Wednesday 10 February 2016

मनरेगा: यूपीए से लेकर मोदी सरकार तक: क्या बदला..?


संदीप कुमार मिश्र: मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना । मतलब आप समझ ही गए होंगे...यूपीए के सासन काल में चलाई गई एक ऐसी योजना जिसके तहत रोजगाग की गारंटी...।मनरेगा योजना से देश के दूर-दराज इलाकों में रहने वाले लोगों को उनके घरों के पास ही कामकाज मिलना शुरू हो गया।जिसका परिणाम हुआ कि दिल्ली और दूसरे शहरों में बिहार और यूपी के निर्धन परिवारों के नौजवान नौकरी की तलाश में आते ही नहीं।इस योजना की मोदी सरकार ने भी जमकर प्रशंसा की।

दरअसल मोदी सरकार ने मनरेगा के दस साल पूरे होने पर इसकी तारीफ की।जिसप्रकार से पूर्वर्ती सरकार की किसी योजना का स्वागत और प्रसंसा मौदी सरकार द्वारा की गई इसके लिहाज  से इसे देश की सियासत के लिए अच्छा संकेत कहा जा सकता है।क्योंकि अक्सर सरकार का मतलब पूर्ववर्ती सरकार की योजनाओं की आलोचना करना भर रहा है।जरा याद किजिए लोकसभा में पिछले साल 27 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, ‘‘मनरेगा यूपीए सरकार की आपसी विफलताओं का जीता जागता स्मारक है।आजादी के 60 साल बाद आपको लोगों को गड्ढे खोदने के लिए भेजना पड़ा। ये मैं गाजे-बाजे के साथ इस स्मारक का ढोल पीटता रहूंगा.’’

 लेकिन समय बदला और अब मनरेगा को लेकर मोदी सरकार की सोच सकारात्म दिख रही है।आखिर ऐसा क्यों...?इस योजना में बदलाव इसलिए हुआ क्योंकि भले ही योजना की मूल भावना ठीक थी लेकिन इसे लागू करने को लेकर यूपीए सरकार नाकाम ही रही थी। यही वजह थी कि मनरेगा नौकरशाही के लिए सरकारी धन के खुलेआम लूट का एक माद्यम बनकर रह गई थी।लेकिन केंद्र की सत्ता में मोदी सरकार के काबिज होने के बाद योजना सही तरह से क्रियान्विक किया गया। भ्रष्टाचार को खत्म करने लिए चौदह करोड़ गरीबों का बैंक एकाउन्ट खोला गया,जिससे कि पैसे सीधे उनके खाते में जाने लगा।यही वजह है कि पैसे का दुरुपयोग रुका और गरीबों को पैसा मिलने लगा।
जैसा कि ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया कि साल 2015-16 में मनरेगा दोबारा पटरी पर लौटा है। पिछली दो तिमाही में औसतन जितना रोजगार मिला, उतना पिछले पांच साल में नहीं मिला था। मजे की बात ये है कि ये आंकड़े ऐसे वक्त पर जारी किया गया, जब विपक्ष मनरेगा को लेकर मोदी सरकार की मंशा पर लगातार सवाल खड़े कर रहा था।

हम सब जानते हैं कि यूपीए के शासन काल में मनरेगा के क्रियान्वयन में खामियों को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने उजागर किया था। मनरेगा के तहत ऐसे-ऐसे कामों के लिए पेमेंट की गई जो इस योजना के दायरे में ही नहीं आते थे,और ऐसे कामों के लिए स्वीकृति भी नहीं ली गई थी। न तो सरकारी फंड का सही तरीके से इस्तेमाल किया गया और न ही ढंग से निगरानी की गई थी। यही नहीं गरीबी वाले राज्यों को कम रकम दी गई। जिनकी मांग कम थी, उन्हें अधिक धन दिया गया और इन राज्यों में फंड का बहुत कम हिस्सा इस्तेमाल हुआ। 4.5 लाख जॉब कार्डों में फोटो तक नहीं लगाए गए थे। क्योंकि उनमें अधिकतर जाली थे। यानी घोटाला करने के सभी दरवाजे खुले हुए थे।

