Thursday, 19 May 2016

नागा साधुओं के रीति-रिवाज और अखाड़े

संदीप कुमार मिश्र- सनातन संस्कृति का संवाहक देश है भारत।जहां की विशाल और अतुल्य सभ्यता का अनुसरण संपुर्ण विश्व करता है।तभी तो भारत विश्व गुरु कहलाता है। संत महात्माओं के दिव्य ज्ञान से भारतवर्ष की धरा हरी भरी है।इस पवित्र भुमि पर देव गंधर्व किन्नर भी जन्म लेने के लिए लालायित रहते हैं। आस्था और विश्वास भारतियता की विशेष पहचान है।
दरअसल महाकाल की पावन धरती उज्जैन में लगा है संतो का मेला...क्योंकि अवसर है सिंहस्थ कुंभ महोत्सव में आस्था की डुबकी लगाने की।दोस्तो जब भी कुंभ या महाकुंभ की चर्चा होती है तो एक बात जो आपके जहन से सबसे ज्यादा कौतुहल उत्पन्न करती है वो है नागा साधू।क्योंकि कुंभ मेला जब भी लगता है साधू-संतों, खासकर नागा साधुओं की चर्चा होती ही है।क्योंकि नागा साधूओं की रहस्यमयी दुनिया अद्भूत है।नागा साधी कब खुश हो जाएं और कब इनकी नाराजगी का कोपभाजन एक साधारण जनमानस को होना पड़े,कोई नहीं जानता।इनके प्रत्येक कार्य अजीबोगरीब होते हैं। 
मित्रों आपको बता दें कि नागा साधुओं की कार्य करने का तरीका...वेशभूषा,ध्यान तप की शैली विधि-विधान सब कुछ उनके अखाड़े के अनुसार ही किये जाते है।अखाड़ों की बात करें तो 13 अखाड़ों को मुख्य रुप से मान्यता प्राप्त हैं। जिसमें 3 वैष्णव और 3 उदासीन और 7 शैव अखाड़े हैं। ये सभी अखाड़े देखने में तो एक जैसे ही लगते हैं, लेकिन रहन- सहन, परंपराएं-पद्धति सब कुछ अलग-अलग होते हैं।जानते हैं कुछ प्रमुख अखाड़ों के बारे में-  

                                                                   निर्वाणी अणि अखाड़ा
इस अखाड़े में रह रहे नागा साधुओं के जीवन का प्रमुख हिस्सा कुश्ती है। कई संत तो प्रसिद्ध पहलवान भी रह चुके हैं इस अखाड़े के।
                                                                    बड़ा उदासीन अखाड़ा
इस मुख्य अखाड़े के संस्थापक श्री चंद्राचार्य उदासीन हैं। इस अखाड़े का उद्देश्य सेवा करना है। अखाड़े में 4 महंत होते हैं, जो कभी भी सेवानिवृत नहीं होते है।इनका कार्य निरंतर चलता रहता है।

                                                                  नया उदासीन अखाड़ा
इस अखाड़े का निर्माण बड़ा उदासीन अखाड़े के कुछ साधुओं ने अलग होकर किया। इस अखाड़े में उन्हीं को नागा बनाया जाता है, जो 8 से 12 साल की उम्र के होते हैं यानी जिनकी दाढ़ी-मूंछ निकली हो|कबने का मतलब है कि जो बाल्यावस्था में ही इस परम्परा से जुड़ना चाहे वही इस अखाड़े से जुड़ सकता है।

                                                                        निर्मल अखाड़ा
1784 में निर्मल अखाड़े की स्थापित हुई थी, जो हरिद्वार कुंभ मेले में बड़ी सभा में विचार करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने स्थापित किया था| श्री गुरुग्रन्थ साहिब इनकी इष्ट-पुस्तक है। इस अखाड़ें में धूम्रपान पर पूरी तरह पाबंदी है।जिसका पालन अब बी किया जाता है।

                                                                      दिगंबर अणि अखाड़ा
दिगंबर अणि अखाड़े में ज्यादातर खालसा हैं, जिनकी संख्या तकरीबन 431 है| वैष्णव संप्रदाय के अखाड़ों में इसे राजा कहा जाता है।
                                                                        जूना अखाड़ा
दोस्तों जूना का अर्थ होता है,प्राचीन यानी पुराना। इसी लिए इस अखाड़े को सबसे पुराना अखाड़ा माना जाता है। वर्तमान समय में सबसे ज्यादा महामंडलेश्वर इसी अखाड़े के हैं, जिनमें विदेशी और महिला महामंडलेश्वर भी शामिल हैं। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। रुद्रावतार दत्तात्रेय इनके इष्टदेव हैं।
                                                                         अटल अखाड़ा
भगवान गणेश अटल अकाड़े के इष्टदेव हैं।इस अखाड़े को सन 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया था। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है। इस अखाड़े में केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को ही दीक्षा मिलती है, अन्य वर्णों का इस अखाड़े में प्रवेश वर्जीत है।

