संदीप कुमार मिश्र- वो औरत जब ब्याह
कर आयी थी, तो कुछ दिनों तक तो सब ठीक भी था! लेकिन ना जाने क्यों अपनी सासू मां पर बार बार नए
नए आरोप लगानो लगी...अपने दफ्तर से थका हारा आया उसका पति एक ही बात कहता अपनी
पत्नी से कि “भगवान के लिए ये रोज रोज की किच किच बंद करो और
मेरी मां पर बेबुनियादी आरोप लगाना बंद करो...लेकिन पत्नी जी थी कि एक ही बात की
रट लगाए थी कि ‘नहीं आपकी मां ने ही मेरी सोने की चैन उठाई है
जब मैं नहाने गई थी...’ बेचारा पति अपनी
झल्लाहट को कम करता हुआ प्यार से समझाता है कि “सुनो मेघा जब
हमारे कमरे कमरे में मेरे और तुम्हारे अलावा कोई आता जाता ही नहीं तो कैसे
तुम्हारी चैन गायब हो सकती है,ध्यान से सोचो तुम ही कहीं रख कर भूल गई होगी...”पति की बात पर ध्यान ना देते हुए मेधा ने और जोर से चिख कर
कहा कि ‘नहीं मुझे पूरा विश्वास है कि आपकी मां ने ही
मेरा चैन चुराया है...’
मां की अवहेलना एक बेटा कैसे बर्दास्त कर सकता था...जाने अनजाने में गुस्से
में उसने मेघा को एक थप्पड़ रसीद कर दिया...जिसकी कल्पना मेघा ने कभी नहीं की
थी...चंद महीनो पहले हुई शादी का सारा नशा उतरे देर ना लगी और संबंधों में एक दरार
आ गयी...परिणाम इतना भयानक था कि मेघा अपना बैग पैक करके घर छोड़कर जाने
लगी लेकिन जाते जाते उसने अपने पति से आंखों में आंसू भरते हुए एक सवाल पूछा कि “तुमको अपनी मां पर इतना यकीन और विश्वास क्यूं
है..??”
खामोश खड़ा एकटक दरवाजे की तरफ निहारते हुए पति ने मेघा की
बातें सुनकर जो उत्तर दिया तो उसे अपने कमरे में दरवाजे की ओट में खड़ी उम्मीदों
के उजालों से भरी मां ने सुना तो उसका मन बरबस ही भर आया क्योंकि उस बेटे ने अपनी पत्नी
मेघा से कहा कि "जब वो बहुत छोटा था तभी असमय उसके पिताजी गुजर गए,सभी
जिम्मेदारी मां के उपर आ गयी..मां ने मोहल्लेवालों के घरों मे झाडू-पोछा लगाकर एक
वक्त की रोटी इकट्ठा करती थी... मुझे याद है जब मां मुझे थाली में भोजन परोसती थी
तो एक खाली डब्बे को ढक कर रख देती थी और मुस्कुराते हुए कहती थी “मेरी रोटियां बेटा इस डिब्बे में है,अभी मेरी इच्छा नहीं है
तू खा ले...मां की बात सुनकर मैं भी हमेशा की तरह ही आधी रोटी खाकर ही मूंह बनाकर कह
देता था कि मां मेरा पेट भर गया है मुझे और नही खाना है...बस हां...इससे ज्यादा
मैं नहीं खा सकता...।
मेरी मां ने मुझे मेरी छोड़ी हुई आधी रोटी खाकर बड़ी
मुश्किल से मुझे पाला पोसा और बड़ा किया है...आज अगर मैं दो रोटी कमाने लायक हो पाया
हूं तो ये मेरी नहीं मेरी मां की तपस्या है...अरे कैसे भूल सकता हूं कि मेरी मां
ने उम्र के उस पड़ाव पर अपनी इच्छाओं को मेरी खातिर मार दिया जबकि वो अपनी सभी
कामनाओं को पूरा कर सकती थी...आज वही मेरी मां अपने उम्र के अंतिम पड़ाव पर
तुम्हारी सोने की चैन की भूखी हो जाएगी...ऐसे कलुषित विचार की कल्पना तो मैं सपने
में भी नहीं कर सकता...
तुम चाहती हो कि तीन दशक की कठोर,घनघोर तपस्या को मैं
तुम्हारे तीन महिने से मिले क्षणिक सुख के लिए भूला दूं....?ऐसा नहीं हो सकता...तुमसे बस यही कहना चाहूंगा कि मेरी मां का
सम्मान करो...अपने लिए क्योंकि कल तुम भी मां बनोगी...कहीं ऐसा ना हो कि तब समय की
मार को तुम झेल ना पाओ ! पति की बात सुनकर मेघा की आंखो से आंसू छलक पड़े...और
दूसरी तरफ मां की आंखों से भी आँसूओं का समंदर बहने लगा...
समय ठहर सा गया...आंसूओं के सैलाब में आनंद के उदित होने का
संकेत दिखने लगा...मेघा मां के पैरों मों लिपट जाती है...मां वात्सल्य से बेटा और
बहू को गले लगा लेती है...
अंतत: मां अनमोल
है,जितना सेवा और सम्मान कर सकते हैं करें...कहीं संदेह हो तो मेरे जैसे लोगों से
पूछें कि जब मां के आंचल से लिपटने का मन करता है तो चंद आंसू बहा कर संतोष कर लेते
हैं...और कर भी क्या सकते हैं....!
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