जिस प्रकार से कैग ने अपनी रिपोर्ट दी थी,उससे यूपीए सरकार को सबक लेना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वरन यूपीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री रहे जयराम रमेश ने तो यहां तक कहा कि आप ’’कीचड़’’ देखते ही क्यों हैं, आप ’’कमल’’ को देखिये। क्या उनकी इस राय से कोई सहमत हो सकता है? उन्होंने तो मनरेगा को लागू करने के स्तर पर होने वाले तमाम आरोपों और खामियों की जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी थी।आपको बता दें कि यूपीए शासन काल में मनरेगा की कार्यशैली पर सुप्रीम कोर्ट ने भी गम्भीर तेवर दिखाए थे।

एनडीए ने योजना को दी नई दिशा
वर्तमान की मोदी सरकार ने मनरेगा योजना को राज्य सरकारों के साथ मिलकर शानदार तरीके से लागू कर रही है।जहां पहलेइस योजना को खराब तरीके से लागू करने के संबंध में शिकायतें मिला करती थी,तो कहीं जॉब कार्ड धारकों को काम न मिलने की शिकायतें हुआ करती थी, तो कहीं पूरे सौ दिन काम नहीं मिलता था।इसी प्रकार से फर्जी मस्टर रोल, मशीनों के उपयोग से फर्जी बिल बनाकर सरकारी रुपया कर्मचारियों और कई स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ताओं द्वारा अधिकांश फंड डालकर लेने की शिकायतें आती थीं।जिसपर अब भरसक लगाम लग रही है।

अब मनरेगा अधिनियम के अन्तर्गत जिलाधिकारियों की यह जिम्मेदारी होती है कि वे प्रतिवर्ष स्पेशल आडिट कराएं।और वेबसाइटों पर यह सूचना भी जारी करें कि किन-किन लोगों को जॉब कार्ड दिए गए हैं, उन्हें कितना भुगतान हुआ है और यह राशि उन तक पहुंची या नहीं।जबकि यूपीए के शासन में मनरेगा की सबसे बड़ी खामी जो सामने आई थी वो ये कि ग्रामीण स्तर पर जॉब कार्ड बनाने का काम ग्राम प्रधानों और ग्राम पंचायत अधिकारियों के हवाले कर दिया गया था और इन लोगों ने अपने चहेतों को ही जॉब कार्ड बांटे थे।जिसमें जमकर घूसखोरी चलती थी। ये ऐसे जॉब कार्ड धारक थे जो कागजों में दर्ज थे और जब बैंकों से मजदूरी निकालनी होती थी, तो उस दिन बैंकों में ग्राम प्रधान ग्राम विकास अधिकारियों के साथ आ जाते थे और निकाली गई मजदूरी को तीनों मिल-बांटकर खा लेते थे।

जिस वजह से मनरेगा में जो लोग लगे हुए थे, वे मेहनत से भागने लगे थे। जब बिना श्रम किए उन्हें मजदूरी चाहे आधी ही भले क्यों न हो मिल तो रही थी और, गरीबी सीमा से नीचे रहने से उन्हें सस्ती दरों पर गेहूं, चावल मिल रहा था तो मजदूरों की कार्यक्षमता तो प्रभावित होगी ही। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने मिलकर ठोस कदम उठाने शुरू किए ताकि मनरेगा पटरी पर आ जाए और भ्रष्टाचार से निजात मिल सके।


अंतत: मोदी सरकार की चुनौतियां मनरेगा को लेकर अब भी कम नहीं हुई हैं।क्योंकि मनरेगा के तहत मजदूरी करने वाले लाखों लोगों को अभी भी पैसे समय पर नहीं मिल रहे। सरकार को इस तरफ भी ध्यान देना होगा।जिससे अच्छे दिन की बात गरीब भी कर सके।

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