ इसके लिए जब इतिहास की तरफ देखते हैं तो इसके संबंध में कर्इ पौराणिक और लोक कथाऐं प्रचलित हैं।दोस्तों रामायण काल में सीता ने गंगा तट पर छठ पूजा की थी।महाभारत काल में कुंती ने भी सरस्वती नदी के तट पर सूर्य पूजा की थी।जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें पांडवों जैसे विख्यात पुत्रों का सुख मिला था।इसके उपरांत द्रौपदी ने भी हस्तिनापुर से निकलकर गडगंगा में छठ पूजा की थी।वे अपने परिजनों के अच्छे स्वास्थ्य और लम्बी उम्र के लिए नियमित सूर्य पूजा करती थी।छठ पूजा का संबंध हठयोग से भी है।जिसमें बिना भोजन ग्रहण किए हुए लगातार पानी में खड़ा रहना पड़ता है।जिससे शरीर के अशुद्ध जीवाणु परास्त हो जाते हैं।
मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य और जल की महत्ता को मानते हुए इन्हें साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना और उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या तालाब के किनारे छठ पूजन किया जाता है।
सनातन संस्कृति और छठ पूजा
हमारे देश भारत में सूर्य की उपासना वैदिक काल से ही होती आ रही है।सूर्य और उनकी उपासना की चर्चा विष्णु पुराण, भागवत पुराण, वैवर्त पुराण में विस्तार से की गर्इ है।मध्य काल तक छठ सूर्य उपासना को व्यवस्थित पर्व के रूप में मनाया जाने लगा।सृष्टी और पालन शक्ति के कारण सूर्य की उपासना सभ्यता के विकास के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग रूप में प्रारंम्भ हो गया।पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता भी माना जाने लगा।इसकी “शुरुआत कार्तिक “शुक्ल चतुर्थी को और समाप्ति “शुक्ल सप्तमी को होती है।
छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है।इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा...जिस पर छ: दिए होते हैं..देवकरी में रखे जाते हैं...और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी के किनारे पूजा की जाती है...नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है..उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है...कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है..उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है..कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।
रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली – बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां
चार दिनों के इस पर्व में आखिरी दो दिन ही ज्यादा चहल-पहल वाले होते हैं।आज के शहरीकरण के कारण लोग अपने मूल प्रांतों से अन्य शहरों में प्रवास करने लगे हैं।छठ पूजा पर अनेक प्रवासी अपने-अपने गांव-घरों को जाने की कोशिश तो करते हैं लेकिन प्रत्येक परिवार के लिए यह संभव नहीं हो पाता है।इसके अलावा हर बड़े महानगर में बहती नदी का भी अभाव है।जैसे दिल्ली में यमुना किनारे छठ पूजा के समय विशाल जनसमूह एकत्रित होता है।इसी तरह देश के अन्य हिस्से जैसे मुंबई, पुणे, बेंगलुरु और चेन्नै में भी लोग छठ पूजा के लिए उत्साहित होकर नदी और तालाबों की खोज करते है।वैसे तो चलते हुए पानी में ही छठ मनाने की परंपरा है लेकिन लोगों की भीड़ को देखते हुए आज-कल शहरों में छोटी-छोटी बावड़ी और तालाबों में लोग छठी मईया की पूजा करते हैं।
कहने का तात्पर्य है कि छठी मईया की पूजा आराधना पवित्र मन और भाव से करने से हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।
निर्धन जानेला ई धनवान जानेला,
महिमा छठ मईया के अपार ई जहां जानेला ||
सभी इष्ट मित्रों व देशवासीयों को सुर्य षष्ठी के महापर्व छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाएं व बधाई।
..जय छठी माईया..