                                                                      आवाहन अखाड़ा
सन 646 में आवाहन अखाड़ा स्थापित हुआ, और सन 1603 में इसे फिर से क्रियान्वित किया गया।इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। काशी इस अखाड़े का केंद्र है। 
                                                                        निरंजनी अखाड़ा
निरंजनी अखाड़ा एक मशहूर अखाड़ा है। कहा जाता है कि सबसे ज्यादा उच्च शिक्षित महामंडलेश्वर इसी अखाड़े में है। इसे सन 826 . में गुजरात के मांडवी में स्थापित किया गया था। कार्तिकेय भगवान निरंजनी अखाड़े के इष्टदेव हैं।
                                                                     पंचाग्नि अखाड़ा
इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। गायत्री इनके इष्टदेव हैं। काशी इनका प्रधान केंद्र है। चारों पीठ के शंकराचार्य इनके सदस्यों में शामिल हैं। इस अखाड़े में सिर्फ ब्राह्मणों को ही दीक्षा दी जाती है। ब्राह्मण के साथ उनका ब्रह्मचारी होना भी आवश्यक है।
                                                                   महानिर्वाणी अखाड़ा
यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था| माना जाता है कि इस अखाड़े की उत्पत्ति झारखण्ड के बैद्यनाथधाम में हुई थी। जबकि कुछ हरिद्वार में नीलधारा को इसका जन्म स्थान मानते हैं। कपिल महामुनि इनके इष्टदेव हैं। उज्जैन के महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की पूजा का जिम्मा इसी अखाड़े के पास है।

                                                                     आनंद अखाड़ा
यह एक शैव अखाड़ा है, जिसमें आज तक एक भी महामंडलेश्वर नहीं बनाया गया है। इस अखाड़े में आचार्य का पद प्रमुख होता है। इसे सन 855 . में मध्यप्रदेश के बरार में स्थापित किया गया था। वर्तमान में इसका केंद्र वाराणसी है।

                                                                   निर्मोही अखाड़ा
वैष्णव सम्प्रदाय के तीनों अणि अखाड़ों में से इसी में सबसे ज्यादा अखाड़े शामिल हैं। इनकी संख्या 9 है। इस अखाड़े की स्थापना सन 1720 में स्वामी रामानंद ने की थी। पुराने समय में इस अखाड़ो के साधुओं को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा दिलाई जाती थी।

अंतत: जप-तप,धर्म-कर्म,ध्यान-योग,साधना-सत्संग हमारे देश की परम्परा रही है।जिसकी सहज ही झांकी हमें कुंभ में देकने को मिल जाती है।जो मानव को कर्तव्य पथ पर चलने और त्यागी होने की सीख देते हैं।धन्य है भारत भुमि..ऐससी पावन भुमि को कोटिश: नमन....।।।

