Sunday 13 December 2015

13 दिसंबर : भारतीय संसद पर हमले के 14 साल



संदीप कुमार मिश्र : भारतिय लोकतंत्र के मंदिर संसद भवन पर आज ही  दिन 14 साल पहले 13 दिसंबर 2001 को आतंकियों ने अपने नापाक मंसूबों से लहूलुहान कर दिया था।देश आज संसद हमले में शहीद हुए सुरक्षाकर्मियों को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। 13 दिसंबर 2001 ही वो मनहुस दिन था जब हथियारों से लैस पांच आतंकवादी संसद भवन के परिसर में घुस गए थे और अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने के लिए अंधाधुंध गोलीयां बरसानी शुरू कर दी थी। इस घटना में संसद की सुरक्षा करते हुए दिल्ली पुलिस के पांच सुरक्षाकर्मी नानक चंद, रामपाल, ओमप्रकाश, बिजेन्द्र सिंह और घनश्याम तथा केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की एक महिला कांस्टेबल कमलेश कुमारी और संसद सुरक्षा के दो सुरक्षा सहायक जगदीश प्रसाद यादव और मातबर सिंह नेगी हमले का बहादुरी से सामना करते हुए शहीद हो गए थे।

दरअसल आज के दिन को हमारे भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में सजग रहने का संदेश मिलता है। हमारे वीर जवानों ने नापाक इरादों को नाकाम को कर दिया लेकिन जरा सोचिए एगर आतंकी सफल हो गए होते तो क्या होता...? इस सवाल का जवाब शायद किसी के पास नहीं है।कल्पना करने भर से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उस दिन संसद के बाहरी हिस्से में गोलियों की तड़तड़ाहट साफ सुनाई दे रही थी लेकिन  कुछ घंटों बाद जब गोलियों का शोर थमा तब पटा चला कि पांचों हमलावर मारे गए।उस समय के  देश के तत्कालीन गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी वहां मौजूद थे और सौ के आसपास सांसद भी। उन्हें आतंकी बंधक भी बना सकते थे ।जैसा कि कुछ साल पहले आतंकीयों ने भारतीय विमान को हाईजैक कर  कांधार ले गए थे।जिसके लिए एनडीए नित वाजपेयी सरकार को दहशतगर्दों की मांगे माननी पड़ी थी।

ईश्वर का लाख लाख शुक्र था कि आतंकि अपने मंसूबे में कामयाब ना हो सके अन्यथा हमारा लोकतंत्र हमेशा के लिए शर्मसार हो गया होता। आज भी संसद हमले की वारदात रोंगटे खड़े कर देती है। 13 दिसंबर, 2001 के उस हमले के बाद 2002 में अक्षरधाम, 2005 में दिल्ली, 2006 में मुंबई की लोकल ट्रेन, 2008 में जयपुर और इसी साल असम में हमले हुए। सवाल उठता है की सरकारें क्या करती रही।हद तो तब हो गई जब 26/11/2008 को मुंबई पर पाकिस्तानी आतंकियों ने हमला किया।जिसने ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि पड़ोसी मुल्क को उसी की भाषा में जवाब देने का वक्त आ गया है।

आपको बता दें कि उस समय दिल्ली में मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए की सरकार देश में थी। कहते हैं कि नई दिल्ली ने इस हमले के बाद विश्व बिरादरी और इस्लामाबाद को साफ शब्दों में चेता दिया था कि अब अगर इस तरह की नापाक हरकत हमारे साथ हुई, तो हमारी फौजें सरहद पार करने से नहीं चूकेंगी। यह उस धमकी का असर है या सिर्फ संयोग कि उसके बाद से देश में इस दरजे की आतंकवादी वारदात नहीं हुई? हालांकि हम सब जानते हैं कि ऐसा कहीं भी, कभी भी हो सकता है। इसे कैसे रोका जाए...?मूल सवाल यही था।

बहरहाल समय बदला सियासत बदली और दिल्ली की सत्ता पर कमल का उदय हुआ और मोदी सरकार बनी।सत्ता संभालते ही मोदी सरकार ने पहला काम पाकिस्तान की ओर हाथ बढ़ाने का किया। जवाब में आतंकवादी हमले भले ही न हुए हों,लेकिन सीमाओं पर पाकिस्तानी गोलाबारी में 30 से ज्यादा जवानों और निरीह नागरिकों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी। दोनों देशों के आका इस बात को भलीभांति जानते भी हैं कि हम अपना पड़ोस नहीं बदल सकते और विश्व बिरादरी भी किसी भी सूरतेहाल इन दो परमाणु शक्तियों को टकराते हुए नहीं देखना चाहती। जिसकी वजह से कुछ मजबूरीयां,दोस्ती की चाहत, दबाव और कुछ विवशताओं के चलते बातचीत का एक और दौर फिर शुरु हुआ है।

जिसकी शुरुआत एनएसए लेबल की बैंकाक में बातचीत से हुई।जिसे आगे बढ़ाने के लिए विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस्लामाबाद में नवाज शरीफ से मिलने गई और समग्र वार्ता का खाका तैयार हुआ । यकीनन, इस बातचीत से पहले विभिन्न स्तरों पर दोनों देशों के कूटनीतिज्ञों ने लंबा विचार-विनिमय किया होगा।


अंतत: बड़ा सवाल उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ शांति के उस पथ पर आगे बढ़ पाएंगे जिसपर अब तक के हुक्मरानों की तमाम जोड़ीयां नाकाम रही हैं...? खैर उम्मीदों को बरकरार रखने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन हम संसद पर हमले की 14वीं बरसी से उपजे सवालों और चेतावनियों को अनसुना और अनदेखा नहीं कर सकते। बहरहाल संसद हमले में शहीद हुए भारत के वीर सपूतों को शत शत नमन....।।


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