Thursday, 5 May 2016

अक्षय तृतीया महात्म्य

न क्षय: इति अक्षय:’ कहने का भाव है कि-जिसका क्षय नही होता वही अक्षय है।

संदीप कुमार मिश्र: कहते हैं कि अक्षय तृतीया का कभी क्षय नहीं होता और इस तिथि की अधिष्ठात्री देवी माता पार्वती हैं।यानि कि इस पावन अवसर पर जो भी नर-नारी सुख शांति और सफलता की कामना करता है उसे माता का व्रत रखना चाहिए और ध्यान करना चाहिए।
दरअसल अक्षय तृतीया के इस महान पर्व को हमारे देश में अनेकानेक नामों से जाना जाता है। अखतीज और वैशाख तीज के नाम से भी देश के कई प्रांतो में इसे मनाया जाता है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया का पावन पर्व मनाया जाता है। इस दिन खासतौर पर स्नान-ध्यान, दान,पूजा-पाठ का विधान हमारे धर्म शास्त्रों में बताया गया है।कहा जाता है कि ऐसा करने से धनधान्य की देवी की कृपा हम पर सदैव बनी रहती है।
कहते हैं कि धर्म की रक्षा हेतु भगवान श्री विष्णु के तीन शुभ रुपों का अवतरण भी इस धराधाम पर अक्षय तृतीया के दिन ही हुआ था। अक्षय तृतीया के दिन के संबंध में मान्यता है कि हर प्रकार के अटके हुए काम, या फिर व्यापार में निरंतर हो रहा घाटा या फिर किसी कार्य के लिए कोई शुभ मुहुर्त नहीं मिल पा रह हो तो उनके लिए कोई भी नई शुरुआत करने के लिए अक्षय तृतीया का दिन बेहद शुभ है।वहीं अक्षय तृतीया में सोने के आभूषण खरीदना भी बहुत शुभ माना गया है।
पौराणिकता और अक्षय तृतीया का महत्व
अक्षय तृतिया के संबंध में कहा जाता है महाभारत के दौरान पांडवों ने भगवान श्रीकृष्ण से अक्षय पात्र लिया था।वहीं इसी दिन सुदामा और कुलेचा भगवान श्री कृष्ण के पास मुट्ठी - भर भुने चावल प्राप्त करते हैं।इस तिथि में भगवान के नर-नारायण, परशुराम, हयग्रीव रुप में अवतरित हुए थे।इसी कारण अक्षय तृतीया के दिन इन अवतारों की जयन्तियां भी मनायी जाती है।कहा ये भी जाता है कि त्रेता युग की शुरुआत भी इसी दिन से हुई थी। इसी कारण से यह तिथि युग तिथि भी कही जाती है।इसी दिन प्रसिद्ध तीर्थस्थल बद्रीनारायण के कपाट भी खुलते हैं।वहीं  मथुरा-वृन्दावन में श्री बांके बिहारी जी के मंदिर में केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं।
अक्षय तृतीया को दान पुण्य विशेष फलदायी
अक्षय तृतीया में पूजा, जप-तप, दान स्नानादि शुभ कार्यों का विशेष महत्व रहता है। आज के दिन माता पार्वती जी का पूजन भी साधक को करना चाहिए।इस पावन अवसर पर पतित पावनी गंगा में स्नान करने से विशेष फल की प्राप्ती होती है।अक्षय तृ्तिया के दिन गर्मी की ऋतु में खाने-पीने, पहनने आदि के काम आने वाली और गर्मी को शान्त करने वाली सभी वस्तुओं का दान करना शुभकारी माना गया है। साथ ही इस दिन जौ, गेहूं, चने, दही, चावल, खिचडी, ईश (गन्ना) का रस, ठण्डाई व दूध से बने हुए पदार्थ, सोना, कपडे, जल का पात्र आदि दान करना चाहिए।


अक्षत तृतीया पर व्रत एवं पूजा विधान
अक्षय तृ्तीया के खास अवसर पर व्रत साधक को अवस्य करना चाहिए। इस दिन को व्रत-उत्सव और त्योहार तीनों ही श्रेणी में शामिल किया जाता है। इसलिए इस दिन जो भी धर्म के कार्य किए जाते हैं उनका लाभ अवश्य प्राप्त होता है।
इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में स्नान इत्यादि नित्य कर्मों से निवृत होकर व्रत या उपवास करना चाहिए और भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र पूजा घर में स्थापित कर पूजन करना चाहिए।और भगवान विष्णु के सस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए।सुख शांति तथा सौभाग्य समृद्धि हेतु इस दिन भगवान शिव और माता पार्वती जी का पूजन भी अवश्य करना चाहिए।
अंतत: अक्षय तृतीया पर पर परम पिता की कृपा आप पर बनी रहे और ये महान पर्व,उत्सव आपके जीवन में उन्नती और तरक्की लेकर आए।हम तो यही कामना करते हैं।।सनातन धर्म की जय हो।।

गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर


 'मेरा घर सब जगह है,मैं इसे उत्सुकता से खोज रहा हूँ। मेरा देश भी सब जगह है,इसे मैं जीतने के लिए लडूंगा।प्रत्येक घर में मेरा निकटतम संबंधी रहता है,मैं उसे हर स्थान पर तलाश करता हूँ। -गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर

संदीप कुमार मिश्र: महान साहित्यकार,चित्रकार और विचारक "रविन्द्र नाथ टैगोर" का जन्म 7 मई सन 1861 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ टैगोर व माता शारदा देवी थी। रविन्द्र नाथ टैगोर को घर के लोग प्यार से 'रवि' कहकर पुकारते थे।
दरअसल दोस्तों बचपन के दिनों में रविंद्रनाथ अन्य बच्चों से अलग अपनी ही कल्पना की दुनिया में गोते लगाते रहते थे। सन 1868 को रवि को विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया लेकिन उन्हे विद्यालय का परिवेश रास नहीं आया।और उन्हें दूसरे स्कूल में प्रवेश दिलाया गया।होनहार रवि की कुश्ती,चित्रकारी,व्यायाम और विज्ञान में विशेष रूचि थी।कविता और संगीत ये दोनों ही गुण रविन्द्र नाथ टैगोर में शुरुआती दिनो से ही मौजूद थे।जिसे रविन्द्र नाथ टैगोर ने बड़े होकर लिखा- "मुझे ऐसा कोई समय याद नहीं जब मैं गा नहीं सका।"
बाल्यकाल में ही कविता लिखने की रविन्द्र कला से माता-पिता बेहद प्रसन्न हुए। 17 वर्ष की उम्र में रविन्द्र को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके परिवार ने परदेश(इंग्लैंड) भेज दिया।जहां से रवि चित्रकारी और लेखन में और अधिक पारंगत होकर स्वदेश लौटे।सन 1883 में रविन्द्र नाथ टैगोर का विवाह मृणालिनी देवी से हुआ।प्रकृति प्रेमी रविन्द्र नाथ का कहना था कि भारत की प्रगति के लिए गांवों का विकास किया जाना जरुरी है।

कहते हैं कि रविन्द्र नाथ टैगोर ने गरीब और अशिक्षित किसान के अन्दर अन्धविश्वास को देखकर स्कूल खोलने का निश्चय किया।और शिक्षित करने का संकल्प लिया।जिसमें उनकी पत्नी ने भी उनका भरपूर साथ दिया। आज रविंद्र नाथ के द्वारा किया गया प्रयास विश्व के सामने शान्तिनिकेतन के रूप में है।जहां विद्यालय में कक्षाएं खुले वातावरण में वृक्षों के नीचे लगती है। इस स्कूल की स्थापना में रविन्द्रनाथ को अत्यंत संघर्ष करना पड़ा था,लेकिन हर्ष इस बात का था कि शिक्षार्थ किया गया कार्य मानवता को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाएगा।
अफसोस कि रविंद्रनात टैगौर के जीवन में शान्तिनिकेतन की स्थापना के पश्चात एक के बाद एक कई दुखद घटनाओं का तांता लग गया।पहले रविंद्रनाथ की पत्नी,फिर पुत्री तथा पिता का निधन हो गया और उसके कुछ दिनों बाद उनके छोटे बेटे का भी देहांत हो गया। इन घटनाओं का रविंद्रनाथ के जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा लेकिन उनके शिक्षा के संकल्प को डिगा नही सका और उनका पूरा ध्यान स्कूल को निरंतर गती देने में लगा रहा।

इतना ही नहीं रविन्द्र नाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।उनके चिंतन, विचारों ,स्वप्नों व आकांक्षाओ की अभिव्यक्ति उनकी कविताओ,कहानियों, उपन्यास, नाटको, गीतों और चित्रों में होती है।उनके गीतों में से एक-"आमार सोनार बांग्ला" बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत है, और उन्ही का गीत-"जन गन मन अधिनायक जय हे" हमारा राष्ट्रगान है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी रविन्द्र नाथ टैगोर के व्यक्तित्व से अत्यंत प्रभावित थे।रविन्द्र नाथ टैगोर ने गांधी को 'महात्मा' कहा और गांधी ने रविन्द्र नाथ टैगोर को 'गुरुदेव' की उपाधि दी। रविन्द्र नाथ टैगोर को उनकी काव्यकृति 'गीतांजलि' के लिए सन 1913 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला।यह सम्मान प्राप्त करने वाले वह प्रथम एशियाई व्यक्ति थे। महान कवि,विचारक,समाज सुधारक रविन्द्र नाथ टैगोर मातृभाषा के प्रबल पक्षधर थे।उनका कहना था-जिस प्रकार मां के दूध पर पलने वाला बच्चा अधिक स्वस्थ और बलवान होता है,वैसे ही मातृभाषा पढ़ने से मन और मस्तिष्क अधिक मजबूत बनते है। 7 अगस्त सन 1941 को रविन्द्रनाथ टैगोर ने अंतिम सांस ली। 
        
रविंद्रनाथ टैगोर जी के अंतिम शब्द-
"अपने भीतरी प्रकाश से ओत-प्रोत, जब वह सत्य खोज लेता है।    
 कोई उसे वंचित नहीं कर सकता,वह उसे अपने साथ ले जाता है
 अपने निधि-कोष में अपने अंतिम पुरस्कार के रूप में"।।


अंतत: ऐसे महान संत विचारक,रचयिता रविन्द्रनाथ टैगोर के जन्म दिवस पर उन्हें शत-शत नमन और आप सभी ईष्ट मित्रों को हार्दिक बधाई।।